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कमजोर नेता, सेना में भ्रष्टाचार, अफगानिस्तान में तालिबान की जीत के ये हैं अहम कारण

राजधानी काबुल में तालिबान के आतंकवादी दाखिल हो चुके हैं. चारों तरफ दहशत का माहौल है. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और उपराष्ट्रपति अमीरुल्लाह सालेह अपना मुल्क छोड़ चुके हैं.

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अफगानिस्तान में तालिबान ने सत्ता ले ली है. (फाइल फोटो)
अफगानिस्तान में तालिबान ने सत्ता ले ली है. (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • तालिबान ने प्रोपगैंडा का भी सहारा लिया
  • अफगानी नेता भी इसके लिए जिम्मेदार
  • सरकारी भ्रष्टाचार और अक्षम नेतृत्व भी बनी वजह

पिछले महीने की 8 तारीख को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से जब पूछा गया कि क्या अफगानिस्तान पर तालिबान जल्द कब्जा कर सकता है. इस सवाल पर अमेरिकी राष्ट्रपति का जवाब था नहीं. लेकिन तालिबान ने अमेरिकी राष्ट्रपति को गलत साबित कर दिया है. अफगानिस्तान 20 साल बाद एक बार फिर तालिबान के शिकंजे में है.

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राजधानी काबुल में तालिबान के आतंकवादी दाखिल हो चुके हैं. चारों तरफ दहशत का माहौल है. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और उपराष्ट्रपति अमीरुल्लाह सालेह देश छोड़ चुके हैं. अफगानिस्तान में एक बार फिर पाकिस्तान समर्थक सरकार बनने जा रही है लेकिन हर कोई ये जानना चाहता है कि आखिर तालिबान ने अफगानिस्तान पर इतनी तेजी से कब्जा कैसे किया ? कैसे तालिबान ने बिना लड़े काबुल को फतह कर लिया.  इन अहम सवाल का जवाब जानने के लिए आजतक ने अफगानिस्तान पर कड़ी नजर रखने वाले कई जानकारों से बात की.सवाल ये है कि अफगानिस्तान में तालिबान की जीत के अहम कारण क्या हैं?

अफगानी नेता भी जिम्मेदार

इस सवाल का पहला जबाव अफगान नेता हैं. जिन्होंने तालिबान से समझौता करके अफगानिस्तान का भविष्य उसे सौंप दिया.  अफगानिस्तान के दूसरे सबसे बड़े शहर कंधार में तालिबान ने वहां के स्थानीय राजनेताओं को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वो अपने इलाके के सैनिकों को लड़ाई न करने के लिए कहें. इस बात की तस्दीक कंधार प्रांत के गवर्नर रोहुल्लाह ख़ानज़ादा ने भी की. जिनके मुताबिक राजनेताओं ने सैनिकों से लड़ाई न करने का आग्रह किया और कंधार शहर बिना लड़ाई के ही तालिबान के नियंत्रण में चला गया. 

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दरअसल, तालिबान ने गुपचुप तरीके से अफगान सेना के कमांडरों, गांवों, जिलों और प्रांतीय स्तर पर अहम नेताओं से संपर्क किया. उन्हें इस बात के लिए राजी किया कि अगर वो सैनिकों से हथियार डलवा दें तो उनकी जान बख्श दी जाएगी. इसके लिए सैनिकों और कमांडरों के कबीले, परिवार और दोस्तों की भी मदद तालिबान ने ली. तालिबान की ये चाल कामयाब रही और वो बिना लड़े ही काबुल तक पहुंच गया.

तालिबान ने काबुल फतह के लिए प्रोपगेंडा का भी सहारा लिया. आम लोगों से लेकर अफगान सैनिकों के मन में ये बात घर करवा दी कि आखिर में वही जीतेगा. इसलिए लोग बिना वजह उससे दुश्मनी न लें. ये उनके लिए अच्छा नहीं होगा. तालिबान का ये प्रोपगेंडा काम कर गया.

सरकारी भ्रष्टाचार और अक्षम नेतृत्व

तालिबान की जीत की दूसरी बड़ी वजह सरकारी भ्रष्टाचार और अक्षम नेतृत्व को बताया जा रहा है. जानकारों का कहना है कि अफगानिस्तान में स्थानीय पुलिस से लेकर सेना में भयानक भ्रष्टाचार था. यहां तक कि सरकार समर्थक मिलिशिया बलों की भर्ती को अफगान अफसरों ने कमाई का जरिया बना लिया.  राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय के पूर्व प्रमुख रहमतुल्ला नबील के मुताबिक सरकार के भीतर कुछ हलकों ने वेतन को जेब में रखने के लिए घोस्ट यानी जिनका अस्तित्व ही नहीं है ऐसे मिलिशिया समूह बनाए हैं.

