युद्ध दुनिया के किसी भी कोने में हो. नियम सार्वभौमिक है कि एक होता है हमलावर तो दूसरा पीड़ित. अब रूस और यूक्रेन के युद्ध में हमलावर कौन है और पीड़ित कौन? यह समझाने की कतई जरूरत नहीं है. अपने मुल्क के अस्तित्व की जंग लड़ रहे यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मिलने व्हाइट हाउस पहुंचे. तो उस दौरान जो कुछ हुआ, उसे पूरी दुनिया ने देखा और समझा. शांतिदूत होने का दावा कर सत्ता में आए ट्रंप जिस तरीके से युद्ध सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं, उससे एक नया वर्ल्ड ऑर्डर जाने-अनजाने में तैयार हो रहा है. एक तरफ खड़े हैं- अमेरिका, रूस, बेलारूस, ईरान और उत्तर कोरिया तो दूसरी तरफ यूक्रेन के साथ कमोबेश पूरा यूरोप.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है, जब लगभग 75 साल पुराना वर्ल्ड ऑर्डर बदलता दिख रहा है. दूसरे विश्वयुद्ध की त्रासदी के बाद संयुक्त राष्ट्र अस्तित्व में आया और अमेरिका वैश्विक व्यवस्था का सिपहसालार बन गया. लेकिन ट्रंप वर्ल्ड ऑर्डर को बदलना क्यों चाहते हैं? ब्रिटेन की सीक्रेट इंटेलिजेंस सर्विस MI6 के पूर्व प्रमुख एलेक्स यंगर इसकी वजह बताते हुए कहते हैं कि हम ऐसे मोड़ पर पहुंच गए हैं जहां अंतरराष्ट्रीय संबंध नियमों से नहीं आंके जाएंगे. दुनिया अब डिप्लोमेसी और विदेश नीति के नए युग में प्रवेश कर रही है. अब ताकतवर मुल्क और उनके हिसाब से बनाई गई रणनीतियों का बोलबाला है. डोनाल्ड ट्रंप यही सोचते हैं, व्लादिमीर पुतिन भी और शी जिनपिंग भी.
ट्रंप को यूरोप से दिक्कत क्या है?
ट्रंप के बारे में ये जान लेना जरूरी है कि वह कारोबारी पहले हैं और राष्ट्रपति बाद में. America First और Make America Great Again की पॉलिसी लेकर दूसरी बार अमेरिकी सत्ता पर काबिज हुए ट्रंप का मुख्य एजेंडा ट्रेड और टैरिफ है. ट्रंप यूरोप से खफा है क्योंकि उनका मानना है कि यूरोप को अमेरिका से फायदा हो रहा है लेकिन अमेरिका को यूरोप से कोई खास लाभ नहीं मिल रहा.
ट्रंप कई बार सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि युद्ध के नाम पर यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की ने अमेरिका से 350 अरब डॉलर हड़प लिए हैं लेकिन यूरोप ने सामूहिक तौर पर भी अब तक 100 अरब डॉलर ही यूक्रेन की जेब में डाले हैं. ट्रंप का कहना है कि यूरोप कारोबार के मामले में Disaster है. वह अमेरिका के कृषि उत्पादों को उचित दामों पर खरीद नहीं रहा है. लेकिन 2023 की एक रिपोर्ट पर नजर डालें तो पता चलेगा कि इस साल यूरोपीय संघ (ईयू) ने अमेरिका से 12.3 अरब डॉलर के कृषि उत्पाद खरीदे हैं. लेकिन इसके बावजूद ट्रंप ने EU पर 25 फीसदी टैरिफ लगाने का मन बना लिया है.
एक्सपर्ट्स की मानें तो ट्रंप दो तरीके से फॉरेन पॉलिसी पर आगे बढ़ रहे हैं. पहला- वह बाइडेन प्रशासन के हर उस फैसले से बैकआउट कर रहे हैं, जो एक तरह से पिछली सरकार की उपलब्धि रही है. ऐसा करके ट्रंप एक तरह की बाइडेन सरकार की नाकामी दर्शाना चाहते हैं. दूसरा- ट्रंप अमेरिका फर्स्ट के अपने ड्रीम प्रोजेक्ट को ध्यान में रखकर नए साथी बना रहे हैं. वह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बने नियमों ओर गठबंधनों को लगातार तोड़ रहे हैं. 1945 के बाद बने वर्ल्ड ऑर्डर के नियमों को धता बताकर वह बाजार को अहमियत दे रहे हैं और हर फैसले ट्रेड की नजर से ले रहे हैं.
