
आर्थिक बदहाली, तानाशाहों की लंबी लिस्ट और राजनीतिक हिंसा से लगातार जूझ रहे पाकिस्तान के इस हालत तक पहुंच की कहानी कम रोचक नहीं है. इसकी शुरुआत हुई थी एक युद्धोन्माद से, एक तानाशाह की सनक से और उसके बाद आतंकवाद की वंश बेल बढ़ाते जाने वाली अदूरदर्शी नीतियों से. आज पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो आईएमएफ पर कर्ज न देने का आरोप लगाते हैं तो यूएन पर कश्मीर मुद्दे को गंभीरता से न लेने का आरोप भी मढ़ते हैं. लेकिन पाकिस्तान के इस हालत में पहुंचने की कहानी की शुरुआत हुई थी करीब पांच दशक पहले. जब युद्धोन्माद ने पाकिस्तान को अपना शिकार बनाया और उसका परिणाम एक ऐसे तानाशाह के रूप में मिला जिसने पाकिस्तान को आतंकवाद का ऐसा चोला पहना दिया जिससे आगे आने वाले कई दशकों तक भी उबरने की गुंजाइश नहीं दिख रही है.)
...120 अरब अमेरिकी डॉलर का विदेशी कर्ज, सिर्फ 3 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार, बंद होते कल कारखाने, बिकने को या लीज पर रखने को तैयार सरकारी प्रोजेक्ट और विभाग, रोटी-पेट्रोल और जरूरी सामान जुटाने को भटकती आम जनता और आर्थिक मदद पाने के लिए विदेशी दौरों पर दौड़ते नेता... ये हकीकत है आज के पाकिस्तान की. जो हमारा पड़ोसी देश है और कमोबेश भौगोलिक हालात में हमारे जैसा ही है. लेकिन अतीत की कारगुजारियां, खराब आर्थिक सेहत और आतंकी देश होने के तमगे ने जिसे कहीं का नहीं छोड़ा है. आज के हालात के बीज कहां पड़े इसे समझने के लिए पाकिस्तान के उस प्रधानमंत्री की जेल डायरी के कुछ पन्नों को खंगालने की जरूरत है जिसे फांसी पर चढ़ने से पहले के दिनों में रावलपिंडी जेल की कालकोठरी में लिखी गई थी.
पाकिस्तान के खराब हालात का अंदाजा उसके विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो के छलक रहे इस दर्द से लगाया जा सकता है, जिनका कहना है कि- 'हम मुसीबत में घिरे हैं, न देश के अंदर कोई रास्ता है और न आईएमएफ जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन खुलकर मदद देने को तैयार हैं और रोड़े भी अटका रहे हैं. कश्मीर जैसे मिशनों पर भी हमारी रट को यूएन में भाव नहीं मिल रहा है.' यानी एक फेल होता मुल्क जो आर्थिक रूप से लाचार तो हो ही रहा है लेकिन दुनिया के मंच पर तवज्जो भी खोता जा रहा है.
बदहाली की ये कहानी है पुरानी
आप सोच रहे होंगे कि पाकिस्तान के आर्थिक हालात की ये तस्वीर एक और तबाह एशियाई देश श्रीलंका की तरह नई-नई बनी होगी. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. आतंकी देश होने की पहचान बनाने से पहले भी पाकिस्तान की ऐसी ही तस्वीर हुआ करती थी. कभी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे जुल्फिकार अली भुट्टो की जेल डायरी में पाकिस्तान की तबाही के बीज की पूरी हकीकत दर्ज है. जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी डायरी में लिखते हैं- 'इतिहास और भूगोल- इल्म के दो ऐसे अहम मैदान हैं जिनकी जड़ें दूर-दूर तक फैली हुई हैं. मैंने कई बार जिया उल हक को समझाने की कोशिश की, लेकिन...'
जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी बेनजीर भुट्टो थीं जो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रहीं और बाद में साल 2007 में आतंकियों की गोली का शिकार हो गईं. हम बात कर रहे थे बेनजीर के पिता जुल्फिकार अली भुट्टो की जो 1970 के दशक में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हुआ करते थे. जिनको उन्हीं के चेले कहे जाने वाले सैन्य शासक जनरल जिया उल हक ने फांसी पर चढ़ा दिया था. बेनज़ीर भुट्टो ने अपनी आत्मकथा 'द डॉटर ऑफ द ईस्ट' में साजिश के तहत जनरल जिया द्वारा अपने पिता को फांसी पर चढ़ाने और अपने परिवार पर हुए जुल्मों-सितम की पूरी दास्तान बयां की है.
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फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो ने जेल में लिखी अपनी डायरी में उस दौर के हालात का जिक्र किया है. ये डायरी साल 1977-78 के दौर में लिखी गई थी जब जिया उल हक ने तानाशाही शासन स्थापित किया था और भुट्टो को राह से हटाने के लिए फांसी का रास्ता चुना था. भुट्टो की डायरी के कई पन्नों का जिक्र कश्मीरी एक्टिविस्ट बंसीलाल काक ने अपनी किताब में किया है. उसे पढ़कर आपको अंदाजा हो जाएगा कि एक तानाशाह की सनक ने कैसे पाकिस्तान की तबाही के बीज डाले और कैसे आज के पाकिस्तानी हुक्मरान भी अतीत के उन काले धब्बों के साये से बाहर आने को तैयार नहीं हैं. भले ही मुल्क लगभग तबाह ही क्यों न हो चला हो.
कालकोठरी में लिखे पन्नों में दर्ज सबूत
बंसीलाल काक अपनी किताब में लिखते हैं- रावलपिंडी जेल में अपनी किस्मत के फैसले का इंतजार करते हुए पाकिस्तान के जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी डायरी में जो कुछ अंतिम बातें दर्ज की हैं उसमें उस शख्स जिया उल हक के बारे में कई बातें दर्ज हैं जिस शख्स ने उन्हें फांसी के तख्ते पर पहुंचा दिया. जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी डायरी में लिखते हैं- 'जिया ने देश के शासन पर कब्जा तो कर लिया लेकिन खराब हो रही आर्थिक सेहत से निपटने के लिए देश में अजीबो-गरीब फरमान लागू करने शुरू कर दिए. नतीजा यह हुआ है कि हर जगह लोग अब बढ़ती हुई कौमी गरीबी और आम खपत की चीजों की लगातार चढ़ती हुईं कीमतों की बातें करते हैं. मिट्टी के तेल की खाली बोतलें लेकर एक दुकान से दूसरी दुकान भटकने वाले या पेट्रोल के लिए एक पंप से दूसरे पंप का चक्कर काटने वाले लोगों से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि वे सरकारी दावों पर वाह वाह करेंगे.'
जुल्फिकार अली भुट्टो की डायरी में आगे लिखा है- 'सरकारी कारखानों की लगातार बिगड़ती हुई हालत की वजह से उनके सैंकड़ों मजदूरों की हालत बेहद बुरी है. बाहर अफवाहों का दौर तेज है कि सरकारी कारखाने प्राइवेट मालिकों के हवाले कर दिए जाएंगे.' भुट्टो अपनी डायरी में आगे लिखते हैं- 'राष्ट्रीयकरण के सिद्धांत में कोई गलत बात नहीं थी, उसका घोषित उद्देश्य यह था कि आम आदमी की भलाई के लिए संपन्न वर्गों की आर्थिक सुविधाओं को सीमित रखने के लिए हुकूमत की ताकत का इस्तेमाल किया जाए.'
