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पाकिस्तान की दगाबाजी को किसी और ने नहीं खुद नवाज शरीफ ने माना है! लाहौर डिक्लरेशन को फेल करने की साजिश किसने रची?

नवाज शरीफ ने 25 साल बाद एक गलती स्वीकार की है. ये गलती पाकिस्तान की दगाबाजी की है. 20 फरवरी 1999 को दिल्ली से जब सुनहरी रंग की 'सदा-ए-सरहद' (सरहद की पुकार) लग्जरी बस अटारी बॉर्डर की ओर चली तो लगा कि 1947 में अलग हुए दो मुल्क अपना अतीत भूलाकर आगे चलने को तैयार हैं. लेकिन ये भावना एकतरफा थी. पाकिस्तान आर्मी के मन में तो कुछ और चल रहा था.

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21 फरवरी 1999 को हुआ था लाहौर समझौता.
21 फरवरी 1999 को हुआ था लाहौर समझौता.

'मैं अपने साथी भारतीयों की सद्भावना और आशा लेकर आया हूं जो पाकिस्तान के साथ स्थायी शांति और सौहार्द्र चाहते हैं. मुझे पता है कि यह दक्षिण एशिया के इतिहास में एक निर्णायक क्षण है और मुझे उम्मीद है कि हम चुनौती का सामना करने में सक्षम होंगे.'  भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर की धरती पर जब अपना ये संबोधन दिया था तो वे इतिहास के बोझ से मुक्त होकर नया इतिहास लिखना चाह रहे थे. लेकिन पाकिस्तान के सियासतदां और आर्मी भारत को लेकर अपने पूर्वाग्रहों से कभी मुक्त नहीं हो पाए. 

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वाजपेयी फरवरी की गुलाबी सर्दियों में लाहौर पहुंचे थे इसके महज दो-तीन महीने बाद ही अप्रैल-मई में पाकिस्तान ने भारत के साथ दगा कर दिया. पाकिस्तान को इस दगाबाजी को स्वीकार करने में 25 वर्ष लग गए. मंगलवार को अपनी पार्टी PML-N की जनरल काउंसिल की बैठक में भाषण देते हुए नवाज शरीफ ने कहा, "28 मई 1998 को पाकिस्तान ने पांच परमाणु परीक्षण किए थे. उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी साहब यहां आए थे... याद है न आपको, या आपकी याद्दाश्त कमजोर है... और हमसे यहां वादा किया. ये अलग बात है कि हमने वादे के खिलाफ काम किया और उसमें हमारा कसूर है, इसमें हम कसूरवार हैं."

नवाज शरीफ ने भारत के साथ रिश्ते सुधारने के संकेत देते हुए कहा कि ये अच्छी बात है कि उनके भाई और पाकिस्तान के मौजूदा प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ अब भारत के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश कर रहे हैं. 

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लाहौर समझौता भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में वो लिंक था जिससे दक्षिण एशिया की राजनीति और किस्मत बदल सकती थी. लेकिन पाकिस्तान की आर्मी ने इन दोनों देशों के बीच सहज और दोस्ताना रिश्तों को कभी तरजीह नहीं दी.  

अतीत भूलाकर आगे बढ़ने को हुए तैयार 

20 फरवरी 1999 को दिल्ली से जब सुनहरी रंग की 'सदा-ए-सरहद' (सरहद की पुकार) लग्जरी बस अटारी बॉर्डर की ओर चली तो लगा 1947 में अलग हुए दो मुल्क अपना अतीत भूलाकर आगे चलने को तैयार हैं. लेकिन ये भावना एकतरफा थी. पाकिस्तान आर्मी के मन में तो कुछ और चल रहा था. भारत की ओर से इस बस में न सिर्फ राजनेता बल्कि खिलाड़ी, कलाकार, गीतकार और नृत्यांगना भी शामिल थे. बस में वाजपेयी की कैबिनेट के साथियों के अलावा, एक्टर देवानंद, शत्रुघ्न सिन्हा,  कपिलदेव, जावेद अख्तर जैसी हस्तियां सवार थी. 