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सरकार की तरफ से 1,000 स्थानीय मिलिशिया के लिए पैसे भेजे जाते और भ्रष्टाचारी केवल 200 को ही काम पर रखकर बाकी पैसे को गटक जाते. अफसरों और नेताओं के गठजोड़ ने अफगान पुलिस का भी हौसला तोड़ दिया और उसे महीनों तक तनख्वाह के लिए भटकाया.  यही नहीं जो अफगान सेना तालिबान से लड़ रही थी उसे खाने-पीने, हथियार तक के लिए मोहताज कर दिया. भ्रष्टाचारियों ने सेना के हथियारों और जरूरी सामान की कालाबाजारी शुरू कर दी और ये आधुनिक हथियार तालिबान तक पहुंच गए.

अफगानिस्तान के नेता और सरकार के पास तालिबान को रोकने के लिए पूरा वक्त था. तालिबान 20 सालों तक काबुल से
बाहर था. भारत-अमेरिका समेत दुनियाभर के देशों ने अफगानिस्तान की खुशहाली के लिए दिल खोलकर मदद भी की थी लेकिन एक्सपर्ट कहते हैं कि तालिबान को रोकने का ये ख्वाब अफगानिस्तान के अक्षम नेतृत्व के चलते पूरा न हो सका. जिसका फायदा तालिबान ने उठाया और वो अमेरिका के जाते ही काबुल में आ धमका.

पश्तूनों के बीच तालिबान ने खुद को मजबूत किया

1990 के दशक के आखिर में तालिबान ने अफगानिस्तान के दक्षिण में रहने वाले पश्तूनों के बीच अपने को मजबूत किया. इसके बाद वो ताज़िक और उज़्बेक की आबादी वाले उत्तर की ओर आगे बढ़ा.  इसका नतीजा ये हुआ कि अफगानिस्तान के ज्यादातर समूहों में वो घुसपैठ करने में सफल हो गया. तालिबान के एक शीर्ष नेता आमिर खान मोटाकी ने इस बारे में कहा कि आज स्थिति 20 या 25 साल पहले की तुलना में अलग है. अब हर गांव और इलाके में मौजूद हर जातीय समूह में सैकड़ों और हजारों सशस्त्र मुजाहिदीन हैं. ज्यादातर जानकार इसे अमेरिका की खुफिया असफलता मानते हैं. जो तालिबान के बढ़ते प्रभाव को पहचान ही न सकी. और अफगानिस्तान के आम लोगों को तालिबान के रहमो करम पर छोड़ गई.

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आतंकियों की संख्या में इजाफा

तालिबान के जीतने की एक और बड़ी वजह अचानक उसके आतंकवादियों की संख्या में इजाफा है जिसने उसकी ताकत में यकायक बढ़ावा कर दिया. अमेरिका और तालिबान समझौते के तहत अफगान जेलों से 5,000 तालिबानी आतंकवादियों की रिहाई ने भी उसकी सैन्य क्षमता को बढ़ाया. पाकिस्तान के सैन्य अफसर और आतंकवादी भी तालिबान के समर्थन में उतर आए और अचानक तालिबान ने अपनी ताकत से सबको चौंका दिया. वहीं, अफगान सेना की ताकत इस दौरान तेजी से घटी. Afghan intelligence service ने बताया कि 5000 सैनिकों ने अमेरिकी ऐलान के बाद से हर महीने सेना को छोड़ना शुरू कर दिया. यानी एक तरफ तालिबान की ताकत में बढ़ोत्तरी होती गई तो वहीं अफगान सेना लगातार कमजोर होती गई.

इस तरह कमजोर नेतृत्व, भ्रष्टाचार और तालिबान का शातिरानापन अफगानिस्तान में उसके कब्जे में जाने की वजह बना, जिसका खामियाजा सारी दुनिया को झेलना होगा. सबसे ज्यादा अफगानिस्तान की उस जनता को जो दशकों से हो रही जंग में फुटबॉल बन कर रह गई है.

कितना मजबूत है तालिबान

माना जाता है कि तालिबान के पास डेढ़ लाख के करीब आतंकवादी हैं. US Congressional Research Service के अनुसार तो ये संख्या 55 से 85 हजार के बीच है. अफगान सेना का सालाना बजट 44566 रुपये है जिसका 75% हिस्सा अमेरिका देता है. जबकि UN कहता है कि तालिबान हर साल इससे आधी रकम यानी 22 हजार करोड़ रुपये अपने आतंकवादियों पर खर्च करता है. तालिबान के खिलाफ अफगान सेना का सबसे बड़ा गेमचेंजर उसकी वायु सेना है. जिसमें 167 एयरक्राफ्ट और अटैक हेलिकॉप्टर शामिल हैं. वहीं तालिबान के पास वायु सेना नहीं है.

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(आजतक ब्यूरो)

 

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