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क्या ईरान के खिलाफ है खाड़ी के सुन्नी मुस्लिम देशों की ये गोलबंदी

कतर से करीब साढ़े तीन साल से चले आ रहे विवाद को खत्म करते हुए सऊदी अरब और उसके सहयोगी देशों ने उस पर लगे प्रतिबंधों को खत्म कर दिया है. हालांकि, कहा जा रहा है कि ये गोलबंदी ईरान के खिलाफ ही है.

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ईरान के राष्ट्रपति हसन रोहानी (फोटो-रॉयटर्स)
ईरान के राष्ट्रपति हसन रोहानी (फोटो-रॉयटर्स)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • सऊदी अरब ने कतर पर लगाई पाबंदी हटाई
  • जीसीसी समिट से पहले एकजुट हुए सुन्नी खाड़ी देश
  • ईरान के खिलाफ मानी जा रही है ये गोलबंदी

तीन साल से भी ज्यादा वक्त के बाद सऊदी अरब ने अपनी जिद छोड़ते हुए कतर के खिलाफ सारी पाबंदियों को खत्म कर दिया. कतर को सऊदी अरब ने 2017 में जमीन, आकाश और समंदर तीनों मार्गों से बंद कर दिया था. इसमें सऊदी अरब को यूएई, मिस्र और बहरीन का भी साथ मिला था. पिछले तीन सालों में कतर को इन पाबंदियों की वजह से खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ा लेकिन वो झुका नहीं. सऊदी अरब ने पाबंदी हटाने के लिए कई शर्तें रखी थीं लेकिन कतर ने एक भी शर्त को स्वीकार नहीं किया था. 

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अब अचानक गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल समिट (जीसीसी) से पहले कतर को लेकर सऊदी अरब के रुख में बदलाव आया. पहले सऊदी के किंग सलमान ने कतर के शासक तमीम बिन हमाद को इस समिट में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया और ठीक उसके बाद कुवैत के विदेश मंत्री ने घोषणा की कि कतर से सारी पाबंदियां हटा ली गई हैं.

कतर के शासक को सऊदी क्राउन प्रिंस ने लगाया गले

जीसीसी समिट में शरीक होने मंगलवार को जब कतर के शासक तमीम बिन हमाद सऊदी अरब के उत्तर-पश्चिमी शहर अल-उला पहुंचे तो उनके स्वागत में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान खड़े थे. जहाज से उतरते ही उन्होंने हमाद को गले लगा लिया. लोगों को भरोसा नहीं हुआ कि ये वही क्राउन प्रिंस हैं जो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके दामाद जैरड कशनर के दबाव के सामने भी कतर के मामले झुकने को तैयार नहीं थे.
 
तमीम अल हमाद भी इस स्वागत को देख फूले नहीं समाए. उन्होंने ट्वीट कर कहा, ''जीसीसी समिट पूरे इलाके के लिए निर्णायक पल है. इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को देखते हुए मैं इस समिट में आया हूं. यह समिट अपने भाइयों के साथ सभी मतभेदों को खत्म करने और इलाके के बेहतर भविष्य के लिए अहम है. सऊदी अरब के लोगों ने जिस तरह से मेरा स्वागत किया, उसके लिए मैं शुक्रगुजार हूं. पूरे घटनाक्रम में कुवैत की अहम भूमिका रही है. इसके लिए मैं उसे भी धन्यवाद देता हूं.''

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जीसीसी का एजेंडा

जीसीसी में छह इस्लामिक देश हैं. इसमें सुन्नी मुस्लिम बहुल खाड़ी देश सऊदी अरब, यूएई, कतर, बहरीन, कुवैत और ओमान शामिल हैं. खाड़ी के देशों के बीच सहयोग बढ़ाना इसका शुरुआती एजेंडा था. लेकिन साल 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति, अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का हमला और 1980 में ईरान और इराक के बीच युद्ध के बाद इस गुट का एजेंडा पूरी तरह से बदल गया.

