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बात बहुत पुरानी है. लगभग 300 साल पुरानी कथा. नेपाल के गोरखा जिले के घने जंगलों में राज परिवार के एक राजकुमार का सामना एक वृद्ध संत से हुआ. वे बूढ़े तो थे लेकिन उनका ओज गजब का था. चेहरे से निकल रहा आभामंडल बता रहा था कि वे सचमुच पहुंचे हुए संत हैं. संस्कारों से परिपूर्ण इस तरुण ने राज परिवार की परंपरा के अनुसार इस महात्मा का अभिवादन किया. महात्मा ने अनुनय करते हुए इस किशोर से कहा कि उन्हें दही से भरा एक कटोरा चाहिए. बीच जंगल में साधु की इस मांग से ये युवा थोड़ा चकित तो हुआ, लेकिन संन्यासी की इस मांग को पूरा करना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी.
भागता हुआ वह अपने महल पहुंचा और दही का कटोरा लेकर उसी जगह पर पहुंच गया. महात्मा उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्होंने लड़के से दही का कटोरा लिया और गटागट सारा दही पी गए. युवक मुग्ध था, संत पर उसकी नजरें टिकी थी. महात्मा कुछ क्षण रुके. फिर उन्होंने जो किया वो सचमुच हतप्रभ करने वाला था. उन्होंने उसी कटोरे में सारा दही पेट से निकाल दिया. कहने का मतलब ये कि उन्होंने उसी कटोरे में सारा दही उल्टी कर दिया.
इसके बाद का घटनाक्रम तो और भी चौंकाने वाला है. महात्मा ने दोनों हाथों से कटोरे को पकड़ा और राजकुमार की ओर बढ़ाते हुए कहा-पुत्र अब ये सारा दही तुम पी जाओ. युवा प्रिंस इस संत की धृष्टता पर हैरान था. वह इस गुस्ताखी का अर्थ नहीं समझ पा रहा था. अनुशासन और संयम जैसे संस्कार तो राजमहल में उसने सीखे थे. लेकिन इस संत का 'असंतुलित' व्यवहार देखकर उसका राजसी रक्त उबल पड़ा. अनादर की भावना से उसने दही का कटोरा लिया, उसे अपने छाती के नजदीक किया और कटोरे के पेंदे से अपना हाथ हटा दिया. छन्न की आवाज के साथ कटोरा जमीन पर गिरा और युवक के दोनों पैर दही से लथपथ हो गए.
बाबा गोरखनाथ का श्राप, किवदंतियां और गल्प
नेपाल की किवदंतियां, तराई से निकली लोक कथाएं, जनमानस के गल्प बताते हैं ये वृद्ध संन्यासी कोई और नहीं बल्कि बाबा गोरखनाथ थे. वहीं गोरखनाथ जो नेपाल के गोरखा साम्राज्य के संरक्षक माने जाते थे. और जो युवक दही लेकर उनके सामने पहुंचा वो थे आधुनिक नेपाल के संस्थापक सम्राट पृथ्वी नारायण शाह.
आगे की ये कहानी कुछ इस तरह है. हाथों से दही का कटोरा गिराने के बाद पृथ्वी नारायण शाह वहां से जाने लगे. लेकिन गोरखनाथ की परीक्षा में वह कामयाब नहीं हो सके थे. उनके इस आचरण से रुष्ट इस महात्मा ने उन्हें अपना परिचय दिया. गोरखा साम्राज्य के पूज्य को अपने सामने देखकर पृथ्वी नारायण शाह हक्के- बक्के और चकित थे. वे कुछ बोल पाते इससे पहले ही उस महात्मा ने दही से सने पृथ्वी नारायण शाह के पैरों को देखते हुए उन्हें श्राप दिया- इस भूभाग पर तुम्हारे वंश का शासन उतने ही पीढ़ियों तक चलेगा जितनी अंगुलियां तुम्हारे पैरों में हैं. पृथ्वी नारायण शाह ने देखा- एक, दो, तीन... उनके दोनों पैरों की पूरी दस की दस अगुलियां दही में डूबी थीं. महात्मा ने कहा- 11वां नरेश अंतिम होगा.
