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रूस-अमेरिका की लड़ाई ने भारत की दुविधा बढ़ाई, एक पक्ष चुनना आसान नहीं

भारत न अमेरिका को छोड़ सकता है और न ही रूस से दूर जा सकता है. लेकिन अमेरिका के लिए भारत तभी भरोसेमंद बन सकता है जब वो रूस को लेकर अमेरिकी लाइऩ का समर्थन करेगा.

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अमेरिका और रूस की बढ़ती लड़ाई भारत के लिए बढ़ाएगी मुश्किल
अमेरिका और रूस की बढ़ती लड़ाई भारत के लिए बढ़ाएगी मुश्किल
स्टोरी हाइलाइट्स
  • बाइडेन के आने के बाद रूस-अमेरिका के बीच बढ़ा तनाव
  • अमेरिका और रूस की वर्चस्व की लड़ाई से बढ़ेगी भारत की मुश्किल
  • भारत के सामने विदेश नीति में संतुलन बनाए रखने की चुनौती

अमेरिका और रूस के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है. 17 मार्च को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को ‘किलर’ तक कह दिया. इसके जवाब में पुतिन ने अपने राजनयिकों को वापस बुला लिया और अमेरिका को जमकर खरी-खोटी सुनाई.

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पुतिन ने कहा कि अमेरिका का इतिहास अन्याय से भरा पड़ा है. पुतिन ने दास प्रथा और जापान में परमाणु हमले का हवाला दिया. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विपरीत, जो बाइडन ने सत्ता में आने के बाद से पुतिन को लेकर सख्त रुख अख्तियार कर रखा है. पुतिन के प्रति ट्रंप उदार थे और उन्होंने कभी रूसी राष्ट्रपति के खिलाफ कड़े शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया.

आज की तारीख में वैश्विक स्थिति को प्रभावित करने में अमेरिका के अलावा, रूस और चीन की भी हैसियत है. सीरिया में अमेरिका चाहकर भी वहां के राष्ट्रपति बशर अल-असद को नहीं हटा पाया. यहां तक कि अमेरिका को पीछे हटना पड़ा. ऐसा रूसी राष्ट्रपति पुतिन के कारण हुआ.

सीरियाई राष्ट्रपति को पुतिन का संरक्षण हासिल था जबकि अमेरिका, इजरायल, सऊदी और कई यूरोप के देश बशर अल-असद को सत्ता से बेदखल करना चाहते थे. ट्रंप ने इस चीज को बहुत गंभीरता से नहीं लिया लेकिन बाइडेन को पुतिन का ये साहस याद है. जहां भी अमेरिका का रूस के साथ मतभेद है, वहां उसे चीन का भी सामना करना पड़ रहा है. रूस और चीन मिलकर अमेरिकी नेतृत्व को चुनौती दे रहे हैं. 

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अमेरिका और रूस की वर्चस्व की जंग

इस स्थिति में भारत के लिए विकट स्थिति पैदा होने की आशंका है. भारत और चीन में तनातनी अभी खत्म नहीं हुई है. पूर्वी लद्दाख में अब भी चीनी अतिक्रमण खत्म नहीं हुआ है. दूसरी तरफ, रूस के लिए भारत शीत युद्ध के दौरान से ही एक साझेदार के रूप में रहा है.

रूस और भारत के बीच अरबों डॉलर का सैन्य सहयोग है. लेकिन चीन रूस की उस मुहिम में शामिल है जहां अमेरिका की वैश्विक नेतृत्व को चुनौती देने की बात आती है. रूस के लिए यह बहुत अहम है कि वो अमेरिका को चुनौती दे और इस मुहिम में उसे चीन से ही मदद मिल सकती है.

चीन और भारत में से रूस के लिए ज्यादा अहम कौन?

भारत के मामले में भी रूस चीन के खिलाफ नहीं जा सकता है. चीन ना केवल अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने वाला साझेदार है बल्कि व्यापार के मामले में सबसे बड़ा पार्टनर है. भारत ने रूस के जरिए कोशिश की कि चीन के साथ विवाद को सुलझाया जा सके.

राजनाथ सिंह ने इस दौरान रूस का दौरा भी किया था लेकिन रूस ने किसी का कोई पक्ष नहीं लिया बल्कि रूसी विदेश मंत्री ने यहां तक कह दिया कि पश्चिम के देश भारत को चीन विरोधी मोहरे के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं. भारत के लिए यह बयान किसी झटके से कम नहीं था. 

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अब भारत की मुश्किल यह है कि वो चीनी आक्रामकता से निपटने के लिए किसकी मदद ले? रूस से मदद मिल नहीं रही. रूस और अमेरिका में तनाव चरम पर है. ऐसे में भारत अमेरिकी खेमे में जाता है तो रूस नाराज होगा. 