खाड़ी देशों में असुरक्षा की भावना बढ़ गई थी. जीसीसी के पहले चार्टर में पूरा जोर खाड़ी देशों के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध मजबूत करने पर था लेकिन 1984 के चार्टर में जीसीसी के सदस्य देशों ने संयुक्त सुरक्षा बल (पेनिनसुला शील्ड) बनाया. हालांकि, इसके बावजूद जीसीसी के सदस्य देश अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर ही पूरी तरह निर्भर रहे. 

जीसीसी के छह सदस्य सऊदी अरब, यूएई, बहरीन, कुवैत, ओमान और कतर सभी समृद्ध और तेल भंडार वाले देश हैं. साल 2002 में इन देशों ने मिलकर एक कस्टम यूनियन की स्थापना भी की थी. जीसीसी के सदस्य देश एक मुद्रा लाने को लेकर भी प्रयास करते रहे हैं लेकिन इसे लेकर अभी तक सहमति नहीं बन सकी है. 

जब सऊदी अरब ने कतर पर पाबंदी लगाई तो उसने ईरान और तुर्की से करीबी बढ़ाई. ईरान और तुर्की से सऊदी अरब की दुश्मनी पुरानी है. कतर पाबंदी से झुकने के बजाय उस खेमे में चला गया जो सऊदी अरब के खिलाफ है.

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ईरान शिया मुस्लिम बहुल देश है और इस्लामिक दुनिया में अपनी हैसियत सऊदी अरब की छाया से बिल्कुल अलग रखता है. ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद जो भी सत्ता आई, वो पश्चिम के देशों से टकराती रही. ईरान की इस्लामिक क्रांति से सऊदी अरब का शाही परिवार डरता रहा कि कहीं वहां भी सत्ता के खिलाफ कोई विद्रोह ना हो जाए. ऐसे में वो हर कीमत पर ईरान विरोधी पश्चिमी खेमे में रहा. 

इजरायल से सऊदी और उसके सहयोगी देशों की नजदीकी

ईरान को लेकर सऊदी और उसके सहयोगी देश इतने आक्रामक रहे कि इजरायल से राजनयिक रिश्ते बहाल करने लगे. यह काम 2020 के आखिर में सबसे पहले यूएई ने किया. उसके बाद बहरीन और सूडान ने भी इजरायल के साथ रिश्ते कायम कर लिए.

इससे पहले इजरायल को लेकर इन देशों का रुख बिल्कुल उलट रहता था. यहां तक कि सऊदी अरब ने भी इजरायल को कई तरह की छूट दी. इजरायल अब सऊदी के हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करता है. दरसअल, सऊदी अरब को लगता है कि ईरान को चुनौती देना है तो इजरायल के साथ होना होगा. जीसीसी की बैठक से पहले कतर से पाबंदी हटाने को ईरान के खिलाफ गोलबंदी के तौर पर ही देखा जा रहा है. 

अमेरिका की कोशिशें लाईं रंग

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इस संबंध में पाकिस्तानी अखबार डॉन ने अपनी संपादकीय में लिखा है कि कतर के खिलाफ पाबंदी हटाने का फैसला अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके दामाद जरेड कशनर के दबाव में हुआ है. दरअसल, ट्रंप ने सत्ता से विदा होने से पहले मध्य-पूर्व में कई आक्रामक नीतियां अपनाईं और सऊदी अरब ने उसे स्वीकार भी किया. 

इजरायल के साथ राजनयिक रिश्ते बहाल कराने में भी ट्रंप और उनके दामाद की ही अहम भूमिका मानी जाती है. ट्रंप के दामाद जरेड कशनर और सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान अच्छे दोस्त बताए जाते हैं. जब जीसीसी समिट में सऊदी क्राउन प्रिंस अपना भाषण दे रहे थे तो उस वक्त भी ट्रंप के दामाद जरेड कशनर मौजूद थे. 

