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रूस-यूक्रेन का ये युद्ध कूटनीति समझने वालों का ध्यान अचानक से पूर्वी यूरोप की ओर ले गया है. पूर्वी यूरोप ही वो अखाड़ा है जहां इस समय महात्वाकांक्षाएं टकरा रही हैं, रस्मी सलामी भी मिसाइल और रॉकेट से दी जा रही है और इसके नतीजे में बारूद की गंध पूरे वातावरण में फैल गई है. गन पाउडर की ये तीखी गमक इस वॉर के कुछ किरदारों को पसंद है. ऐसा नहीं है कि इस जंग के सारे सरदार सामने ही हैं. सदियां गुजर गईं, किरदार आए, अपना रोल निभाए और इतिहास में दर्ज हो गए. राष्ट्रपति पुतिन जिस रूसी गणराज्य के लिए आज यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की से टकरा रहे हैं, जमीन के उस टुकड़े पर राजाओं-रानियों के राज का इतिहास लगभग 1200 साल पुराना है. इस विशाल भू-भाग को कहा जाता था कीवियन रूस (Kievan Rus).
तब राज-काज और कानून एक ही संविधान से चलता था. ताकत, शक्ति या पावर जो कहें यही उस संविधान का नाम था. Oleg नाम के राजा ने इसी ताकत के जोर पर 879 ई में कीवियन रूस पर कब्जा किया. ये धरती इस्टर्न स्लाविक जनजातियों का निवास थी. यही वो समय था जब यूरोप बर्बर और दुर्दांत Viking ट्राइब्स के हमलों से त्रस्त था. Viking जनजातियां समंदर के शहंशाह थे. बाल्टिक, काला सागर और कैस्पियन सागर की लहरों पर इन्हीं की दबंगई चलती थी. दिलेर मगर क्रूर ये जनजातियां तत्कालीन विश्व में अपने लिए नए ख्वाबगाह की खोज में समंदर में भटकती रहती थीं. अगर Viking की जिंदगी में झांकना हो तो नेटफ्लिक्स पर आई इसी नाम की सीरिज को देखें. इसी ट्राइब्स का लड़ाका था Oleg, जिसकी मिलिट्री ताकत ने कीव को फतह कर लिया.
कहने का मतलब है कि जो कीव आज रूसी बमों के प्रहार से हांफ रही है वही कीव तब Kievan Rus की सत्ता का केंद्र था. राजा ओलेग तो कीव (Kyiv) को 'Mother of Rus cities' मानता था. पुतिन और जेलेंस्की का इस शहर से नॉस्टेलिया यूं ही नहीं है. बेलारूस, रूस और यूक्रेन सभी कीवियन रूस को ही अपना सांस्कृतिक पूर्वज मानते हैं और इस सत्ता से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं. बेलारूस और रूस ने तो Kievan Rus से ही अपना आधुनिक नाम भी हासिल किया है.
Rus नाम का क्या है मतलब
मान्यता है कि Rus शब्द Old Norse का टर्म है. Rus शब्द का अर्थ होता है वो व्यक्ति जो चप्पू से नाव खेता है. Old Norse स्कैंडिनेविया के निवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा थी. ये भाषा तब बोली जाती थी जब वाइकिंग जनजाति के उभार का दौर था. संभवत: आज के पूर्वी यूरोप में कब्जा करने आए राजा ओलेग के काफिले ने इस क्षेत्र को रूस कहा.
व्लादिमीर द ग्रेट के स्वर्ण युग से लेकर व्लादिमीर पुतिन की बमबारी तक
वर्तमान से ऐतिहासिक कीवियन रूस का एक और नाता है जो एक दिलचस्प दस्तावेज है. कीव पर भले ही रूरीक वंश के ओलेग का कब्जा 879 में हुआ. लेकिन शहर का स्वर्ण युग आया 10वीं और 11वीं सदी में. ओलेग का वंशज व्लादिमीर द ग्रेट (980-1015) और प्रिंस यारोस्लाव I द वाइज (1019-1054) के शासनकाल में कीव राजनीतिक और सांस्कृतिक समृद्धि के चरम पर था. यहां से जानवरों के फर, मधु और दासों (Slaves) का व्यापार होता था. इतिहास की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि व्लादिमीर द ग्रेट के शासन में जो कीव अपनी समृद्धि पर इतराता था, लगभग 1000 साल बाद उसी व्लादिमीर का नेमशेक इस नगर को खंडहर पर बदलने पर तुला है. इसकी वजह कितनी जायज है यह तो वर्तमान का प्रश्न है, मगर इतिहास अपनी जगह पर स्थिर है.
दरअसल वर्तमान अतीत के बोझ (Burden of History) से कभी मुक्त नहीं हो सकता है. अतीत का ये बोझ कीव पर है, गुजरे हुए सालों का यही बोझ पुतिन पर है, जो USSR के सपनों की जकड़न से खुद को मुक्त नहीं कर पाते हैं.