इस मिथकीय श्राप का क्लाईमैक्स 21 साल पहले आया
पृथ्वी नारायण शाह का जन्म 1723 ई में हुआ था. इस लिहाज से गणित बताता है कि ये मिथकीय घटना लगभग 300 साल पुरानी है. इन 300 सालों में इस मिथकीय वृतांत ने कई पीढ़ियों की यात्रा की. कभी अतिशयोक्तिपूर्ण, कभी देवत्व, तो कभी नाटकीय वर्णन के साथ नेपाल की धार्मिक जनता बाबा गोरखनाथ की इस भविष्यवाणी को बांचती रही. कुछ इसे सिद्ध पुरुष का श्राप कहते हैं, कुछ विधि का विधान बताते हैं तो कुछ इसे एक साम्राज्य के पतन की करुण कहानी बताते. एक संत और एक राजकुमार के बीच आकस्मिक मिलन की इस कहानी को लोग सुनते सुनाते रहे. लेकिन इस मिथकीय मुलाकात का चरमबिंदू तो 1 जून 2001 को आया. जब शुक्रवार की वो शाम काठमांडू स्थिति नारायणहिती पैलेस एक सनकी प्रिंस के हथियारों से निकले बुलेट से छलनी-छलनी हो गया.
2001 की चर्चा करें इससे पहले नेपाल के शाह साम्राज्य को जानना जरूरी है. आधुनिक नेपाल की राजधानी काठमांडू से 100 मील दूर गोरखा जिले से पृथ्वी नारायण शाह ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया. उन्होंने नुआकोट, कीर्तिपुर, मकवानपुर, चौकोट और काठमांडू घाटी को जीतकर आधुनिक नेपाल की स्थापना की और हिन्दू राज्य की नींव डाली. इसी के साथ काठमांडू से शाह वंश का शासन शुरू हुआ, पृथ्वी नारायण शाह इस वंश के पहले नरेश थे. वे नेपाल को असल हिन्द.
10 पीढ़ी के नरेश बने वीरेंद्र वीर विक्रम शाह
क्या उस भविष्यवाणी के सच होने के समय आ गया था. जो लगभग 300 साल पहले इस राजा के पुरखों को बाबा गोरखनाथ कह कर गए थे. अगर मिथकीय आख्यानों में आस्था नहीं रखते हैं तो आप इसे नहीं भी मान सकते हैं. लेकिन 31 जनवरी 1972 को जब वीरेंद्र वीर विक्रम शाह नेपाल के नरेश बने तो वे पृथ्वी नारायण शाह से शुरु हुए शाह वंश के 10वीं पीढ़ी के शासक थे.
1990 के दशक में नेपाल अशांति के दौर से गुजर रहा था. देश में माओवादी आंदोलन जड़े जमा रहा था और लोगों के बीच राजशाही को उखाड़ फेंकने का खुलेआम ऐलान कर रहा था. नेपाल में कभी राजतंत्र में लोगों की इतनी गहरी आस्था थी कि लोग राजा को भगवान विष्णु का अवतार मानते थे. लेकिन गरीबी, बेरोजगारी, शासन में प्रतिनिधित्व की कमी से पैदा हुए माओवादी आंदोलन से नेपाल की बड़ी आबादी राजशाही से बगावत कर बैठी. वीरेंद्र वीर विक्रम शाह इन चुनौतियों से जूझ ही रहे थे. लेकिन एक चुनौती जो उनके बूते से बाहर जा रही थी वो थी प्रिंस दीपेंद्र की बगावत. प्रिंस दीपेंद्र जिस देवयानी राणा नाम की युवती से शादी करना चाह रहे थे वो उनकी मां और दादी को पसंद नहीं था. इसके अलावा शादी हो या, राजकाज, सार्वजनिक जीवन हो या फिर नशे की लत प्रिंस दीपेंद्र की पिता से पटरी नहीं बैठ रही थी. महारानी एश्वर्या और राजा वीरेंद्र राजशाही की छवि को लेकर चिंतित थे.