रूस-यूक्रेन युद्ध ने यूरोप के साथ बदले अमेरिका के समीकरण
डोनाल्ड ट्रंप को Tit for Tat की नीति में विश्वास करने वाला और जरूरत पड़ने पर पलटवार करने वाला शासक माना जाता है. उनकी ख्वाहिश है कि उन्हें शांतिदूत या पीसमेकर के तौर पर देखा जाए. वह शुरुआत से ही कहते आए हैं कि अगर वो बाइडेन की जगह राष्ट्रपति होते तो रूस और यूक्रेन का युद्ध शुरू ही नहीं होता. दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद उन्होंने दो टूक कह दिया कि उनका इरादा इस युद्ध को जल्द से जल्द रोकने का है.
लेकिन समस्या ये है कि इस युद्ध में जहां पहले हमें अमेरिका, रूस के खिलाफ यूक्रेन के पाले में खड़ा नजर आता था. अब सत्ता पलटने पर वही अमेरिका पाला बदलकर रूस के साथ खड़ा हो गया है. रूस के पाले में खड़े होने की शुरुआत सऊदी अरब की मीटिंग से हुई. युद्ध के बीच शांति लाने के इरादे से सऊदी अरब में एक अहम मीटिंग बुलाई गई, जिसमें रूस को बातचीत की मेज पर बुलाया गया लेकिन यूक्रेन इससे नदारद रहा. जिस देश में युद्ध खत्म कर शांति लाने की जोर आजमाईश की जा रही है. उसी देश को इस वार्ता से दूर रखा गया.
अमेरिका किस कदर इस युद्ध में रूस के साथ खड़ा है. संयुक्त राष्ट्र में उसके रुख ने साफ कर दिया है. यूक्रेन के खिलाफ युद्ध शुरू करने के लिए निंदास्वरूप लाए गए संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर अमेरिका ने रूस का साथ दिया. बेलारूस और उत्तर कोरिया जैसे देश भी इसमें शामिल हुए लेकिन चीन ने वोटिंग से ही दूरी बना ली.
मौजूदा परिस्थितियों में ट्रंप की यूक्रेन से दूरी और रूस से नजदीकियों का मूल कारण पैसा है. ट्रंप का मानना है कि इस युद्ध की वजह से यूक्रेन अरबों डॉलर अमेरिका से ले चुका है. अन्य यूरोपीय देशों के मुकाबले अमेरिका यूक्रेन के युद्ध पर सबसे ज्यादा खर्च कर रहा है और बदले में अमेरिका को उससे कुछ हासिल भी नहीं हो रहा. ऐसे में ट्रंप इस युद्ध को किसी भी कीमत पर रोकना चाहते हैं- फिर चाहे डरा-धमकाकर या फिर दबाव बनाकर.
क्या पुतिन खुलकर देंगे अमेरिका का साथ?
NATO को लेकर भी ट्रंप का यही मलाल है. अमेरिकी राष्ट्रपति का मानना है कि नाटो अलायंस में अधिकतर फंडिंग अमेरिका करता है जबकि यूरोपीय देश हमारा मुंह ताकते हैं. वह यूरोप से कई बार फंडिंग बढ़ाने को बोल भी चुके हैं. ऐसे में ट्रंप को लग रहा है कि पुराने वर्ल्ड ऑर्डर से अमेरिका को फायदे से अधिक नुकसान हो रहा है. ऐसे में गाहे-बगाहे वो अमेरिका को उस खेमे के नजदीक लेकर जा रहे हैं जो पारंपरिक तौर पर अमेरिका के मित्र राष्ट्र नहीं माने जाते. कमोबेश, यही स्थिति उन देशों में भी है, जो अमेरिका के करीबी रहे हैं लेकिन अब इन देशों में ट्रंप को लेकर अविश्वास पैदा हो रहा है.
इस साल रूस में ब्रिक्स समिट होने जा रहा है. राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दो टूक कह दिया है कि वो इस साल के ब्रिक्स समिट के जरिए एक नया वर्ल्ड ऑर्डर तैयार करेंगे, जो सीधे तौर पर पश्चिमी देशों को चुनौती देगा. ऐसे में कयास लगने लगे हैं कि रूस एक नया धड़ा बनाने की कोशिश में हैं जो यूरोप को काउंटर करने का काम करेगा.
अमेरिका के पड़ोसियों से तल्ख रिश्ते
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि आप मित्र तो बदल सकते हो लेकिन पड़ोसी नहीं बदल सकते. इस बात का निचोड़ यही है कि पड़ोसियों के साथ रिश्तों को मधुर बनाए रखना जरूरी है. लेकिन ट्रंप ने सत्ता में आते ही ठीक इसका उलटा किया.