बंसीलाल काक लिखते हैं- लेकिन इसका छुपा हुआ उद्देश्य था कि कारोबारी समुदाय को कंट्रोल में लिया जाए ताकि वो जिया प्रशासन के इशारों पर चलने को मजबूर हो सकें. उस समय के कई अर्थशास्त्रियों की राय ये थी कि इस राष्ट्रीयकरण का मकसद ये नहीं था कि छोटे किसानों और उपभोक्ताओं को बंधी हुई कीमतों का फायदा पहुंचाकर उनकी मदद की जाये. बल्कि असली मकसद ये था कि शासक दल का दबदबा काश्तकारों पर भी कायम किया जाए और उन्हें भी नियंत्रण के बहु-स्तरीय शिकंजे में कस दिया जाये. इस माहौल में सरकारी विभागों ने भी घी, सीमेंट जैसे जरूरी सामानों की मुंहमांगी कीमतें तय करनी शुरू कर दीं जिससे उत्पादन भी घटा और आम लोगों की मुश्किलें भी बढ़ीं.'
एक युद्धोन्मादी मुल्क बनने का खामियाजा
भारत से 1971 की जंग में चोट खाए भुट्टो ने पाकिस्तान को युद्धोन्माद की राह पर लाकर खड़ा कर दिया. जिस पाकिस्तान के पास आर्थिक विकास के पैसे नहीं थे, आम लोग कंगाली में जी रहे थे उस पाकिस्तान ने अपना रक्षा बजट अचानक बहुत बढ़ा लिया. भुट्टो के शासनकाल में पाकिस्तान का रक्षा बजट 88 फीसदी से ज्यादा बढ़ गया. 1971 की जंग के बाद साल 1973-74 में इस मद में 423 करोड़ रुपये खर्च किए गए. साल 1976-77 में 798 करोड़ रुपये. खर्च बढ़ने के अलावा पाकिस्तान को चीन और दूसरे दोस्त मुल्कों से बहुत से हथियार और दूसरा जंगी साज-सामान मुफ्त में भी मिला.
जुल्फिकार अली भुट्टो ये बात भी स्वीकार करते हैं कि पाकिस्तान को युद्धोन्मादी बनाने की ओर उनके शासन में भी कई कदम उठाए गए. भुट्टो लिखते हैं- 1971 में भारत के साथ 14 दिन के युद्ध के परिणाम हमारे पक्ष में नहीं आए. उसके बाद तमाम देशों को साथ लाने के लिए उन्होंने लगातार दौरे किए. बड़ी मात्रा में हथियार जुटाने के लिए कई देशों से उन्होंने मदद मांगी, अमेरिका-चीन समेत कई देशों से उन्हें मदद मिली भी.'
ऐटमी हथियार बनाने का जो सपना भुट्टो ने देखा था उसके लिए पैसा पानी की तरह बहाया. बाद में तानाशाही शासन स्थापित करने के बाद जनरल जिया उल हक ने भी इस पर जमकर पैसा बहाया और इस्लामी ऐटम बम का सपना दिखाकर अरब के देशों से भी जमकर पैसा जुटाया. उत्तर कोरिया और ईरान के परमाणु कार्यक्रमों के पीछे भी बाद में पाकिस्तानी हाथ होने का संदेह दुनिया ने जताया. इस मामले में पाकिस्तान में परमाणु बमों के जनक वैज्ञानिक अब्दुल कादिर खान की कहानी का बाद में दुनिया के सामने खुलासा हुआ भी.
एक तानाशाह की एंट्री किन स्थितियों में होती है?
रक्षा बजट बढ़ाने से बढ़े बोझ के कारण साल 1977 आते-आते जुल्फिकार अली भुट्टो एक तरफ जहां आर्थिक संकट में फंसते देश को बचाने में नाकाम हो रहे थे वहीं विपक्ष के प्रोटेस्ट के कारण सियासी संकट भी सर पर आ खड़ा हुआ था. दूसरी ओर जिया उल हक सेना प्रमुख बनने के बाद से खुद को लगातार मजबूत करता जा रहा था.
प्रोटेस्ट के बीच आर्थिक गतिविधियां भी ठप होती जा रही थीं. वित्त मंत्री अब्दुल हफीज पीरजादा ने मई 1977 के आखिर में एसोसिएटेड प्रेस को बताया कि आर्थिक हालत गंभीर है. उन्होंने कहा कि 1977-78 का वित्तीय वर्ष बहुत कठिनाइयों का वर्ष है क्योंकि अब तक 60 दिनों के काम का नुकसान हो चुका है और कुल राष्ट्रीय उत्पादन में 40-50 करोड़ डॉलर के नुकसान का अंदाजा लगाया गया है. उन्होंने ये भी बताया कि देश को निर्यात की कमाई में भी 40 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ है.
