इस वर्ष "नकबा" या “तबाही” के 75 वर्ष पूरे हो गए हैं. 1948 में फिलिस्तीनियों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ था. जिसकी याद में हर साल 15 मई को फिलिस्तीनी “अल नकबा” मनाते हैं. इस साल न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में भी पहली बार “नकबा” की 75वीं वर्षगांठ मनाई गई. पिछले कुछ वर्षों में इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी है. दरअसल, ये विवाद पुराना और जटिल है. आइए जानते हैं कैसे इस पूरे विवाद की शुरुआत हुई…
साल था 1948 जब फिलिस्तीनियों को उनके ही देश से खदेड़ दिया गया और वहां एक नए देश इजरायल को बसाया गया. वहीं से अरब-इज़रायल के बीच पहले युद्ध की शुरुआत हुई. हालांकि इसकी नींव करीब 150 साल पहले ही रख दी गई थी. साल 1799 में फ्रांस के राजा नेपोलियन बोनापार्ट ने घोषणा की जिसमें कहा गया कि वो फिलिस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि बनाने के लिए प्रतिबद्ध है. यह पश्चिम एशिया इलाके में फ्रांस की मौजूदगी स्थापित करने का उनका एक जरिया भी था. नेपोलियन का वो विजन उस समय भले ही साकार नहीं हो सका, लेकिन 19वीं सदी के अंत में अंग्रेजों ने उसे पुनर्जीवित किया.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ओटोमन साम्राज्य की हार हुई और ब्रिटेन ने विजय प्राप्त की. ब्रिटेन ने फिलिस्तीनी जमीन पर यहूदी राज्य बनाने का समर्थन किया. उसी समय जियोनिस्ट आंदोलन (यहूदियों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की मांग करने वाले लोग) के रूप में एक और बड़ा डेवलपमेंट हो रहा था. जो पश्चिमी शक्तियों को फिलिस्तीन में यहूदियों के प्रवास का समर्थन करने और उस पर यहूदी दावे को मान्यता देने के लिए पैरवी कर रहा था. 1917 में ब्रिटेन ने ‘बाल्फोर डिक्लेरेशन’ (Balfour Declaration) के तहत फिलिस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि बनाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जताई. जिसका फिलिस्तीनियों ने कड़ा विरोध किया. यहूदियों ने बड़े पैमाने पर इस इलाके में जमीन खरीदनी शुरू कर दी, जिससे हजारों फिलिस्तीनियों को अपने देश से विस्थापित होना पड़ा. 1936 तक आते-आते ब्रिटिश साम्राज्यवाद और जियोनिस्ट उपनिवेशवाद के खिलाफ अरब विद्रोह भड़क उठा. जिसे अंग्रेजों ने 1939 तक कुचल दिया. फिलिस्तीनी अब एक नहीं बल्कि दो दुश्मनों का सामना कर रहे थे, पहला अंग्रेजों और दूसरा जियोनिस्ट लड़ाकू समूहों से.
1945 तक ये इलाका ब्रिटेन के कब्जे में रहा और इस दौरान यहूदियों और फिलिस्तीनियों में कई संघर्ष होते रहे. ये साफ था कि इस संघर्ष में फिलिस्तीनी संख्या बल और हथियारों में काफी पिछड़ रहे थे. यहूदी राष्ट्र की मांग करने वाले इस इलाके से फिलिस्तीनियों का नामो-निशान मिटा देना चाहते थे और ये पूरी प्रक्रिया एक खास रणनीति के तहत अंजाम दी जा रही थी. हालातों को बिगड़ता देख और विवाद को हल करने में असफल होने के बाद अंग्रेजों ने ये मामला नव स्थापित संयुक्त राष्ट्र (UN) को सौंप दिया.
संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन को दो भागों में विभाजित कर दिया. एक अरब राज्य और दूसरा यहूदियों के लिए इजरायल. यहूदियों की कम जनसंख्या होने के बावजूद संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के तहत उन्हें 55 फीसदी हिस्सा आवंटित किया गया. फिलिस्तीनियों और उसके अरब सहयोगियों को ये नागवार गुजरा और उन्होंने प्रस्ताव को खारिज कर दिया. जियोनिस्ट आंदोलन यहीं तक ही सीमित नहीं रहा. 1948 की शुरुआत में, यहूदियों ने फिलिस्तीन के दर्जनों गांवों और शहरों पर कब्जा कर लिया था. जिससे हजारों फिलिस्तीनियों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. और ये सब ब्रिटिश जनादेश के प्रभाव में होने के बावजूद हो रहा था. कुछ जानकारों का मानना है कि इस संघर्ष का सबसे बुरा और डरावना परिणाम फिलिस्तीनियों के संगठित जातीय नरसंहार के रूप में सामने आया.
14 मई 1948 को फिलिस्तीन के लिए ब्रिटिश जनादेश समाप्त होते ही इजरायल ने खुद को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया. उस समय दुनिया की दो महाशक्तियों, संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ ने तुरंत इजरायल को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्वीकार कर लिया. यहूदियों ने फिलिस्तीन के सबसे बड़े शहरों में से एक हाइफा पर कब्जा कर लिया और अन्य इलाकों पर भी उसकी नजरें थीं. इसी बीच पड़ोसी अरब देशों ने इजरायल पर हमला कर दिया. दोनों पक्षों के बीच ये संघर्ष करीब 15 महीने तक जारी रहा. 1949 तक, 7 लाख से अधिक फिलिस्तीनी शरणार्थी बन गए और करीब 13 हजार से अधिक मारे गए. संयुक्त राष्ट्र इजरायल और अरब देशों के बीच युद्धविराम समझौते की लगातार कोशिश कर रहा था.
मई 1949 में, इजरायल को संयुक्त राष्ट्र के नए सदस्य के रूप में प्रवेश मिल गया. अब फिलिस्तीन के करीब 78 प्रतिशत इलाके पर उसका कब्जा स्थापित हो गया. बाकी 22 प्रतिशत हिस्से को वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी के रूप में जाना गया. तब से साल दर साल इजरायल-फिलिस्तीन विवाद बढ़ता गया, जो आज तक जारी है. कई बार अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने दोनों के बीच समझौते और शांति विराम की कोशिश की, लेकिन कोई खास निष्कर्ष नहीं निकला. इसकी बड़ी कीमत आज तक इन दोनों देशों को चुकानी पड़ रही है.