सबसे पहले तो जानते हैं कि राहुल गांधी ने घर को लेकर क्या बयान दिया. उन्होंने कहा कि मैं छोटा था, 1977 की बात है. घर में अजीब माहौल था. मैंने मां से पूछा कि हम घर क्यों छोड़ रहे हैं. तब पहली बार पता लगा कि ये हमारा घर नहीं है, हमें यहां से जाना होगा. मैं 52 साल का हो गया, लेकिन हमारे पास अपना घर नहीं. राहुल गांधी का यह बयान अब चर्चा में है. फिलहाल वो 12 तुगलक लेन में रह रहे हैं.
मस्क रहते हैं दोस्तों के घर पर
राहुल गांधी अकेले ऐसे नहीं हैं जिनके पास अपना घर नहीं है, बल्कि अमेरिकी अरबपति बिजनेसमैन और टेस्ला के सीईओ एलन मस्क भी कथित तौर पर हमेशा दोस्तों के घर पर रहते आए हैं. उनके पास भी अपना कोई घर नहीं. पिछले साल टेक टॉक में इंटरव्यू के दौरान खुद मस्क ने ये बात कही थी.
उन्होंने कहा कि लोग अरबपतियों को उनके भारी शान-ओ-शौकत के लिए जानते हैं, लेकिन मेरा यकीन कुछ और है. मेरे पास प्राइवेट के नाम पर कम ही चीजें हैं. यहां तक कि मेरे पास अपना खरीदा हुआ घर भी नहीं. मैं अपने दोस्तों के स्पेयर बेडरूम में रहता हूं और जब किसी दोस्त के घर मेहमान बढ़ जाते हैं तो कुछ दिनों के लिए किसी और के यहां चला जाता हूं. याद दिला दें कि पिछले दिनों कंपनी में छंटनी के दौरान ये भी बात आई थी कि मस्क ज्यादातर रातें दफ्तर में ही बिताते हैं और वहीं उनके लिए बेडरूम का इंतजाम हो चुका है.
अब भी दूसरे अमीर शख्स
मस्क सितंबर 2021 से दुनिया के सबसे अमीर शख्स रहे हैं. उन्होंने अमेजन के फाउंडर जेफ बेजोस को पछाड़कर यह जगह पाई थी. बाद में टेस्ला के शेयरों में भारी गिरावट के बाद मस्क की नेट वर्थ भी घट गई, लेकिन इसके बाद भी वे दुनिया के दूसरे सबसे दौलतमंद आदमी बने हुए हैं. फिलहाल उनके पास 185.4 बिलियन डॉलर की संपत्ति है.
मस्क के पास बाकी रईसों की तरह याच और बहुत सारे जेट्स भी नहीं हैं. एक प्राइवेट प्लेन है, जिसके बारे में उनका तर्क है कि अगर वे ये भी नहीं रखेंगे तो काफी सारा समय काम की बजाए सफर में ही चला जाएगा.
जर्मनी में 40 प्रतिशत के पास ही अपना घर
भारत में अपना घर होना स्टेटस और यहां तक कि जरूरत से जोड़ा जाता है, लेकिन यूरोप के कई देश इससे एकदम अलग हैं. खासकर जर्मन्स किराए पर रहना पसंद करते हैं. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) के अनुसार जर्मनी उन देशों में टॉप पर है, जहां होम-ओनरशिप पसंद नहीं की जाती. इसका डेटा दावा करता है कि वहां 40 प्रतिशत लोगों के पास ही अपने घर हैं. बाकी जर्मन्स किराए पर रहते हुए ही जिंदगी निकाल देते हैं. वहीं 83 प्रतिशत से ज्यादा के साथ स्पेन होम ओनरशिप के मामले में यूरोपियन देशों में टॉप पर है.
दूसरा विश्व युद्ध बना वजह
जर्मन्स अपना घर लेने से क्यों छिटकते हैं, इसे समझने के लिए एक बार इतिहास में झांकना होगा. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान शुरुआत में जर्मनी लीड करता दिख रहा था, लेकिन फिर काफी उलटफेर हुए और हिटलर की खुदकुशी के बाद जर्मनी को सरेंडर करना पड़ गया. इस बीच ब्रिटिश और अमेरिकी सेनाओं ने इस देश में काफी विध्वंस भी मचाया. सैनिकों समेत आम नागरिकों के कत्लेआम के बीच एक चीज ये भी हुई कि जर्मनी में रिहायशी इलाकों को भारी नुकसान हुआ. दोनों देशों की सेनाओं ने बहुत से मकान ढहा दिए. किसी भी समय एयर रेड्स पड़तीं और हर बड़ा शहर ध्वस्त हो जाता. बर्लिन और हैमबर्ग जैसे बड़े शहर राख के ढेर में बदलकर रह गए.