मंगोल हमले में कीवियन रूस का पतन
कीव में सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन 13वीं सदी आधी दूरी तय करते-करते इस इलाके में मंगोल दस्तक दे चुके थे. 1240 में बाकू खान के नेतृत्व में हुए हमले ने कीव को तहस-नहस कर दिया. सेंट्रल एशिया से पूर्वी यूरोप आए मंगोलों के आक्रमण ने कीव की नींव को खोखला कर दिया. इस चोट से कीव भरभरा कर गिर पड़ा. कीवियन रूस के पतन के बाद इस क्षेत्र में जो सत्ता पनपी उसका केंद्र मॉस्को था. इसे Grand Duchy of Moscow के नाम से जाना जाता है. रशियन ऑर्थोडोक्स चर्च की मदद से इस राज्य ने मंगोलों को हराया.
मॉस्को धीरे धीरे अपनी सत्ता मजबूत करता रहा. इसी बीच समय आया रूस में जार (Tsar) शाही का. 1547 इवान चतुर्थ ने स्वयं को रूस का पहला जार घोषित किया. अंग्रेजी में इस शासक को Ivan the terrible कहा जाता है. इस दौरान बाहरी आक्रमणों से बचने के लिए यूक्रेन को रूस की मदद की जरूरत पड़ती रही और रूस हमेशा यूक्रेन का संरक्षक बना रहा. 1654 में, यूक्रेनी नेता, बोहदान खमेलनित्सकी ने यूक्रेन को रूसी जार एलेक्सिस के संरक्षण में रखने की पेशकश की. रूस ने इसे स्वीकार कर लिया लेकिन इसकी कीमत उसे पौलेंड से युद्ध करके चुकानी पड़ी. आखिरकार यूक्रेन को Dnieper नदी से विभाजित कर दिया गया.
यूं तैयार हुई बोल्शेविक क्रांति की मुकम्मल जमीन
मॉर्डन वर्ल्ड ऑर्डर में रूस का रोल शुरू होता है 1917 से. जब यहां पहली बोल्शेविक क्रांति हुई और जनता ने रूसी जार शासकों का तख्ता पलटकर उन्हें मौत की सजा दे दी. लेकिन जरा पीछे चलते हैं. 1914 में साम्राज्यवादी विस्तार के लालच में पड़े यूरोपियन देशों ने पहले विश्व युद्ध की मुनादी करवा दी. ऑस्ट्रिया-हंगरी ने रूस के सहयोगी सर्बिया पर हमले की घोषणा की. इसके जवाब में रूसी शासक जार निकोलिस द्वितीय ने भी पहले विश्व युद्ध का बिगुल फूंक दिया और ऑस्ट्रिया हंगरी के खिलाफ अपनी सेना उतार दी. रूस की सेना लड़ी तो बहादुरी से लेकिन इसका भी बड़ा नुकसान हुआ. 1917 तक 17 लाख जवान मारे गए, अंधाधुंध खर्चे हुए, देश की जनता में जार के खिलाफ पनप रहा गुस्सा चिंगारी में बदलने लगा, कई लोग देश से गद्दारी कर पाला बदलने लगे. 1916-17 में पड़े भीषण अकाल से खाद्यान्न संकट पैदा हुआ. इन सब माहौल ने क्रांति के लिए मुकम्मल जमीन तैयार कर दी.
पेट्रोग्राद की सड़कों पर रोटियों की लूट
मार्च 1917 आते-आते हालात बेकाबू हो गए. सर्दियों में राजधानी पेट्रोग्राद की हालत बहुत खराब हो गई. उस साल गजब कोहरा और ठंड पड़ी थी. दिन 7 मार्च 1917. पेट्रोग्रेड की सड़कों पर भूखी जनता बगावत कर बैठी. दुकानों पर गर्म और नर्म-नर्म रोटियां सेंकी जा रही थी, लेकिन जनता के पास पैसे थे नहीं. लोगों ने दुकानों पर धावा बोल दिया और लगे रोटियां लूटकर खाने. रूस में तख्तापलट की शुरुआत हो चुकी थी.
स्थिति रोज बिगड़ती जा रही थी. 27 मार्च को जनता ने पुलिस ठिकानों पर हमला कर दिया. कई सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया गया. इस दिन शाम मजदूर और सिपाही उसी भवन में सोवियत का गठन करने के लिए जमा हुए जहां अबतक ड्यूमा (रूसी संसद) की बैठक हुआ करती थी. जार निकोलस द्वितीय से कुर्सी छीन ली गई. मजदूर और सैनिकों ने मिलकर सोवियत का गठन किया. सोवियत रूसी शब्द है जिसका अर्थ है परिषद या एसेम्बली. यानी कि कानून बनाने वाली संस्था. इस सोवियत ने ड्यूमा के साथ मिलकर अस्थायी सरकार का गठन किया. मार्च से अक्टूबर तक देश में अस्थिरता का दौर रहा लेकिन इसके बाद सत्ता लेनिन ने अपने हाथ में ले ली. इस तरह से रूस में इंकलाब आया और जारशाही का अंत हो गया.