21 साल पहले- दिन शुक्र, तारीख- 1 जून
इसी माहौल में आई वो काली तारीख आई जिसने नेपाल की धारा की बदलकर रख दी. तारीख थी आज से ठीक 21 साल पहले 1 जून 2021. दिन शुक्रवार. नारायणहिती पैलेस में शाम को एक पार्टी का आयोजन किया गया था. राजपरिवार के लिए ऐसी पार्टियां साप्ताहिक शगल थी. प्रिंस दीपेंद्र शाम 6.45 मिनट पर ही मजमे वाली जगह पर पहुंच चुके थे. वे पास के ही एक कमरे में बिलियर्डस खेल रहे थे. शाम होते ही रॉयल फैमिली पहुंचने लगी थी. कुछ ही देर में महारानी एश्वर्या अपनी तीन ननदों के साथ वहां पहुंचीं. महाराजा वीरेंद्र एक पत्रिका को इंटरव्यू दे रहे थे और उन्हें आने में थोड़ी देरी हो रही थी. कुछ ही मिनटों में दीपेंद्र के चचेरे भाई राजकुमार पारस भी अपनी मां और पत्नी के साथ वहां पहुंच गए.
राजभवन की ये पार्टी अब परवान चढ़ने लगी थी. कुछ भी देर में वीरेंद्र वीर विक्रम शाह भी वहां पहुंच गए. लेकिन ये क्या तभी लोगों ने देखा कि दीपेंद्र नशे में थे. उनकी जुबान उनका साथ नहीं दे रही थी. वे संभल नहीं पा रहे थे. वे नीचे गिर गए. वहां मौजूद सदस्यों ने तुरंत प्रतिक्रिया दी. दीपेंद्र के छोटे भाई निराजन और चचेरे भाई पारस कुछ लोगों के मदद से दीपेंद्र को उनके कमरे में ले गए.
आर्मी की पोशाक, एक हाथ में मशीन गन, एक में राइफल
पार्टी में लोगों को हैरानी तब हुई जब उन्होंने दीपेंद्र को फिर से वहां आते देखा. लेकिन इस बार वे एक आर्मी ऑफिसर की वर्दी में थे. लेकिन जो खौफनाक था वो था उनके दोनों हाथों में मौजूद दो हथियार. दीपेंद्र ने अपने एक हाथ में जर्मन सब-मशीन गन और दूसरे में एक राइफल ले रखी थी. तब तक नेपाल नरेश भी वीरेंद्र वीर विक्रम शाह भी वहां आ गए थे. उन्होंने अपने पिता की ओर देखा. अपने क्षण उन्होंने अपने दाहिने हाथ से सब मशीन गन का ट्रिगर दबा दिया. तड़-तड़ की आवाज हुई और गोलियों की बौछार बैरल से सामने की ओर निकली. नेपाल नरेश बिलियर्ड्स की मेज के बगल में बिना हिले-डुले खड़े रहे थे. फिर वे दीपेंद्र की तरफ बढ़े. तभी प्रिंस दीपेंद्र ने महाराजा वीरेंद्र वीर विक्रम शाह पर तीन गोलियां दाग दी. वे धीरे-धीरे जमीन पर गिरे.
महाराजा वीरेंद्र के सिर से गोली पार हो गई
कुछ ही सेकेंड में राजकुमार दीपेंद्र गार्डन की तरफ बढ़े. तब पार्टी में मौजूद लोगों को पता लग गया कि नेपाल के राजा को उनके ही बेटे ने गोली मार दी है. मौके पर मौजूद महाराजा के तीसरे भाई धीरेंद्र के दामाद डॉ राजीव शाही ने उन्हें अपना कोट उनके गर्दन पर लगा दिया. वे हर हाल में खून के बहाव को रोकना चाहते थे.