ग्रामीण इलाकों में जो मकान बाकी रहे, उनमें जर्मन सैनिक पनाह लेने लगे. जाते हुए वे खुद ही उन मकानों में तोड़फोड़ कर जाते ताकि दुश्मन सेना को कोई सुराग न मिल जाए. माना जाता है कि तब 30 प्रतिशत से ज्यादा जर्मन मकान मलबे में बदल गए थे. कहीं-कहीं ये दावा भी है कि तब लगभग 2.25 मिलियन जर्मन नागरिक बेघर हो चुके थे. साल 1946 की जनगणना में ये आंकड़ा बढ़कर लगभग साढ़े 5 मिलियन हो गया. ये वे लोग थे, जिन्हें घरों की जरूरत थी.
भरभरा गई थी जर्मनी की अर्थव्यवस्था
विश्व युद्ध के बाद बर्लिन शहर की अजीबोगरीब स्थिति बन गई थी. उसपर चार देशों के सैनिक थे, अमरीका, ब्रिटेन, सोवियत संघ और फ्रांस. इसी दौरान पश्चिम जर्मनी को काटकर अलग देश बनाने की बात चल पड़ी. इससे जो उथलपुथल मची, उसने पहले से ही कमजोर पड़ी जर्मन इकनॉमी को लगभग गिरा दिया. वहां की करंसी ड्यूश मार्क की कोई कीमत नहीं रही. तब वहां यूरो नहीं हुआ करता था. लोग खरीददारी के लिए बार्टर सिस्टम तक अपनाने लगे, यानी एक चीज देकर दूसरी चीज खरीदना. फेडरल रिजर्व बैंक ऑफ रिचमंड के इकनॉमिक क्वाटरली में इस बात को बताया गया है कि कैसे इतने मजबूत देश की अर्थव्यवस्था ने हर चीज पर असर डाला. रियल एस्टेट भी इनमें से एक था.
पसंद करने लगे किराए पर रहना
घर बनाने में अपनी बड़ी पूंजी लगाकर फिर युद्ध में घर खो चुके जर्मन्स का अब घर बनाने से भरोसा लगभग खत्म हो चुका था. घर खो चुकी और बेरोजगार आबादी का भरोसा जीतने के लिए सरकार ने कई कोशिशें कीं. वहां हाउसिंग लॉ लाए गए, जिसके तहत छोटे और खुले मकान बने. ये इस मकसद से बने थे कि लोग इनमें किराए से रह सकें. यही हुआ भी. लोग सरकार के बनाए मकानों में किराए से रहने लगे. इससे सरकार को भी फायदा हुआ. पैसे बैंक तक पहुंचने लगे और कमजोर इकनॉमी खड़ी होने लगी.
एक के बाद एक दो युद्ध देख चुकी तब की जर्मन पीढ़ियों ने यही ठीक समझा कि किराए के घरों में रहा जाए. यही बात आगे ट्रांसफर हो चुकी और अब तक चली आ रही है. वैसे आमतौर पर दुनिया घूमकर देखने के शौकीन जर्मन्स के लिए रेंट पर रहना ज्यादा आसान भी है और बढ़िया भी. किराए पर रहते हुए ही अगर वे महीने-दो महीने के लिए बाहर जाएं तो सब-लेट का सिस्टम भी होता है, यानी किराएदार खुद अपने मकान या कमरे को किराए पर लगा सकता है. ये सिस्टम आमतौर पर भरोसेमंद भी होता है.
जर्मनी के अलावा स्विटजरलैंड, ऑस्ट्रिया, फ्रांस, नीदरलैंड, फिनलैंड और इटली में भी कम लोग अपना मकान खरीदते हैं. इसकी वजह है वहां होम लोन का ज्यादा होना. इसके अलावा इन देशों में अपना घर होने को स्टेटस से नहीं जोड़ा जाता, जैसा चलन भारत में है.