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सर्वहारा के नायक बनकर उभरे लेनिन
रूस की बोल्शेविक क्रांति ने दुनिया को एक ऐसा नेता दिया जिसने मजदूरों-किसानों की ताकत के दम पर एक राजा से सत्ता छीन ली और सर्वहारा (Proletariat) वर्ग का राज स्थापित किया. सर्वहारा समाज के निचले वर्ग को कहा जाता है जो मेहनत और पसीना बहाकर शारीरिक श्रम के जरिए धन का अर्जन करता है और अपनी जिंदगी चलाता है. लेनिन ने अपने देश की जनता को समतामूलक समाज का सपना दिखाया. एक ऐसा समाज जहां कोई निजी जायदाद नहीं होनी थी. जहां सबके कल्याण की जिम्मेदारी शासन की होनी थी. जहां समाज के सबसे निचले तबके का हक और हुकूक सुरक्षित था. स्टेट की नजर में सब बराबर थे. एक अपार्टमेंट में वैज्ञानिक का परिवार रहता था, उसी का पड़ोसी एक मजदूर हो सकता था, तो उसी के बगल में इंजीनियर रहता तो वहीं पर राजमिस्त्री. एक वर्गहीन समाज की नींव लेनिन ने रखने की कोशिश की थी. लेनिन सर्वहारा वर्ग के नायक बन गए. लेनिन की ये साम्यवादी क्रांति समाजवाद के आदर्शों से प्रेरित थी. वही समाजवाद जिसका सपना तत्कालीन पराधीन भारत में गांधी और नेहरू देखा करते थे.
ऐसे अस्तित्व में आया USSR
बोल्शेविक पार्टी के नेता लेनिन साम्यवादी रूस का निर्माण तो कर रहे थे लेकिन यहां भी हितों का टकराव था. 1917 में रूस में जारशाही खत्म तो हो गई. लेकिन राज्य में अस्थिरता जारी रही. 1918 से 1922 तक रूस सिविल वॉर की चपेट में रहा. 1918 में बोल्शेविक पार्टी ने अपना नाम बदलकर Russian Communist Party (Bolsheviks) रख लिया. रूस में जो राजनीतिक सिस्टम विकसित हो रहा था इसके केंद्र में यही पार्टी थी. यहां किसी दूसरे राजनीतिक दल या विपक्ष के लिए जगह नहीं था.
क्रांति के बाद शासन करने के लिए सिस्टम की तलाश कर रहे रूस में गृह युद्ध हो गया. राज्य में केंद्रीयकृत सत्ता थी नहीं, क्रांति में शामिल गुट ज्यादा से ज्यादा ताकत चाहते थे. लिहाजा वो आपस में लड़ बैठे. रूस में रेड बनाम व्हाइट की लड़ाई हुई. रेड बोल्शेविक थे जबकि व्हाइट वो थे जो बोल्शेविकों का विरोध कर रहे थे. आखिरकार 1922 में लेनिन की लाल सेना ने रशियन कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) के नेतृ्त्व में इन विद्रोहों को कुचल दिया. दूरदर्शी लेनिन ने यूक्रेन, बेलारूस और कॉकस क्षेत्र के दूर दराज के राज्यों का विलय रूस में करवाया और 30 दिसंबर 1922 को USSR (Union of Soviet Socialist Republics) की स्थापना की. इस सोवियत संघ में 15 गणतांत्रिक राज्य थे. ये देश थे रूस, जॉर्जिया, यूक्रेन, मोल्दोवा, बेलारूस, आर्मीनिया, अजरबैजान, कजाकिस्तान, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किरगिजस्तान, ताजिकिस्तान, एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया.
जब तक USSR वजूद में रहा ये दुनिया का सबसे बड़ा देश था. इसकी चौहद्दी बाल्टिक और काला सागर से लेकर प्रशांत महासागर तक फैली थी. इसकी सीमाओं में 100 से ज्यादा राष्ट्रीयता के लोग रहते थे. लेकिन इसके नागरिकों में पूर्व स्लाव (रशियन, बेलारूशियन, और यूक्रेनियन) की संख्या 80 फीसदी थी. USSR भारत से सात गुना ज्यादा बड़ा था. अगर पूर्व से पश्चिम USSR की दूरी मापें तो ये दूरी 10,900 किलोमीटर थी. USSR में भले ही 15 राज्य शामिल थे, लेकिन देश के प्रशासन और अर्थव्यवस्था पर मास्को के नेतृत्व में केन्द्रीय सरकार का कड़ा नियंत्रण रहा. लिहाजा इन 15 गणराज्यों का व्यापक पैमाने पर रूसीकरण हुआ.