इसी बीच, 5 जुलाई 1977 को जिया उल हक की अगुवाई में पाकिस्तानी सेना ने सरकार का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया, मार्शल लॉ घोषित कर दिया गया और केंद्रीय और सभी प्रांतीय सरकारों को भंग कर दिया गया. सख्त नियम लागू किए गए. विरोधी जेल में डाल दिए गए. उसके बाद पाकिस्तान में तानाशाही शासन का ऐसा रूप दिखा जो आने वाले दशकों में आतंकी राष्ट्र की उसकी पहचान गढ़ने का कारण बन गया.
आतंकवाद को जन्म देने वाला क्रूर तानाशाह
जनरल जिया उल हक वही शख्स था जिसने 1948, 1965 और 1971 की जंग में हारे पाकिस्तान के लिए भारत से मुकाबले के हथियार के रूप में आतंकवाद को जन्म दिया. जिया ने समझ लिया कि जंग में भारत तो मात देना संभव नहीं है ऐसे में कश्मीरी अलगाववाद की आड़ में आतंकवाद को पनपाने के लिए जिया ने ऑपरेशन टोपैक चलाया और कश्मीरी नौजवानों को आतंक की राह पर झोंक दिया.
क्या था ऑपरेशन टोपैक?
जिया उल हक का मानना था कि कश्मीर पर कब्जे का जो सपना पाकिस्तान 1948, 1965 और 1971 के युद्धों से नहीं कर सका, उसे घाटी में धार्मिक कट्टरपंथ, आतंकवाद और अलगाववाद को बढ़ावा देकर आसानी से कर सकता है. इस योजना का नाम राजकुमार टोपैक समरू के नाम पर रखा गया. इसकी वजह यह थी कि उन्होंने 18वीं शताब्दी में उरुग्वे में स्पेनी शासन के खिलाफ अपरंपरागत युद्ध का संचालन किया था. दरअसल, पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने भारत के खिलाफ K-2 यानी 'खालिस्तान, कश्मीर और ऑपरेशन टोपैक' युद्ध नीति लागू की थी. ऑपरेशन टोपैक के तहत घाटी और पंजाब में समानांतर आतंकवाद के बीज बोना था. पहले चरण के तहत घाटी में व्यापक पैमाने पर आतंकियों की घुसपैठ कराई गई.
जिया का जुल्मी शासन, पाकिस्तानी समाज को झुलसा गया
जनरल जिया ने पाकिस्तान में इस्लामी कानून लागू किया. जिया शासन में तय की गई सजाएं तो आज के तालिबान शासन की याद दिला देंगी. फरवरी 1978 में जिया ने ऐलान किया कि दूसरे मुल्क के लोग अगर शराब पीते पकड़े गए तो उन्हें 30 कोड़े लगाने या तीन साल जेल की सजा दी जाएगी. अगर कोई मुस्लिम चोरी या अन्य जघन्य अपराध का मुजरिम पाया जाता है तो उसे पत्थर मारकर सजा देना तय हुआ. अगर कोई गैर मुस्लिम चोरी का आरोपी पाया गया तो उसके लिए 100 कोड़े या मौत की सजा तय की गई. अगर किसी पर दो बार चोरी का जुर्म साबित हो जाए तो उसका एक हाथ या एक पांव काट दिया जाए. अगर कोई मुसलमान शराब पीता हुआ पकड़ा जाए तो उसे 80 कोड़ों की सजा दी जाए.
जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी डायरी में लिखते हैं- 'क्या जिया सभी विदेशियों को पाकिस्तान से निकालना चाहते हैं? या क्या इन नियमों के पालन के लिए पाकिस्तान में हर घर में पुलिस का पहरा लगाया जाएगा? पाकिस्तान को सऊदी अरब के रास्ते पर नहीं चलाया जा सकता है. हमारी भौगोलिक और सामाजिक हालात अलग हैं.'