लाहौर में तत्कालीन पीएम वाजपेयी और नवाज शरीफ (फोटो-AFP)

लाहौर में जब वाजपेयी की ये बस पहुंची तो अभूतपूर्व दृश्य था. पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा था कि भारत के साथ रिश्तों को सुधारने के लिए प्रतिबद्ध हैं क्योंकि 50 साल की तनाव भरे माहौल में किसी देश को कुछ हासिल नहीं हुआ है. नवाज शरीफ ने कहा था, "यदि हम अविश्वास और संदेह के दुष्चक्र में फंसे रहे तो इस क्षेत्र के लोगों को विकास में पिछड़ने का खतरा रहेगा"

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लाहौर घोषणापत्र में क्या था

दोनों ही देशों ने बड़ी उम्मीद से 21 फरवरी 1999 को लाहौर घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किया. लाहौर घोषणापत्र इस बात का प्रतीक था कि दोनों ही मुल्क टिकाऊ शांति और सौहार्दपूर्ण रिश्तों के विकास और मैत्रीपूर्ण सहयोग के तैयार थे. ताकि वे अपनी ऊर्जा को बेहतर भविष्य के लिए समर्पित कर सकें. इसके अलावा जम्मू-कश्मीर के मुद्दे समेत सभी मुद्दों को हल करने के प्रयासों को तेजी लाने की बात इस समझौते में कही गई थी. 

लाहौर घोषणापत्र में स्पष्ट रूप से लिखा था कि दोनों देश विश्वास बहाली के उपाय (CBM) करेंगे ताकि दक्षिण एशिया में सुरक्षा और विश्वास का वातावरण पैदा हो सके. 

लाहौर घोषणापत्र में दोनों देश इस बात पर सहमत थे कि शांति और सुरक्षा का वातावरण दोनों पक्षों के सर्वोच्च राष्ट्रीय हित में है तथा इसके लिए जम्मू और कश्मीर सहित सभी लंबित मुद्दों का समाधान आवश्यक है. इसके लिए दोनों देश अपनी कोशिशें तेज करेंगे. 

इस घोषणापत्र में स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि दोनों ही देश एक दूसरे के अंदरूनी मुद्दों में दखल नहीं देंगे. इसके अलावा दोनों देश परमाणु हथियारों से दूरी बनाए रखेंगे और परमाणु हथियारों की होड़ को सीमित करेंगे. 

लाहौर घोषणापत्र में भारत पाकिस्तान ने अपना ये वादा दोहराया कि दोनों ही देश आतंकवाद के सभी रुपों की निंदा करेंगे और इससे निपटने के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे. 

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दो महीने बाद ही मिला धोखा

लाहौर घोषणापत्र की गर्मजोशी मई में कश्मीर की चोटियों पर तब आकर उड़न छू हो गई जब 1999 के मई महीने में भारत को पता चला कि करगिल की चोटियों पर पाकिस्तानी सैनिकों ने कब्जा कर लिया है. 

पाकिस्तान के अखबार डॉन ने स्टोरी में लिखा है कि लाहौर बस यात्रा से भारत-पाकिस्तान के बीच में जमी रिश्तों की बर्फ कुछ देर के लिए पिघल गई लेकिन नवाज को इसका राजनीतिक फायदा नहीं मिला क्योंकि पाकिस्तान का सिविल और मिलिट्री इस नीतिगत बदलाव के लिए तैयार नहीं था. डॉन के मुताबिक भारत के साथ इस अहम समझौते से पहले नवाज ने आर्मी को भी विश्वास में नहीं लिया था. 

करगिल की चोटी पर पाकिस्तानी सैनिकों का कब्जा लाहौर समझौते के हैंगओवर में डूबे भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के लिए एक झटके जैसा था. भारत को इसको कतई उम्मीद नहीं थी. 

जिस लाहौर समझौते में पाकिस्तान ने भारत के साथ विश्वास बहाली का वादा किया था उसे इस लंपट देश ने कुछ ही दिनों में तोड़ दिया. पाकिस्तान ने न सिर्फ विश्वास बहाली के वादे से मुकर गया बल्कि भारत की सीमाओं के अंदर अपने सैनिक को एक खतरनाक मंशे के साथ भेज दिया. पाकिस्तान के इस दुस्साहस का जवाब देने के लिए भारत की सेना ने 18 हजार फीट की ऊंचाई ऑपरेशन विजय चलाया और उन चोटियों को पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त कराया. हालांकि इस ऑपरेशन में भारत के सैकड़ों सैनिक बलिदान हो गए. लेकिन भारत की ओर से चलाए गए ऑपरेशन में हजारों पाकिस्तानी सैनिक मारे गए. 