सर्वहारा की तानाशाही बना संविधान का आधार
लेनिन अपने नए देश को अपने साम्यवादी सपने के अनुसार सजाने-संवारने लगे. 1921 में वे रूस में नई आर्थिक नीति को लेकर आए. लेनिन ने बाजार आधारित अर्थव्यवस्था को अपने देश में कुछ हद तक प्रवेश दिया. 1924 में सोवियत रूस ने नए संविधान को अंगीकार किया जो Dictatorship of the proletariat यानी कि सर्वहारा की तानाशाही पर आधारित था. इसका अर्थ यह था कि सोवियत रूस में सर्वहारा वर्ग के हित सर्वोपरि हैं. USSR में निजी मिल्कियत की व्यवस्था खत्म हो गई. सब कुछ सरकार का था. यानी सब कुछ सबका था. राज्य के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग वस्तुओं के वृहद उत्पादन में शामिल हो गया. सोवियत रूस कार से लेकर पिन तक खुद बनाने लगा. राज्य ने सभी नागरिकों के लिए एक न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित कर दिया. इस तरह रूस गिरता-संभलता आगे बढ़ ही रहा था कि 21 जनवरी 1924 को लेनिन दुनिया छोड़ गए.
स्टालिन का उदय
लेनिन की मृत्यु के बाद रूस की सत्ता संभाली जोसेफ स्टालिन ने. जार की तानाशाही से अलग होकर सोवियत संघ ने वैसी व्यवस्था की राह पकड़ी थी जहां कहने के लिए तो बराबरी का बोलबाला होना था, लेकिन USSR में आखिरकार स्थापना तानाशाही की हुई. इसका सबसे प्रमुख तानाशाह स्टालिन था. स्टालिन की पैदाइश जॉर्जिया में बेहद गरीब परिवार में 18 दिसंबर 1879 को हुई थी. बालक स्टालिन कमजोर था. पिता मोची थे और मां कपड़े धोती थी. जब स्टालिन सात साल का था तो उसे चेचक हुआ इससे उसका चेहरा खराब हो गया. स्टालिन की मां उससे धार्मिक किताबें पढ़ने को कहती, पादरी बनने के लिए प्रेरित करती, लेकिन स्टालिन तो चुपके-चुपके मार्क्स की किताबें पढ़ता.
युवा होते होते स्टालिन ने रूस की कम्युनिस्ट पार्टी में अपनी जगह बना ली. लेनिन उस पर भरोसा करते. लेनिन की मृत्यु के बाद उन्होंने खुद को उनका वारिस के तौर पर पेश किया और सत्ता संभाल ली. स्टालिन ने एक संसद बनाई जिसे सुप्रीम सोवियत कहा जाता था. भले ही ये एक संसद था लेकिन सारे फैसले कम्युनिस्ट पार्टी करती थी. इस पार्टी में भी केंद्रीकरण होने लगा था. सारे फैसले पार्टी की एक छोटी सी समिति करती थी, जिसे पोलित ब्यूरो कहा जाता था.
स्टालिन ने अपने तरीके से देश चलाना शुरू किया और फिर शुरू हुआ उसके द्वारा प्रायोजित नृशंस हत्याओं का दौर. इस तानाशाह ने राष्ट्रवादी मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार शुरू कर दिया. बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण हुआ. किसानों से जमीनें ले ली गई, जमीनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और सामूहिक कृषि की व्यवस्था शुरू हुई. जिसने भी विरोध किया सरकार के हाथों मारा गया. फैक्ट्रियों को टारगेट दिया गया जो पूरा नहीं करता उसे देश का दुश्मन कहकर जेल भेज दिया जाता. रूस ने तेल, स्टील, कोयले का उत्पादन कई गुना बढ़ाया लेकिन राज्य में घोर अशांति छा गई. स्टालिन ने 1928 में पंचवर्षीय योजनाओं का सिस्टम अपनाया और लंबी अवधि के विकास कार्य शुरू किए. आजादी के बाद भारत ने भी इसी सिस्टम को अपनाया.
क्रूरता में हिटलर से आगे निकला स्टालिन
तानाशाह स्टालिन की क्रूरता की कहानियां रूह कंपा देने वाली हैं. उसने लाखों लोगों को मरवा दिया. लाखों लोग अकाल से मर गए. लेकिन स्टालिन रूसी राष्ट्रवाद की दुहाई देकर अपनी नीतियों पर अमल करता रहा. जिस बदलाव और क्रांति का सुनहरा स्वपन लोगों ने देखा वो स्टालिन के बनाए गुलग में दम तोड़ रहे थे. साम्यवादी नीतियों का विरोध करना महापाप था. ऐसे लोग को गुलग में जिंदगी गुजारनी पड़ती थी. गुलग स्टालिन के समकालीन हिलटर के यातना शिविरों (Concentration camp) जैसा ही था. यहां स्लाटिन के विरोधियों से दिन रात काम कराया जाता और फिर वे एक दिन दम तोड़ देते. स्टालिन की नीतियों का विरोध करने वाले 30 लाख लोगों को प्रचंड ठंड वाले साइबेरिया के गुलग में रहने के लिए भेज दिया गया था. कई इतिहासकार कहते हैं कि इस तानाशाह ने विरोधियों से नफरत करने में हिटलर को भी मात दे दिया था.
