पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बीते एक साल से गंभीर कर्ज संकट के दौर से गुजर रही है. इस कर्ज संकट से उसे बाहर निकालने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) पाकिस्तान सरकार को निशुल्क आर्थिक सलाह के साथ-साथ एक बड़े बेलआउट पैकेज का प्रावधान कर सकती है. लेकिन प्रधानमंत्री इमरान खान अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए क्रिकेट की 20-20 रणनीति का सहारा लेते हुए सउदी अरब, यूएई और चीन जैसे मित्र देशों से बड़ा कर्ज लेकर कर्ज संकट को टालने की तैयारी कर चुके हैं.
प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने पहले रियाद दौरे पर इमरान खान 6 बिलियन डॉलर लेकर आए और अब सऊदी अरब के प्रिंस सलमान ने पाकिस्तान को अतिरिक्त 20 बिलियन डॉलर की रकम बतौर कर्ज देने का ऐलान किया है. इसके अलावा यूएई सरकार से इमरान खान गोपनीय कर्ज ले चुके हैं और कर्ज की इस रकम का खुलासा नहीं किया जा रहा है. इसके अलावा पाकिस्तान सरकार अपने कर्ज संकट से निकलने के लिए चीन सरकार से भी कुछ नए कर्ज की उम्मीद लगाए बैठी है.
क्या सऊदी अरब से पाकिस्तान को निवेश के नाम पर मिल रहा नया कर्ज उसे आर्थिक संकट से बाहर निकालेगा या फिर यह कर्ज पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को ऐसे गर्त में ढकेलेगा जिससे निकलना उसके लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाएगा? गौरतलब है कि यह पहला मौका नहीं है जब सऊदी अरब की मदद पाकिस्तान के भविष्य को अंधकार में ढकेलने जा रहा है.
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शीत युद्ध के दौरान अफगानिस्तान में रूस के प्रभाव को सीमित करने के लिए भी सऊदी अरब ने अमेरिका की शह पर पाकिस्तान को बड़ी आर्थिक मदद पहुंचाई. यह मदद भी पाकिस्तान को आर्थिक निवेश के तौर पर मिली और नतीजा बीते चार दशक से पाकिस्तान की अवाम भुगत रही है. इस निवेश ने पाकिस्तान में आतंक की पहली फैक्ट्री स्थापित की और इस फैक्ट्री के पहले सीईओ जनरल जिया-उल-हक थे. लिहाजा, क्या एक बार फिर पाकिस्तान ने सऊदी अरब का रुख आतंक की इस फैक्ट्री को मल्टीनेशनल कॉरपोरेशन में तब्दील करने के लिए किया है और अब इस एमएनसी के पहले सीएफओ इमरान खान बनेंगे?
गौरतलब है कि सऊदी अरब का कर्ज किसी देश को मुफ्त नहीं मिलता. इसका सबसे बड़ा गवाह खुद पाकिस्तान है. ग्लोबल रेटिंग एजेंसी मूडीज एक साल से अधिक समय से पाकिस्तान को कर्ज संकट में फंसने से बचने की चेतावनी दे रहा है. मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस के मुताबिक पाकिस्तान के सामने चुनौतियों में उच्च सरकारी ऋण बोझ, कमजोर भौतिक व सामाजिक बुनियादी ढांचा, कमजोर बाह्य भुगतान स्थिति और उच्च राजनीतिक जोखिम शामिल है.
पाकिस्तान सरकार पर लगभग 78.46 बिलियन डॉलर का बाह्य कर्ज है. यह कर्ज पाकिस्तान की जीडीपी का 28.3 फीसदी है. वहीं दिसंबर 2018 तक पाकिस्तान पर कुल बाह्य कर्ज 99 बिलियन डॉलर का है जो कि उसकी जीडीपी का 35.8 फीसदी है. इस कर्ज को और खतरनाक पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार बना रहा है क्योंकि उसके पास विदेशी मुद्रा में महज 8.2 बिलियन डॉलर की रकम है. इसके अलावा मौजूदा वित्त वर्ष में पाकिस्तान सरकार का चालू खाता घाटा भी लगभग 8 बिलियन डॉलर के स्तर पर है. इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान कर्ज के किस टाइम बम पर बैठा हुआ है.
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इस आर्थिक स्थिति के बीच पाकिस्तान सरकार के सामने चाइना पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) का नया संकट खड़ा है. चीन के साथ हुए समझौते के मुताबिक 2020 से पाकिस्तान सरकार को प्रोजेक्ट में अपने हिस्से का निवेश करना है और चीन से लिए गए कर्ज का ब्याज भी अदा करना है. विकट कर्ज संकट को देखते हुए इमरान खान बीजिंग का दौरा कर चुके हैं. जाहिर है चीन से कर्ज में किसी राहत के एवज में पाकिस्तान को इस कॉरिडोर में चीन के अधिकारों में इजाफा करने का एकमात्र विकल्प है.
गौरतलब है कि ईरान का पड़ोसी होने के चलते सऊदी अरब के लिए पाकिस्तान बेहद महत्वपूर्ण है. पाकिस्तान को सऊदी अरब से वित्तीय मदद की शुरुआत 1980 में हुई. इस वित्तीय मदद का रास्ता साफ करने में कुछ कारणों का अहम योगदान रहा है. पहला, 1977 में प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो का तख्तापलट करते हुए जनरल जिया उल हक का सत्ता पर काबिज होना. इसके बाद 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति और उसी साल अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का कब्जा होने के चलते पाकिस्तान का महत्व साउदी अरब के साथ-साथ अमेरिका के लिए भी बेहद अहम हो गया.
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शीत युद्ध के इस दौर में जहां अमेरिका पाकिस्तान को आर्थिक मदद देकर अफगानिस्तान में सोवियत संघ के प्रभाव को खत्म करना चाहता था वहीं इस्लामिक जगत में अपने कट्टर प्रतिद्वंदी ईरान को शिकस्त देने के लिए सउदी अरब ने पाकिस्तान को आर्थिक मदद का रास्ता साफ किया. अमेरिकी शह पर सऊदी अरब के निवेश से पाकिस्तान में आतंक की पहली फैक्ट्री की नींव रखी गई और इस फैक्ट्री से निकल रहे आतंकवाद का इस्तेमाल अमेरिका ने सोवियत संघ तो सऊदी अरब ने ईरान के खिलाफ किया.
मौजूदा समय में एक बार सऊदी अरब और अमेरिका के निशाने पर ईरान है. जहां अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की ईरान से संधि की कवायद को दरकिनार करते हुए उसे न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी से दूर रखने का फैसला लिया है. वहीं सऊदी अरब इस्लामिक जगत में ईरान के प्रभाव को सीमित करने के लिए खुद अमेरिका से न्यूक्लियर टेक्नोल़ॉजी की उम्मीद लगा रहा है. ऐसे में एक बार फिर पाकिस्तान का महत्व दोनों देशों के लिए अहम है.
अब देखना यह है कि कर्ज संकट से पाकिस्तान को बाहर निकालने के नाम पर क्या इमरान खान आतंक की मल्टीनेशनल कंपनी के सीईओ की भूमिका अदा करेंगे. क्या सउदी अरब से मिलने वाला यह कर्ज पूर्व की तरह ही अपने साथ अमेरिकी और सउदी हितों को साधने का जरिया बनेगा. ऐसा हुआ तो कर्ज संकट से लड़ाई की आड़ में पाकिस्तान में आतंक का नया अध्याय जुड़ेगा और इससे उबरना उसके लिए नामुमकिन होगा.