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युद्ध कौशल में निपुण नेपाली गोरखा रूस की प्राइवेट आर्मी वागनर ग्रुप में शामिल हो रहे हैं. ऐसी रिपोर्ट्स हैं कि सैकड़ों नेपाली युवा कॉन्ट्रैक्ट पर रूसी सेना में शामिल हो गए हैं. सोशल मीडिया पर कुछ वीडियो भी वायरल हो रहे हैं जिसमें नेपाली युवा रूस में मिलिट्री ट्रेनिंग लेते दिख रहे हैं.
वागनर ग्रुप वही प्राइवेट आर्मी है जिसके मुखिया येवगेनी प्रिगोजिन ने बीते शुक्रवार को रूस के खिलाफ विद्रोह की घोषणा कर दी थी. इसके बाद वागनर ग्रुप मॉस्को की तरफ बढ़ने लगा था लेकिन इसके 24 घंटे के अंदर ही वागनर ग्रुप ने अपने सैनिकों की वापसी की घोषणा कर दी.
वागनर ग्रुप रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से ही चर्चा में है. इसी ग्रुप ने यूक्रेन के बखमुत शहर पर कब्जा किया था. बखमुत उत्तरी यूक्रेन में स्थित एक छोटा लेकिन रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण शहर है. इस शहर पर जीत दर्ज करने के बाद वागनर ग्रुप का महत्व और बढ़ गया है.
नेपाल गोरखा वागनर ग्रुप में क्यों शामिल हो रहे हैं?
इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सैकड़ों की संख्या में नेपाली गोरखा रूस के वागनर ग्रुप में शामिल हो रहे हैं. रूस-यूक्रेन युद्ध में सैनिकों की कमी न हो, इसके लिए रूस ने अपने नियमों में कुछ बदलाव किए हैं ताकि दूसरे देशों के युवा रूसी सेना में शामिल हो सकें.
16 मई को रूस ने अपने नियमों में बदलाव किया जिसके तहत रूसी सेना में एक साल तक सेवा देने के बाद विदेशियों को रूसी नागरिकता मिल जाएगी. इसके तहत विदेशियों को अच्छा वेतन देने की बात कही गई है और रूसी सेना में उनके शामिल होने की प्रक्रिया को आसान बनाया गया. उसके बाद से ही रूसी सेना में नेपाली गोरखाओं के भर्ती होने की प्रक्रिया में तेजी आई है. रूसी सेना में नेपाल आर्मी से रिटायर हुए गोरखा भी भर्ती हो रहे हैं.
'नेपाली युवाओं का रूसी सेना में शामिल होना चिंताजनक'
रणनीतिक विश्लेषक और नेपाली सेना के रिटायर मेजर जनरल बिनोज बस्नयात ने हाल ही में यूरेशियन टाइम्स से बातचीत में कहा, 'यह स्थिति चिंताजनक है. इसमें नेपाल की सरकार भी कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वो लोग अपने आप से वहां गए हैं.'
रूस की नागरिकता हासिल करना नेपाली युवाओं के बीच एक बड़ा आकर्षण है. लेकिन उनके रूसी सेना में भर्ती होने का एक दूसरा कारण भी है और वो है, भारतीय सेना में उनकी भर्ती का रुकना. भारत सरकार ने पिछले साल जून में अग्निपथ स्कीम के तहत नेपाली गोरखाओं की भारतीय सेना में सेवा की अवधि को कम कर दिया था और उनकी पेंशन का प्रावधान भी खत्म कर दिया था.
अग्निपथ योजना के तहत भर्ती होने वाले सैनिकों, जिन्हें अग्निवीर कहा जाता है, उनका कार्यकाल महज चार साल का होता है. एक बार रिटायर हो जाने के बाद अग्निवीरों को न तो पेंशन मिलेगी और न उन्हें पूर्व सैनिक का दर्जा हासिल होगा. हालांकि, सरकार ने यह जरूर कहा है कि चार सालों के बाद सेवाकाल में प्रदर्शन के आधार पर मूल्यांकन होगा और 25 प्रतिशत अग्निवीरों को नियमित किया जाएगा.
नेपाल ने इस योजना पर सख्त आपत्ति जताई थी और कहा था कि जब तक भारत सरकार अग्निपथ योजना को और अधिक स्पष्ट नहीं करती तब तक भारतीय सेना में नेपाली गोरखा भर्ती नहीं होंगे. नेपाल ने कहा था कि भारत की अग्निपथ योजना भारत, ब्रिटेन और नेपाल के बीच हुए त्रिपक्षीय समझौते (सगौली की संधि) के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है.
सोशल मीडिया पर कई ऐसे वीडिया शेयर किए जा रहे हैं जिसमें रूसी सेना में शामिल हो चुके नेपाली गोरखा ट्रेनिंग लेते दिख रहे हैं. नेपाली आर्मी से रिटायर हो चुके एक गोरखा ने 'द डिप्लोमेट' को बताया कि जब उन्हें रूसी सेना में भर्ती के नियमों में ढील दिए जाने का पता चला तब वो दुबई में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर रहे थे. इसके बाद वो पर्यटक बनकर रूस गए और रूसी भर्ती सेंटर में जाकर रूसी सेना में भर्ती हो गए.