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करगिल जंग के दौरान नवाज शरीफ ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे. नवाज शरीफ से जब पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ के बारे में सवाल पूछे गए तो उन्होंने कहा कि सेना ने उन्हें इस ऑपरेशन की जानकारी ही नहीं दी. हालांकि तत्कालीन आर्मी चीफ परवेज मुशर्रफ हमेशा ये कहते पाए गए कि इस ऑपरेशन की मंजूरी उन्हें सिविलियन बॉस से मिली थी. पाकिस्तान के इतिहास सेना और सरकार के बीच ये अभूतपूर्व अविश्वास और दूरी का उदाहरण था. 

नवाज शरीफ मंगलवार के अपने भाषण में पाकिस्तान के इसी कसूर का जिक्र कर रहे थे. करगिल लड़ाई के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते की खाई इतनी चौड़ी हुई कि वो आजतक नहीं भर पाई है. 

क्लिंटन से मिले नवाज शरीफ

करगिल की लड़ाई जब शुरू हुई तो भारत ने पाकिस्तान को कुचलने के लिए पूरी ताकत झोंक दी. करगिल में जब भारत के बोफोर्स टैंक गरजने लगे तो पाकिस्तान सहम गया. नवाज शरीफ किसी भी कीमत पर युद्धविराम चाहते थे. लेकिन भारत पूरी ताकत से पाकिस्तान पर चढ़ बैठा था. नवाज शरीफ ने आनन-फानन में अमेरिका की यात्रा की. 4 जुलाई को जब अमेरिका का स्वतंत्रता दिवस होता है तो उसी दिन बड़े मान-मनौव्वल के बाद नवाज शरीफ से अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने मुलाकात की. इस समय तक भारत ने पाकिस्तान द्वारा कब्जा किये गए ज्यादातर स्थानों पर फिर से अपना अधिकार जमा लिया था. 

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क्लिंटन और नवाज शरीफ की मुलाकात के बाद पाकिस्तान की सेना तुरंत वापस चली गई और पाकिस्तान की शिकस्त के साथ ये जंग समाप्त हो गई.

भारत के साथ विश्वासघात किसने किया?

सवाल उठता है कि भारत के साथ करगिल में विश्वासघात किसने किया? साल 2018 में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने खुलासा किया था कि उन्हें परवेज मुशर्रफ ने अपनी 'साजिश' की जानकारी नहीं दी और उन्हें अंधेरे में रखा. जबकि मुशर्रफ कहते हैं कि उन्हें उनके सिविलियन बॉस ने हरी झंडी दी थी. हालांकि परवेज मुशर्रफ ने अपनी जीवनी  ‘इन द लाइन ऑफ फायर - अ मेमॉयर' में लिखा है कि उन्होंने कारगिल पर कब्जा करने की कसम खाई थी. लेकिन नवाज की वजह से उनका सपना अधूरा रह गया. 

इस घटना के लिए मुशर्रफ जिम्मेदार- नवाज

इंडिया टुडे से बात करते हुए नवाज शरीफ मुशर्रफ पर खुलासा किया था वो हैरान करने वाला था. नवाज शरीफ ने कहा था कि उन्हें मुशर्रफ ने बताया था कि ये लड़ाई मुजाहिद्दीन लड़ रहे हैं और इसका पाकिस्तान की सेना से कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन जब वाजपेयी ने नवाज को पूरी घटना बताई तो नवाज शरीफ के लिए ये झटके जैसा था. 

नवाज शरीफ ने इंडिया टुडे को बताया था कि ये मुशर्रफ थे जिन्होंने पूरी घटना की प्लानिंग की. नवाज शरीफ ने तो यहां तक कहा था कि अगर वाजपेयी कहते हैं कि नवाज शरीफ ने मेरी पीठ में छूरा घोंपा है तो वे पूरी तरह से सही हैं. क्योंकि वे फरवरी में पाकिस्तान गए थे और मई में हमारी सेना भारत में घुस गई थी. ये पूरी तरह से गलत है और मैं इसके लिए परवेज मुशर्रफ को जिम्मेदार मानता हूं. शरीफ ने इस साजिश के लिए मुशर्रफ के खिलाफ जांच कमीशन बिठाने की मांग की थी. 

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