ट्रंप के सत्ता में आने के बाद पड़ोसी मुल्कों कनाडा और मेक्सिको से भी उनके संबंध रसातल पर चले गए हैं. ट्रंप की विस्तारवादी महत्वाकांक्षा ने अमेरिका को उनके पड़ोसियों से दूर कर दिया है. कनाडा को अमेरिका का 51वां स्टेट बनाने की ट्रंप की इच्छा और गल्फ ऑफ मेक्सिको का नाम बदलकर गल्फ ऑफ अमेरिका किए जाने के बाद स्थिति और बदतर हुई है. ये देश खुलकर यूरोप के साथ हो गए हैं और अमेरिकी नीतियों में बदलाव के लिए बेचैन हैं.
क्या अमेरिका के खिलाफ खुल गया है Europe Front?
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की की व्हाइट हाउस में ट्रंप और जेडी वेंस के साथ जिस तरह की तीखी बहस हुई. उसके बाद यूरोप के देश खुलकर यूक्रेन के समर्थन में आ गए हैं. अमेरिका से सीधे ब्रिटेन पहुंचे जेलेंस्की का प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर ने बांहें फैलाकर स्वागत किया.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री स्टार्मर से मिलने के लिए जैसे ही जेलेंस्की अपनी कार से उतरकर उनकी तरफ बढ़े. स्टार्मर ने खुद से आगे बढ़कर उन्हें गले से लगा लिया. स्टार्मर ने कैमरों की तरफ इशारा करते हुए जेलेंस्की से कहा कि देखिए- कितने लोग आपको देखकर खुश हैं. हम आपके साथ हैं.
ब्रिटिश पीएम स्टार्मर ने खुलकर कहा कि हमला करने वाले की पीठ थपथापकर शांति की बात करना बेमानी है. उन्होंने यूक्रेन के समर्थन में यूरोपीय संघ की इमरजेंसी मीटिंग बुलाई, जहां कई यूरोपीय देशों के राष्ट्रप्रमुख से लेक ईयू के नेता तक पहुंचे और सभी ने एक सुर में यूक्रेन की पीठ थपथपाई.
फ्रांस के पूर्व प्रधानमंत्री डोमिनिक डी विलेपिन ने कहा कि ट्रंप ने यूक्रेन को उसके हाल पर छोड़ दिया है और वह चाहते हैं कि ईयू कमजोर हो जाए तभी वह चीन और रूस के साथ मिलकर मजबूत फ्रंट बना सकेंगे. ट्रंप का मानना है कि उनकी विदेश नीति अमेरिका को शक्तिशाली बनाएगी. लेकिन यूरोप की राय इससे अलग हैं. कई यूरोपीय नेताओं ने कहा कि ट्रंप की ये नीतियां अमेरिका को ही कमजोर कर सकती हैं.
पोलैंड के प्रधानमंत्री डोनाल्ड टस्क तो साफ-साफ कह चुके हैं कि पचास करोड़ यूरोपीय 30 करोड़ अमेरिकी नागरिकों से गुहार लगा रहे हैं कि 14 करोड़ रूसियों से हमारी रक्षा करो. यह इसलिए क्योंकि हमें अपने ऊपर भरोसा नहीं है. तो क्या ऐसे में नए लीडर की जरूरत है?
यूरोपीय संघ के उपाध्यक्ष काजा कलास कुछ अरसे पहले इसका जवाब दे चुके हैं कि दुनिया को अब नए नेता की जरूरत है. हम यूक्रेन युद्ध के नाम पर अमेरिका से अपने संबंधों को कम करने की कोशिशों में आगे बढ़ेगा.
अब सवाल ये उठता है कि अगर यूक्रेन को लेकर यूरोप खुलकर अमेरिका के खिलाफ हो जाएगा. तो ऐसे में उसकी अगुवाई कौन करेगा? ब्रिटेन के प्रधानमंत्री स्टार्मर या फिर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की हाजिरजवाबी उनके लिए फायदेमंद साबित हो सकती है. लेकिन फिलहाल ऐसा कोई चेहरा दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है जो यूरोप को साथ लेकर चलने का माद्दा रखता हो. इसकी अपनी वजहें हैं, मसलन- यूरोप का हर देश अपनी आंतरिक और बाहरी चुनौतियों से जूझ रहा है. ऐसे में अमेरिका, रूस और चीन जैसे सुपरपावर्स को चुनौती देना किसी के लिए भी आसान नहीं होगा.