इकोनॉमी, साइंस, मिलिट्री पावर, स्पेस, स्पोर्ट्स में मची आगे निकलने की होड़
हालांकि स्टालिन ने अपने नेतृत्व में दूसरे विश्व युद्ध में रूस को जीत दिलाकर प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग भी तैयार कर लिया था. 1953 में स्टालिन की मौत हो गई. स्टालिन की मौत के बाद USSR कमोबेश स्टालिन की नीतियों पर ही चला. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही 1945 में कोल्ड वॉर शुरू हो चुका था और USSR की नीतियां अमेरिका के जिओ-पॉलिटिकल कैलकुलेशन पर बनती थीं. दोनों देशों के बीच इकोनॉमी, साइंस, मिलिट्री पावर, स्पेस, स्पोर्ट्स में आगे निकलने की होड़ मची थी. पूरी दुनिया दो धुव्रों में बंट गई थी. हालांकि भारत की आजादी के बाद के सालों में पीएम नेहरू ने युगोस्लाविया के नेता जोसिप टीटो और मिस्र के नेता अब्दुल गमाल नासिर के साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन की पहल की थी लेकिन थर्ड वर्ल्ड के इन देशों की अपनी सीमाएं थी.
स्टालिन के बाद क्रमश: निकिता ख्रुश्चेव (1953-1964), लियोनिद ब्रेझनेव (1964-1982), यूरी आंद्रोपोव (1982-1984) और कोंटास्टिन शेरेंको ( Konstantin Chernenko 1984-1985) USSR के राष्ट्रपति बने. भारत के पीएम जवाहरलाल नेहरू के समाजवादी झुकाव की वजह से इनके साथ भारत के रिश्ते बेहद मधुर रहे. USSR ने 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान भारत को मदद देकर अमेरिकी धौंस और दादागिरी की धज्जियां उड़ा दी.
सोवियत रूस की बंद खिड़की खोलने आए मिखाइल गोर्बाचेव
20वीं सदी दुनिया में बेतहाशा बर्बादी लेकर आई. दो विश्व युद्ध हुए. साम्राज्यवादी ब्रिटेन का अंत हो गया. दुनिया के नक्शे पर कई छोटे-बड़े और मंझोले नए देशों का उदय हुआ. इसी काल खंड में 1985 में मिखाइल गोर्बाचेव USSR के राष्ट्रपति बने. 1931 में जन्मे गोर्बाचेव को बीसवीं सदी की तबाही का भान था. वो USSR के लिए बदलावों का एक ताजा झोंका लेकर आए जो सोवियत रूस की बंद खिड़की खोल इस विशाल देश को लोकतंत्र, शासन के नवीन मूल्यों और निजी स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर ले जाना चाहते थे. गोर्बाचेव को पूर्ववर्ती राष्ट्रपति से विरासत में मिली थी एक चौपट अर्थव्यवस्था और लुंज-पुंज राजनीतिक ढांचा.
बदलावों की आड़ में अपनी ही कब्र खोद रहे थे गोर्बाचेव
मिखाइल गोर्बाचेव ने देखा कि पश्चिमी दुनिया में सूचना और प्रोद्योगिकी क्रांति हो रही है. इसकी बराबरी के लिए सोवियत रूस में भी आमूल-चूल बदलाव जरूरी हो गया था. गोर्बाचेव ने आर्थिक-राजनीतिक सुधारों की प्रक्रिया शुरू की. वे देश को लोकतंत्र की राह पर ले जाने लगे. लेकिन आने वाले हलचल से दूर मिखाइल गोर्बाचेव शायद ये नहीं समझ पा रहे थे कि दरअसल इन बदलावों के रूप में अपनी ही कब्र खोद रहे थे.
पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त ने क्या किया?
मिखाइल गोर्बाचेव इस परिवर्तन के लिए जो दो नीतियां लेकर आए वो उसकी व्याख्या राजनीतिक शास्त्र के विद्यार्थी आज भी करते है. गोर्बाचेव पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त नाम की दो नीतियां लेकर आए. पेरेस्त्रोइका का अर्थ था कि लोगों को काम-काज करने की आजादी मिलने वाली थी, जबकि ग्लासनोस्त का अर्थ था कि राजानीतिक और सामाजिक व्यवस्था में खुलापन आएगा. लोगों को सरकार की आलोचना करने की आजादी होगी. स्टालिन का दमन देख चुके रूसियों के लिए ये हैरान करने वाला फैसला था. लोग अपनी राय देने लगे, सरकार की आलोचना करने लगे. उन्हें अब गुलग का भय नहीं सताता था. जॉर्ज ऑरवेल की किताब से प्रतिबंध हटा लिया गया. राजनीतिक कैदी रिहा हुए. अखबारों में सरकार की आलोचना छपने लगी.