रूसी सेना में भर्ती होने के लिए पहले विदेशियों को ठीक तरह से रूसी भाषा आना जरूरी थी लेकिन रूस ने यह नियम हटा दिया है. रूस वागनर ग्रुप के सैनिकों को भी अब वैसी ही सुविधाएं दे रहा है जो वो अपने सैनिकों को देता है. इससे पहले खबर आई थी कि नेपाली युवा रूस के खिलाफ लड़ने के लिए यूक्रेन की सेना में शामिल हो रहे हैं.
कम समय में अधिक पैसा कमाने का मौका
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, नेपाली युवाओं को रूस में मिलने वाला यह अवसर इसलिए भी आकर्षक लग रहा है क्योंकि यहां वो बेहद कम समय में ही इतना पैसा कमा लेंगे जितना अपने देश में वो सालों काम करके भी नहीं कमा सकेंगे.
रूस में ट्रेनिंग कर रहे गोरखाओं को फिलहाल 60 हजार नेपाली रुपया मिल रहा है. रूसी सेना में ट्रेनिंग कर रहे नेपाली युवाओं ने बताया कि ट्रेनिंग खत्म होने के बाद उन्हें 1,95,000 रूबल मिलेंगे जो तीन लाख नेपाली रुपया के बराबर है.
18वीं सदी से ही भारतीय सेना में काम कर रहे गोरखा
भारत की सेना में नेपाली गोरखाओं की भर्ती की इतिहास काफी पुराना है. नेपाल सरकार और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1816 में सगौली की संधि हुई थी जिसके बाद तत्कालीन ब्रिटिश भारतीय सेना में नेपाल के गोरखा सैनिकों की भर्ती शुरू हुई थी. ब्रिटिश सरकार ने 10 गोरखा रेजिमेंट्स बनाए. इन रेजिमेंट्स ने दोनों ही विश्वयुद्धों में ब्रिटेन की तरफ से लड़ाई लड़ी और अपने शौर्य का परिचय दिया.
आजादी के बाद नवंबर 1947 में नेपाल और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ यह समझौता त्रिपक्षीय समझौता बन गया. इस समझौते के तहत ब्रिटिश सरकार ने अपने पास चार गोरखा रेजिमेंट्स रखे और भारत के पास छह गोरखा रेजिमेंट्स रह गए. जिन गोरखाओं ने ब्रिटिश सेना में शामिल होने से इनकार कर दिया, उन्हें लेकर भारत ने सातवीं गोरखा रेजिमेंट बनाई.
ब्रिटिश सेना ने जहां गोरखाओं के कमिशन अधिकारी बनने पर प्रतिबंध लगा दिया वहीं, भारत ने ऐसा कुछ नहीं किया जिस कारण कई गोरखा भारतीय सेना में शीर्ष पदों पर पहुंचे. गोरखाओं ने कई युद्धों में अपने शौर्य का परिचय दिया है. 1962 के भारत-चीन युद्ध में भी उन्होंने अपनी अहम भूमिका निभाई थी. इस युद्ध में कितने गोरखे मारे गए, इसे लेकर कोई आंकड़ा नहीं है लेकिन अनुमान है कि इस युद्ध में 2,000 भारतीय सैनिक मारे गए थे.
एक अन्य समझौते में यह तय हुआ कि भारतीय और ब्रिटिश दोनों सेनाओं में सभी गोरखाओं को बराबर वेतन दिया जाएगा और नौकरी के बाद उन्हें समान पेंशन भी दी जाएगी. इससे भारतीय सेना में गोरखा सैनिकों का वेतन और पेंशन भारतीय सैनिकों से ज्यादा हो गया. इसे लेकर 2000 के दशक में मीडिया और एक्टिविस्टों ने मिलकर एक मुहिम चलाई जिसके बाद गोरखा सैनिकों के वेतन और पेंशन में संशोधन किया गया.
शुरू में गोरखा रेजिमेंट्स में 100 फीसद नेपाली गोरखा होते थे लेकिन अब इनकी संख्या कम हो रही है. अब इन रेजिमेंट्स में 40 फीसदी ही नेपाली गोरखा रह गए हैं, बाकी 60 फीसद भारत में रहने वाले गोरखा होते हैं. हाल के वर्षों में इन रेजिमेंट्स में हर साल भारत 1,400 नेपाली गोरखाओं की भर्ती कर रहा है.
भारत में सेवा दे रहे गोरखाओं से नेपाल को होता है बड़ा लाभ
नेपाली गोरखाओं को मिलने वाला वेतन और पेंशन नेपाल की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाता है. नेपाल में भारतीय सेना से सेवानिवृत हुए 1,35,000 गोरखा हैं जिन्हें सालाना 62 करोड़ डॉलर रुपये पेंशन मिलती है. यह नेपाल के 2023 के रक्षा बजट से लगभग 17 करोड़ डॉलर अधिक है.
अग्निपथ योजना से नेपाल को बड़ा झटका लगा है और वो इसके जरिए अपने गोरखाओं की भर्ती इसलिए नहीं होने देना चाहता क्योंकि उसके अधिकांश सैनिक बिना पेंशन के चार सालों बाद वापस देश लौट आएंगे. इससे उसकी अर्थव्यवस्था पर चोट पहुंचेगी.
नेपाल को इस बात का भी डर है कि जो गोरखा चार साल की नौकरी के बाद वापस नेपाल आएंगे, नेपाल के हिंसक गुट उनकी सैन्य ट्रेनिंग का गलत इस्तेमाल न कर लें.