महाशक्तियों से धन ऐंठने की लगी आदत
आतंकवाद की राह पर चल रहा पाकिस्तान कभी अमेरिका तो कभी चीन के पीछे क्यों दिखता है? इसका भी एक अतीत है. रूस-अमेरिका के बीच दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुए शीत युद्ध के काल में पाकिस्तान ने एक तरफ जहां अमेरिका के पीछे चलकर जमकर डॉलर जुटाए तो वहीं भारत से खार खाए चीन से फायदा उठाने के लिए भी घुटनों के बल बैठा मिला और आजतक इसी हालत में है. जुलाई 1977 में जनरल जिया ने अपना शासन आने के बाद काराकोरम हाईवे पर चीन से करोड़ों रुपये खर्च कराए ताकि चीन से जमकर पैसा मिल सके. चीन को भी अरब सागर तक जाने के लिए सड़क मार्ग मिल गया. आज सीपीईसी प्रोजेक्ट के जरिए जिस तरीके से चीन ने पाकिस्तान में घुसपैठ की है उसे कई इलाकों में खुद पाकिस्तान के लोग भी गुलामी के हाईवे के रूप में देखने लगे हैं. इसकी नींव भी इसी काराकोरम हाईवे से पड़ी थी.
जिया को नियम तोड़कर ऊपर लाए थे भुट्टो
साल 1976 में जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम यानी प्रधानमंत्री थे. अपने इशारे पर चलाने के लिए भुट्टो ने जनरल जिया उल हक को आर्मी चीफ बनाने के लिए चार सीनियर अफसरों को दरकिनार किया था. बाद में जिया तानाशाह बन गए और एक साल बाद जिया ने उन्हीं जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर लटकवा दिया. 11 साल के तानाशाही शासन का अंत एक विमान दुर्घटना के साथ हुआ. जब 17 अगस्त, 1988 को एक विमान हादसे में जनरल जिया उल हक का इंतकाल हो गया.
भुट्टो की तरह ही यही गलती नवाज शरीफ ने साल 1998 में परवेज मुशर्रफ को लेकर भी की थी. नीचे के रैंक से लाए परवेज मुशर्रफ को नवाज ने सेना प्रमुख बनाया. बाद में उन्हीं परवेज मुशर्रफ ने नवाज को विदेश निर्वासित करके खुद की तानाशाही सत्ता स्थापित कर ली. बाद में पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की 2007 में हुई हत्या की जांच के घेरे में परवेज मुशर्रफ भी आए.
लोकतंत्र को रौंदते पाकिस्तानी तानाशाहों और सत्ता पर कब्जे के लिए नेताओं की ओर से आतंकियों को मिले प्रश्रय का कारण ही है कि वहां कभी हालात स्थिर नहीं रहे. पाकिस्तान में लोकतंत्र के साथ नेताओं के खेल के बाद में वे खुद ही शिकार बन जाते हैं और फिर तानाशाही सरकार की चक्की में जनता पिसती चली जाती है. यही कारण है कि भारत के साथ ही अलग होकर आजाद मुल्क के रूप में अस्तित्व में आए पाकिस्तान में न तो राजनीतिक स्थिरता है और न ही आर्थिक स्थिरता.
अभी इमरान बने हुए हैं सियासी लड़ाई की धुरी
इमरान खान बनाम शहबाज सरकार की लड़ाई में इस वक्त पाकिस्तान राजनीतिक हिंसा का सामना कर रहा है. पाकिस्तान का अतीत सियासी हिंसा से भरा रहा है. नेता और दल आपस में भिड़ते हैं और जहां लोकतंत्र मजबूत होता हुआ दिखता है तो अचानक सेना का सत्ता पर कब्जा हो जाता है. इमरान खान की तरह बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ की पार्टियों के बीच भी कभी लंबे समय तक सियासी टकराव देखने को मिला था जबकि आज दोनों दल सरकार में साथ हैं और इमरान खान की पार्टी के कार्यकर्ता सड़कों पर हैं.