धीरे-धीरे लोग मुखर हुए. अपनी जरूरतों के मुताबिक खरीदारी करने लगे. लोग प्राइवेट बिजनेस करने लगे. संपत्ति की भावना जनता में आई. बाजार पर सरकार का नियंत्रण कम हुआ. चीजों की कीमतें बढ़ने लगी. गोर्बाचेव ने व्यवस्था में ढील देकर लोगों के बीच उम्मीदों और अपेक्षाओं का ऐसा उफान खड़ा कर दिया जिसे कंट्रोल कर पाना नामुमकिन होता चला गया.
क्यों बिखरा USSR?
शीत युद्ध में शामिल होकर USSR ने बेतहाशा खर्चे किए. मूछों की लड़ाई में उसे अंतरिक्ष में सबसे पहले यान भेजना था, दुनिया का सबसे पहला अंतरिक्ष यात्री भी रूसी ही था. उसके पास सबसे ज्यादा परमाणु हथियार थे. अमेरिका से इस टक्कर में इस देश ने अरबों-खरबों रूबल खर्च कर दिए. सोवियत रूस का खजाना कुबेर का भंडार तो था नहीं, धीरे-धीरे माली हालत खस्ता होती चली गई. 1980 के दशक में सोवियत संघ की GDP अमेरिका से आधी रह गई.
सोवियत रूस में भले ही क्रांति आम जनता के लिए हुई लेकिन यहां तानाशाही पनप गई. मात्र कुछ लोग पूरे देश का किस्मत लिख रहे थे. तानाशाही ने रूस की ब्यूरोक्रेसी को जहन्नुम के स्तर तक पहुंचा दिया था. आम जनता त्रस्त थी. बिना रिश्वत दिए कोई काम नहीं हो रहा था. लेकिन उसकी सुनने वाला कोई नहीं था. यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि इस गरीब जनता के पास अपनी सरकार को बदलने का कोई विकल्प नहीं था. इस नारकीय हालत को वो अपनी नियति मान बैठा था लेकिन अंदर ही अंदर वो सुलग रहा था. गोर्बाचेव के खुलेपन की नीति ने इस नफरत से भरे इस चिंगारी को ईंधन दे दी. सोवियत रूस की इकोनॉमी मॉर्क्स के मॉडल पर आधारित थी. रशियन सिस्टम में लोगों की न्यूनत्तम जरूरतें ही पूरी हो पा रही थी. इसके अलावा शिक्षा के प्रसार ने लोगों का नजरिया बदला, लोग दुनिया के बारे में जागरुक हुए. USSR में सोशल ग्रुप तैयार होने लगा जो सरकार की नीतियों का विरोध करता और खुलेपन की पैरवी करता था. गोर्बाचेव की नीतियों ने इसी आकांक्षा को आवाज दी थी, उनका विचार था कि नई पौध देश में कुछ नया करेगी, विदेशी निवेश आएगा, देश का खजाना भरेगा. लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी का ये महासचिव अपने ही देश के नागरिकों का मिजाज पढ़ने में हिमालयी भूल कर चूका था. गोर्बाचेव को लेकर जनमत बंटने लगा. बहुत कम लोग उनके साथ अब खड़े थे.
बाल्टिक, यूक्रेन और जॉर्जिया में राष्ट्रवादी और संप्रभुता की भावना का उभार
मॉस्को और रूसी गणराज्य से निकली असंतोष की ये चिंगारी सीमांत राज्यों की ओर फैलने लगी. बाल्टिक गणराज्यों (एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया) में राष्ट्रवादी भावनाओं का उभार हुआ. यहां युवाओं ने आजादी की मांग करनी शुरू कर दी. इन्होंने सबसे पहले अलग देश की मांग की. ये राज्य खुद को यूरोपियन संस्कृति के नजदीक मानते थे. इसके अलावा सेकेंड वर्ल्ड वॉर से पहले ये देश स्वतंत्र थे. इन्होंने कहा कि USSR का कब्जा गैरवाजिब है और हमें आजाद किया जाए.
यही वह समय था जब यूक्रेन और जॉर्जिया में भी नेशनलिस्ट आंदोलन शुरू हो गए. ये इलाके समृद्ध थे इन्हें लगता था कि मध्य एशियाई गणराज्यों जैसे तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान जैसे गरीब राज्यों को USSR में शामिल कर उनका बोझ इन राज्यों पर डाल दिया गया है. इसके अलावा मध्य एशियाई रिपब्लिक में इस्लाम का बोलबाला था जबकि रूस के पूर्वी प्रदेश में स्थित इन राज्यों में आर्थोडॉक्स क्रिश्चयन चर्च का प्रभाव था. इसलिए भी ये देश अपना स्वतंत्र वजूद चाहते थे.