कतर में मध्य-पूर्व में अमेरिका का सबसे बड़ा सैन्य ठिकाना है. ट्रंप प्रशासन की चिंता ये थी कि अमेरिका के सहयोगी देशों की आपसी लड़ाई की वजह से ईरान के खिलाफ गुट खड़ा करने की उसकी कोशिशें कमजोर पड़ सकती हैं. ट्रंप चाहते थे कि इन देशों के बीच विवाद सुलझा कर वो एक और उपलब्धि अपने नाम कर लें. ट्रंप के दबाव ने भी सऊदी अरब और कतर की तकरार खत्म कराने में अहम भूमिका अदा की.

ईरान के खिलाफ है ये गोलबंदी?

डॉन ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा है, ''जीसीसी में कतर को लेकर सकारात्मक पहल की गई है लेकिन फिर भी कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब मिलने बाकी हैं. अगर ये खाड़ी देशों की एकजुटता के खातिर किया गया है तो स्वागत योग्य है. लेकिन अगर ये गठबंधन ईरान के खिलाफ मजबूत किया जा रहा है तो फिर ये चिंता की बात है.

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डॉन ने संपादकीय टिप्पणी में कहा, "सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस ने एक बयान में कहा कि ईरान की साजिशों को नाकाम करने के लिए ये एकता जरूरी हो गई थी. ये बात ध्यान रखने लायक है कि कतर को लेकर सऊदी अरब की सबसे बड़ी शिकायत यही थी कि वो ईरान और तुर्की के करीब जा रहा था. दोनों ही देश सऊदी अरब के प्रतिद्वंद्वी हैं."

वहीं, तुर्की के प्रमुख समाचार एजेंसी एनाडोलु ने भी सऊदी अरब के कतर की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने को लेकर एक विश्लेषण छापा है. इस आर्टिकल में कहा गया है, इस सुलह के पीछे कई वजहें हो सकती हैं. कुवैत ने इस संकट को टालने के लिए लगातार कोशिशें कीं. दूसरी तरफ, कतर का लंबे वक्त तक हार ना मानना और व्हाइट हाउस छोड़ने से पहले एक अहम उपलब्धि अपने नाम करने के लिए लालायित ट्रंप का दबाव भी सुलह के पीछे अहम वजह रही. 

सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस की महत्वाकांक्षाएं

तुर्की के विदेश मामलों के जानकार अल-सोफारी ने कहा है, "सऊदी अरब के कतर के साथ सुलह करने के पीछे अपने मकसद हैं. सऊदी अरब इलाके में नए संबंध स्थापित करने में लगा हुआ है क्योंकि क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान जल्द सऊदी अरब के किंग बनने वाले हैं. बिन सलमान का गल्फ समिट की अध्यक्षता करना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है."

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 कतर के राजनीतिक विश्लेषक जबेर अल-हरामी का कहना है कि इलाके की कई चुनौतियों और खतरों ने खाड़ी देशों को ये कदम उठाने पर मजबूर कर दिया. यमन, इराक और सीरिया में पहले ही सऊदी अरब चुनौतियों से घिरा हुआ है, ईरान के साथ दुश्मनी है ही और सऊदी अरब की गिरती अर्थव्यवस्था ने कतर के साथ मतभेद को खत्म करने के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति पैदा कर दी.

आपसी टकराव का खामियाजा

पिछले तीन सालों में सऊदी अरब और कतर दोनों को ही तेल-गैस की कीमतों में गिरावट की वजह से भारी नुकसान झेलना पड़ा है. कोरोना महामारी की वजह से दोनों देशों का आर्थिक संकट और गंभीर हो गया. पिछले साढ़े तीन सालों में दोनों देशों ने इस संकट की भारी कीमत चुकाई और तब जाकर उन्हें एहसास हुआ कि विवाद खत्म करने में ही सबकी भलाई है. 

5 जून 2017 को, सऊदी अरब, यूएई, बहरीन और मिस्त्र ने कतर पर प्रतिबंध लगा दिए थे. चारों देशों ने कतर पर प्रतिबंध लगाते हुए कहा था कि वो आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है और ईरान से करीबी बढ़ा रहा है. कतर ने लगातार इन आरोपों को खारिज किया था और अपने पड़ोसियों पर अपनी संप्रभुता पर हमला करने का आरोप लगाया था.

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