भारत के साथ कारगिल विवाद को खत्म करने के मकसद से जुलाई, 1999 में तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ समझौता किया था, लेकिन उन्हें उस वक्त यह डर सता रहा था कि उनकी सेना उन्हें मुश्किल में डाल सकती है.
शरीफ को उस वक्त इस बात का भय था कि समझौते के दस्तावेजी रूप देने के समय सेना सत्ता पर काबिज हो सकती है. उस वक्त उन्होंने क्लिंटन से कहा था, ‘राष्ट्रपति महोदय वे लोग मुझे मुश्किल में डाल देंगे.’
इस पर क्लिंटन ने कहा, ‘आपकी सेना बेलगाम है. उसे नागरिक शासन के तहत रखिए.’ फिर शरीफ ने कहा, ‘यह सेना नहीं है. यह कुछ गंदे लोगों का जमावड़ा है. वे कारगिल में हार को ढंकने की कोशिश करेंगे.’
ये खुलासे वाशिंगटन स्थित पाकिस्तानी दूतावास में सूचना अधिकारी रहे मलिक जहूर अहमद की ओर से किए गए हैं. उन्होंने एक समाचार पत्र लेख लिखा है. बिल क्लिंटन के साथ समझौते के तीन महीनों के बाद ही तत्कालीन पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने शरीफ के नेतृत्व वाली असैन्य सरकार का तख्तापलट किया था.
मुशर्रफ और तीन अन्य जनरल का हवाला देते हुए अहमद लिखते हैं, ‘द डर्टी फोर (चार गंदे लोग) कारगिल की जांच और संभावित कोर्ट मार्शल से डर रहे थे. वाशिंगटन ने इसे नियति समझकर स्वीकार भी कर लिया.’
अमेरिकी स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या चार जुलाई, 1999 को शरीफ वाशिंगटन चुपके से गए थे. उस वक्त उन्होंने कारगिल विवाद को खत्म करने के समझौते पर क्लिंटन से चर्चा की थी. अहमद ने कहा, ‘कारगिल विवाद के चरम के समय शरीफ का यह दौरा निर्णायक था. प्रधानमंत्री का वाशिंगटन पहुंचना रहस्य से घिरा था. इस दौरे की पहली सूचना हमें पाकिस्तानी दूतावास से नहीं, बल्कि अमेरिकी विदेश विभाग से मिली.’
अहमद ने मुशर्रफ के इस दावे को भी झूठा करार दिया कि शरीफ ने ही कारगिल में ‘आपरेशन बद्र’ को मंजूरी दी थी. उनका कहना है कि शरीफ को कारगिल अभियान के बारे में 1999 में मई के मध्य में पहली बार जानकारी दी गई. उस वक्त बहुत कुछ हो चुका था.