1989 की क्रांति- पूंजीवाद की ताकत के आगे साम्यवाद घुटने टेक रहा था
USSR के विघटन में तत्कालीन विश्व की परिस्थितियों का अहम योगदान था. 1989 में सोवियत रूस के पड़ोसी पोलैंड, रोमानिया और बुल्गारिया में कम्युनिस्ट सरकारें थीं. ये देश USSR का हिस्सा नहीं होते हुए भी सोवियत के प्रभाव क्षेत्र में आते थे. इन देशों को USSR का क्लाइंट स्टेट कहा जाता था. ये अपने निर्देश मॉस्को से लेती थी. देखते ही देखते यहां की जनता भी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने लगी. दरअसल इसके पीछे बहुत बड़ा खेल अमेरिका का भी था. जो CIA के जरिए इन राज्यों में सरकार विरोधी प्रदर्शनों को हवा दे रहा था. इन प्रदर्शनों का शॉक वेव्स ऐसा रहा कि ये क्रांतियां पूर्वी जर्मनी, हंगरी और चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया में फैल गई. इन सभी देशों में कम्युनिस्ट सरकारें थीं. दुनिया शीत युद्ध के अंत का सिग्नल दे रही थी. पूंजीवाद की ताकत के आगे साम्यवाद घुटने टेक रहा था. क्रांतियों के इस लहर को Fall of Communism के नाम से जाना जाता है. रोमानिया को छोड़कर 1991 आते आते इन सभी देशों में कम्युनिस्ट सरकारों का पतन हो गया.
अमेरिकी राष्ट्रपित रोनाल्ड रीगन की अगुवाई में अमेरिकी पूंजीवाद की हुंकार दुनिया भर में सुनाई पड़ रही थी. इस शोर की गूंज मिखाइल गोर्बाचेव के कानों में भी पड़ी. उन्हें ये आभास हो रहा था कि शायद वे USSR के आखिरी राष्ट्रपति होंगे. इस दौरान गोर्बाचेव चाहते तो इन देशों में अपनी आर्मी भेज सकते थे, जैसा कि हाल के दिनों में पुतिन करते आए हैं, लेकिन USSR के कार्ड्स को संभालने में जुटे गोर्बाचेव ने ऐसा नहीं किया.
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जब गिरी बर्लिन की दीवार
दरअसल USSR का बिखराव किसी एक घटना की परिणति नहीं थी. ये तो USSR के अंदर और दुनिया के कई मंचों पर घटे घटनाओं का सामूहिक उदगार थी. ऐसी ही एक घटना थी बर्लिन की दीवार का गिरना. जर्मनी को दो हिस्सों में बांटने वाली 1961 में बनी बर्लिन की दीवार को गिरा दिया गया.
पूर्वी जर्मनी कम्युनिस्ट रूस के प्रभाव में था, जबकि पश्चिमी जर्मनी पर अमेरिका का दबदबा था. 1989 अक्टूबर में जब पूर्वी जर्मनी में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हुए तो इस दीवार को गिरा दिया गया. इस दीवार का गिरना शीत युद्ध के अंत और सोवियत रूस की बिखरती शक्ति का प्रतीक साबित हुआ.
25 लाख लोगों की 600 KM लंबी मानव श्रृंखला
इन घटनाओं के बाद बाल्टिक गणराज्यों (एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया) में आजादी की मांग और तेज हो गई. 23 अगस्त 1989 को इन तीनों देशों के 25 लाख लोगों ने 600 KM लंबी मानव श्रृंखला बनाकर आजादी की अपनी मांग को दुनिया के कोने कोने तक पहुंचा दिया. इस क्रांति को Singing revolution कहते हैं. आखिरकार 6 सितंबर 1991 को ये तीनों देश स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र हो गए. USSR के गौरव पर छोटे मुल्कों की स्वतंत्रता की चाहत का प्रचंड हथौड़ा पड़ चुका था.
यूक्रेन ने भी USSR से राहें जुदा की
धीरे-धीरे प्रदर्शन अजरबैजान, जॉर्जिया और अर्मेनिया, माल्डोवा, यूक्रेन में भी फैलने लगा. सबकी एक ही इच्छा थी सोवियत रूस से अलग अस्तित्व. भले ही हर जगह आंदोलन के तात्कालिक कारण अलग थे. 21 जनवरी 1990 को 3 लाख यूक्रेनियन ने राजधानी कीव से लीव तक एक मानव श्रृंखला बनाई और स्वाधीनता को लेकर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी. 24 अगस्त 1991 को यूक्रेन ने आधिकारिक रूप से स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया. यूक्रेन में 1 दिसंबर 1991 को जनमत संग्रह हुआ. लोगों को USSR से अलग होने पर अपनी राय देनी थी. 90 फीसदी लोगों स्वतंत्र यूक्रेन के पक्ष में जनादेश दिया. यूक्रेन के नेता Kravchuk को राष्ट्रपति चुन लिया गया. इस देश को मॉस्को से फिर ऑफर आया लेकिन यूक्रेन नए भविष्य की ओर चल चुका था.
