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राष्ट्रपति भाग गए...सड़क पर जनता का आक्रोश, श्रीलंका के सामने बचे हैं सिर्फ 3 विकल्प

श्रीलंका में जारी आर्थिक संकट के बीच तीन ऐसे विकल्प सामने आए हैं जो इस देश की आने वाली राजनीति और तकदीर दोनों को तय करने वाले हैं.

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श्रीलंका के सामने बचे हैं सिर्फ 3 विकल्प
श्रीलंका के सामने बचे हैं सिर्फ 3 विकल्प

श्रीलंका में आर्थिक स्थिति इतनी ज्यादा बिगड़ चुकी है कि इसे संभालना भी अब अपने आप में एक चुनौती साबित होने वाला है. वर्तमान में देश के राष्ट्रपति विदेश भाग चुके हैं, प्रधानमंत्री इस्तीफा दे चुके हैं और सरकारी चैनलों पर जनता ने अपना कब्जा जमा लिया है. ऐसे में श्रीलंका के सामने चुनौतियां तो कई हैं, लेकिन विकल्प सिर्फ तीन.

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श्रीलंका में जैसे हालात चल रह हैं, ऐसे में या तो कुछ समय और कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में रानिल विक्रमसिंघे जिम्मेदारी संभालते रहें. दूसरा विकल्प ये है कि विपक्ष की तमाम पार्टियां सारे विवाद पीछे छोड़कर साथ आएं और राजपक्षे सरकार को सत्ता से बेदखल करें. तीसरा विकल्प मिलिट्री शासन का भी खुला है. अब एक-एक कर हर विकल्प को समझते हैं और श्रीलंका की वर्तमान स्थिति से जोड़ने का प्रयास करते हैं.

पहला विकल्प ये है कि रानिल विक्रमसिंघे कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में अपनी सेवाएं देते रहें. अब जैसी श्रीलंका में स्थिति चल रही है, उसे देखते हुए ये विकल्प भी सीमित समय के लिए सही साबित हो सकता है. कुछ ना होने से अच्छा कुछ होना है. ऐसे में अगर कोई बड़े पद पर बने रहकर प्रशासनिक जिम्मेदारियां संभालता रहेगा, स्थिति से ज्यादा प्रभावी अंदाज में लड़ा जा सकता है. 

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लेकिन विक्रमसिंघे के कार्यकारी राष्ट्रपति बने रहने से श्रीलंका के सामने दो बड़ी चुनौतियां भी खड़ी हो सकती हैं. पहली तो ये कि सत्ता में बने रहने के लिए वे कोई भी बड़ा आर्थिक कदम नहीं उठाएंगे, वो रीफॉर्म करने से बचेंगे. दूसरी तरफ ये भी हो सकता है कि लोगों की नजरों में एक कार्यकारी राष्ट्रपति की कोई अहमियत ना रहे और स्थिति अराजसकता की ओर बढ़ जाएं. ऐसे में इस एक विकल्प के साथ उम्मीद के साथ-साथ रिस्क फैक्टर भी जुड़ा हुआ है.

दूसरे विकल्प की बात करें तो ये वर्तमान में श्रीलंका के लिए सबसे ज्यादा मुफीद साबित हो सकता है. ऐसा कहा भी जा रहा है कि सभी विपक्षी दल की पार्टियां साथ आकर नई सरकार का गठन करें और फिर कुछ महीनों बाद चुनाव की तैयारी. लेकिन यहां भी एक पेंच फंस रहा है. श्रीलंका की जैसी राजनीति रही है, वहां पर जमीन पर संघर्ष करने वाले की उपस्थिति सदन में कमजोर दिखाई पड़ती है और जो सड़क पर संघर्ष नहीं कर रहा है, सदन में सारी ताकत उसी के पास है. 

इसी वजह से पिछले कुछ सालों में राजपक्षे परिवार ने श्रीलंका की राजनीति में अपनी पैठ इतनी मजबूत की है. लेकिन अब क्योंकि उन्हीं की गलत नीतियों और भ्रष्टाचार की वजह से आर्थिक संकट खड़ा हो गया है, ऐसे में विपक्षी पार्टियों को ही पुराने गिले-शिकवे भुलाकर हाथ मिलाना पड़ेगा.

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वैसे श्रीलंका के पास एक तीसरा विकल्प भी खुला है. किसी लोकतांत्रिक देश के लिए ये ज्यादा उपयुक्त तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन जैसे स्थिति बदल रही है, ये भी एक विकल्प के रूप में सामने आ सकता है. हम बात कर रहे हैं मिलिट्री शासन की. लेकिन अभी के लिए इसकी उम्मीद कम दिखाई पड़ती है और वहां की तमाम पार्टियां भी इस विकल्प के बारे में नहीं सोच रही हैं.

कोलंबो से Harim Peiris की रिपोर्ट

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