अब भारत पर दबाव है कि वो कोई एक खेमा चुने. पर भारत के लिए कोई एक खेमा चुनना आसान नहीं है. अगर मोटे तौर पर सोचें तो लगता है कि चीन के मामले में रूस मदद नहीं कर रहा है और अमेरिका खुलकर भारत के साथ खड़ा है तो उसे स्वाभाविक रूप से अमेरिका के साथ जाना चाहिए. लेकिन भारत के लिए रूस को छोड़ना इतना आसान नहीं है. 

भारत अमेरिका के साथ गया तो पाकिस्तान-चीन-रूस भी होंगे करीब

दरअसल, भारत की सैन्य ताकत में रूस की भी अहम भूमिका रही है. आज भी भारत हथियारों के मामले में रूस पर सबसे ज्यादा निर्भर है. भारत ने जिन लड़ाकू विमानों सुखोई और मिग के जरिए पाकिस्तान से युद्ध लड़ा, वो रूसी तकनीक ही है. हथियार तो बाकी देशों से भी मिल सकता है लेकिन रूस ने भारत के साथ आधुनिक तकनीक भी साझा की है.

भारत अगर खुलकर अमेरिकी खेमे में जाता है तो रूस यही सोचेगा कि भारत खुलकर चीन और रूस विरोधी गुट में शामिल हो गया है. ऐसे में, रूस और पाकिस्तान की करीबी बढ़ सकती है. रूस और उसका दोस्त चीन पहले से ही पाकिस्तान के करीब है. अगर रूस और पाकिस्तान करीब आते हैं तो उसे सैन्य ताकत बढ़ाने में मदद मिल सकती है. 

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हाल के दिनों में रूस और भारत की दूरियां बढ़ी हैं. हर साल दोनों देशों के बीच सालाना समिट होता था. लेकिन पिछले साल ऐसा नहीं हुआ. इस समिट में दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्ष दशकों से मिलते आ रहे थे.

इसके अलावा, अफगानिस्तान के मामले में भी रूस ने शांति वार्ता के लिए पाकिस्तान को अहम किरदार माना लेकिन भारत को तवज्जो नहीं दी. भारत और रूस औपचारिक रूप से तनाव की बात को खारिज कर रहे हैं लेकिन मौजूदा स्थिति इससे मेल नहीं खाती. 

 

रूस से S-400 की खरीद को लेकर अमेरिका की आपत्ति

जैसे-जैसे अमेरिका और रूस में तनाव बढ़ेगा, वैसे-वैसे भारत पर दबाव बढ़ेगा कि वो स्पष्ट लाइन बताए. भारत की लाइन नेहरूकालीन विदेशी नीति से अलग नहीं हो पाई. शीत युद्ध के दौरान भी भारत ने किसी खेमे में जाने से परहेज किया था और गुटनिरपेक्षता को चुना था. लेकिन तब की दुनिया बदल गई है. अब दुनिया इस लाइन पर चल रही है कि या तो आप मेरे साथ हैं या खिलाफ हैं.

पिछले हफ्ते ही अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन भारत के दौरे पर आए थे. जो बाइडन के हाथ में अमेरिकी कमान आने के बाद यह पहला उच्चस्तरीय दौरा था. इस दौरान ऑस्टिन की मुलाकात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा एनएसए अजित डोभाल, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस जयशंकर से हुई.

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दोनों देशों में द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने की बात हुई लेकिन कुछ ऐसे मुद्दे भी हैं, जिन पर दोनों देश के बीच मतभेद हैं. यूरोप की प्रसिद्ध न्यूज वेबसाइट पॉलिटिको ने 20 मार्च को एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें बताया गया है कि ऑस्टिन ने भारत को आगाह किया कि अगर वो रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम खरीदता है तो प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है. भारत रूस से एस-400 खरीदने की योजना पर काम कर रहा है.

पॉलिटको के अनुसार, ऑस्टिन ने एस-400 से जुड़े सवाल के जवाब में कहा, ''हमने सभी सहयोगियों और साझेदारों से आग्रह किया है कि वे रूसी उपकरणों से दूर रहें. रूसी उपकरण खरीदने पर प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है. रूस ने अभी दिल्ली एस-400 नहीं भेजा है.'' 

आज की दुनिया पहले से कहीं ज्यादा पोलराइज्ड हुई है. चीन और रूस का कहना है कि अमेरिका एकध्रुवीय दुनिया चाहता है जबकि वे बहुध्रुवीय दुनिया चाहते हैं. लेकिन यह लड़ाई एकध्रुवीय बनाम बहुध्रुवीय की नहीं है बल्कि वर्चस्व की है. रूस और अमेरिका अपने इतिहास से नहीं निकल पा रहे लेकिन भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों के लिए वर्चस्व की यह लड़ाई भारी पड़ती है. 

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