गोर्बाचेव का तख्ता पलटने की कोशिश
USSR में ये सब चल ही रहा था कि गोर्बाचेव अपनी ही पार्टी में अलोकप्रिय हो रहे थे. कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को गोर्बोचोब अब नहीं सुहा रहे थे. वे USSR का पुराना रुतबा बरकरार रखना चाहते थे. अगस्त 1991 में मिखाइल गोर्बाचेव क्रीमिया की यात्रा पर गए थे, यहां अपनी पार्टी के नेताओं और सोवियत रूसी सैन्य कमांडरों द्वारा उन्हें नजरबंद करने की कोशिश हुई, इनका इरादा USSR में तख्तापलट का था. लेकिन तब तक इस कहानी में एक और किरदार की एंट्री हुई ये शख्स थे. रूसी गणराज्य के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन. उन्होंने इस तख्तापलट को असंवैधानिक बताया और ऐसा करने वालों को गद्दार कहा. तख्तापलट फेल हो गया और कई कम्युनिस्ट नेता गिरफ्तार कर लिए गए. तख्तापलट करने वाले नेताओं ने मॉस्को में सड़कों पर टैंक उतार दिया, लेकिन सेना अब फायर करने को तैयार नहीं थी. लोग टैंकों पर चढ़ गए. फूलों का हार पहना दिया. इस उथल-पुथल के बीच 22 अगस्त को गोर्बाचेव क्रीमिया से लौटे.
USSR की अस्थिरता ने इस संघ में शामिल राज्यों की आजादी की भावना को और बल दिया. 25 अगस्त को बेलारूस ने अपनी आजादी घोषित कर दी. 27 अगस्त को नंबर माल्डोवा का था. माल्डोवा ने आजादी की घोषणा के बाद संघ से अलग होने की प्रक्रिया शुरू कर दी. जॉर्जिया, अर्मेनिया, कजाकिस्तान, किर्गीस्तान भी अपनी राहें चुनने को स्वतंत्र थे. लगभग 70 साल तक अमेरिका से रेस लड़ाने वाला USSR अब इतिहास बनने के कगार पर था. 8 दिसंबर 1991 को रूस, यूक्रेन और बेलारूस के बीच एक समझौता हुआ. इसे Belavezha accord कहा जाता है. इन तीनों देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किया और तीनों अलग हो गए. इस पर रूस की ओर से राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने हस्ताक्षर किया था. अब बारी मिखाइल गोर्बाचेव की थी. उन्होंने 21 दिसंबर को USSR से आजाद हुए सभी देशों के राष्ट्रपतियों को बुलाया और Alma Ata declaration पर हस्ताक्षर किया. इसके साथ ही सभी देशों को औपरचारिक स्वतंत्रता मिल गई.
जब 25 दिसंबर 1991 को क्रिसमस की शाम आखिरी बार बजा USSR का राष्ट्रगान
तारीख 25 दिसंबर 1991. मॉस्को शहर क्रिसमस मना रहा था, लेकिन मॉस्को की फिजाओं से जश्न की धुन गायब थी. कुछ इस घड़ी को मनहूस बता रहे थे तो कुछ एक नए अध्याय की शुरुआत. स्थानीय समयानुसार रात के 7.35 मिनट हुए. गोर्बाचेब नेशनल टेलिविजन पर आए. क्रेमलिन से सोवियत ध्वज को उतारा गया यही वो मौका था जब सोवियत संघ के राष्ट्रीय गान की धुनें आखिरी बार बजाई गईं. शाम 7.45 बजे क्रेमलिन पर रूसी झंडा फहराया गया. अपने विदाई भाषण में गोर्बाचेव ने अपने राष्ट्रपति के रूप में अपने रिकॉर्ड का बचाव किया. उन्होंने कहा, "The old system collapsed before a new one had time to start working." जब USSR का विघटन हुआ तब रूस के मौजूदा राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन 39 साल के थे. वे तब केजीबी में एक जासूस थे. उन्हें क्रेमलिन से सोवियत ध्वज का उतरना अच्छा नहीं लगा था.
पुतिन के मन की वो बात जो पलटना चाहती है दुनिया का इतिहास!
जिस पुतिन के हर फैसले पर आज दुनिया की नजरें टिकी हैं, उस व्यक्ति को 1991 में अपनी जिंदगी चलाने के लिए कैब ड्राइवर बनना पड़ा था. USSR विभाजन के बाद पैदा हुई अराजकता में पुतिन की जिंदगी बुरी तरह से प्रभावित हुई थी. पुतिन ने एक डॉक्यूमेंट्री में बेचारगी के उन दिनों का याद किया था. उन्होंने कहा था, "कई बार मुझे ज्यादा पैसा कमाना होता था. मेरा मतलब है कि एक कैब ड्राइवर के रूप में मुझे टैक्सी चलानी पड़ती थी. हालांकि इसके बारे में बात करना सुखद नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा था."
रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि यह सोवियत संघ के नाम पर 'ऐतिहासिक रूस' का विघटन था. हम एक पूरी तरह से अलग देश में बदल गए और 1,000 वर्षों में हमारे पूर्वजों ने जो बनाया था वह बिखर गया.