कुछ ही देर में दीपेंद्र फिर वापस आ गए. इस समय धीरेंद्र ने जब उन्हें रोकने की कोशिश की तो दीपेंद्र ने उन्हें प्वाइंट ब्लैंक रेंज से उड़ा दिया. इसके बाद दीपेंद्र के सिर पर खून सवार हो चुका था. जो भी सामने आ रहा था वो उसे मार रहा था. दीपेंद्र ने एक बार फिर अपने पिता के ऊपर फायर किया. इस बार गोली उनके सिर से पार हो गई.
दीपेंद्र पर अबतक खून सवार हो चुका था
यहां से दीपेंद्र एक बार फिर गार्डेन की ओर गया. महारानी एश्वर्या उनके पीछे दौड़ीं, प्रिंस निराजन भी मां के साथ दौड़े. इस दौरान निराजन अपने मां और भाई के बीच आ गए थे. यहां दीपेंद्र ने उसे भी गोली मार दी. महारानी एश्वर्या भी उनके बंदूक का शिकार हुईं. 3 से 4 मिनट में नारायणहिती पैलेस में काल का तांडव हो गया था. कुछ देर बाद आखिरी गोली सुनाई दी. ये गोली दीपेंद्र ने खुद को मारी थी. लगभग सवा नौ बजे रात काठमांडू के एक प्रसिद्ध अस्पताल में जब एक के बाद एक राज परिवार के सदस्यों की बॉडी पहुंचने लगी तो मानों अस्पताल के पूरे स्टाफ को गश आ गया. आखिर ये हुआ क्या था. अस्पताल में महाराजा वीरेंद्र, महारानी एश्वर्या, प्रिंस निराजन, राजकुमारी श्रुति को मृत घोषित कर दिया गया. इसके अलावा इसके अलावा राजपरिवार के 5 और सदस्य मारे गए. दीपेंद्र तब तक बेहोशी के आलम में था. लेकिन उसकी बेहोशी कभी नहीं टूटी. उसे भी 4 जून को मृत घोषित कर दिया गया.
3 दिन में बदले 3 राजा
इससे पहले बेहोशी की हालत में ही 2 जून को उसे नेपाल का नया राजा बनाया गया था. 4 जून को महाराजा वीरेंद्र के छोटे भाई ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह को नेपाल का नया राजा नियुक्त किया गया. इस तरह 1 जून से लेकर 4 जून तक नेपाल में 3 राजा हुए.
ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह 11 पीढ़ी के राजा बने
राजपरिवार का कत्ले आम नेपाल के लिए त्रासदी बनकर आया. इसके पीछे कई थ्योरी है. साजिश की कहानियां है. नेपाल की 95 जनता इस पर विश्वास नहीं करती है कि इस कांड के पीछे प्रिंस दीपेंद्र का हाथ था. लेकिन दुनिया की नजरों में ये सच्चाई आज तक नहीं बदली है.
अवांछित, अविश्वास और अयोग्यता के ताने
अवांछित, अविश्वास और अयोग्यता के ताने झेलकर राजा बने ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह कभी जनता का विश्वास नहीं जीत पाए. नेपाल की लाखों जनता उन्हें राजमहल के नरसंहार के लिए जिम्मेदार मानती रही. 2001 के बाद नेपाल में माओवादी आंदोलन उफान पर आ गया. ज्ञानेंद्र इस चुनौती के सामने असफल साबित हुए.
श्राप के सच होने का समय आ गया!
ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह को नेपाल की राजनीतिक पार्टियों और माओवादी आंदोलन के सामने झुकना पड़ा. 28 मई 2008 को नेपाल में संविधान संशोधन के तहत राजशाही प्रथा का अंत कर दिया गया. 11 जून 2008 को महाराजा ज्ञानेंद्र ने नारायणहिती महल खाली कर दिया. इस तरह महाराजा पृथ्वी नारायण शाह की 11वीं पीढ़ी को नेपाल से विदाई लेनी पड़ी. क्या ये एक संत की भविष्याणियों के सत्य होने का समय था?