
इतिहास शायद ही किसी मुल्क की किस्मत में इतने अजीबो-गरीब तरीके से वक्त के पन्ने पलटता हो, जितना अफगानिस्तान (Afghanistan) की पहाड़ी-पथरीली जमीन ने देखी है. कभी रूस के समर्थन से चल रहे जहीर शाह के शासन में आधुनिकता की ओर बढ़ रहा अफगानिस्तान 1990 के दशक में तालिबान (Taliban) के मध्ययुगीन शासन को भी देख चुका है. इसके बाद 9/11 के हमले के बाद अमेरिकी और नाटो देशों की सेनाओं ने तालिबान के शासन से मुक्ति दिलाई तो बीस साल में अपने पैरों पर खड़ा होना मुल्क सीख ही रहा था कि तालिबान ने फिर सिर उठा लिया. फिर वही शरिया कानून, कोड़े मारने की सजा, सड़कों पर कत्लेआम और दाढ़ी बढ़ाने, संगीत सुनने, महिलाओं पर पाबंदियों जैसे मध्ययुगीन फरमानों का दौर लौट आया है. देश के अधिकांश हिस्सों पर फिर तालिबान का कब्जा है और लोग खौफ से फिर घर-बार छोड़कर पड़ोसी मुल्कों में भागने को मजबूर हैं.
2001 में अमेरिका (America) ने 9/11 हमले के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन की तलाश में अफगानिस्तान में एंट्री की थी और तालिबान की सत्ता को खत्म किया था. बाइडेन प्रशासन के आने के बाद अमेरिकी सैनिकों ने अफगानिस्तान को छोड़ने का फैसला किया. इसी के साथ तालिबान के हमले तेज हो गए और आज मुल्क के 85 फीसदी इलाकों में तालिबान अपना कब्जा होने का दावा कर रहा है. पाकिस्तान (Pakistan) और ईरान से लगती सीमा के इलाकों पर अब तालिबान का कब्जा है और कंधार पर कब्जे की जंग तेज है. कई इलाकों में तालिबान ने सुरक्षा चौकियों को अपने कब्जे में ले लिया है और कई इलाकों में टैक्स तक वसूलना शुरू कर दिया है. इन इलाकों से घर-बार छोड़कर जाते लोगों की तस्वीरें आज अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बनी हुई हैं. दुनिया जानना चाहती है कि आखिर ये तालिबान कौन लोग हैं और इनका इतना खौफ क्यों है?
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क्या है तालिबान? क्या है इसकी ताकत
तालिबान का उभार अफगानिस्तान से रूसी सैनिकों की वापसी के बाद 1990 के दशक की शुरुआत में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ था. पश्तो भाषा में तालिबान का मतलब होता है छात्र खासकर ऐसे छात्र जो कट्टर इस्लामी धार्मिक शिक्षा से प्रेरित हों. कहा जाता है कि कट्टर सुन्नी इस्लामी विद्वानों ने धार्मिक संस्थाओं के सहयोग से पाकिस्तान में इनकी बुनियाद खड़ी की थी. तालिबान पर देववंदी विचारधारा का पूरा प्रभाव है. तालिबान को खड़ा करने के पीछे सऊदी अरब से आ रही आर्थिक मदद को जिम्मेदार माना गया. शुरुआती तौर पर तालिबान ने ऐलान किया कि इस्लामी इलाकों से विदेशी शासन खत्म करना, वहां शरिया कानून और इस्लामी राज्य स्थापित करना उनका मकसद है. शुरू-शुरू में सामंतों के अत्याचार, अधिकारियों के करप्शन से आजीज जनता ने तालिबान में मसीहा देखा और कई इलाकों में कबाइली लोगों ने इनका स्वागत किया लेकिन बाद में कट्टरता ने तालिबान की ये लोकप्रियता भी खत्म कर दी लेकिन तब तक तालिबान इतना पावरफुल हो चुका था कि उससे निजात पाने की लोगों की उम्मीद खत्म हो गई.
शुरुआती दौर में अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव खत्म करने के लिए तालिबान के पीछे अमेरिकी समर्थन भी माना गया लेकिन 9/11 के हमले ने अमेरिका को कट्टर विचारधारा की आंच महसूस कराई और वो खुद इसके खिलाफ जंग में उतर गया. लेकिन काबुल-कंधार जैसे बड़े शहरों के बाद पहाड़ी और कबाइली इलाकों से तालिबान को खत्म करने में अमेरिकी और मित्र देशों की सेनाओं को पिछले 20 साल में भी सफलता नहीं मिली. खासकर पाकिस्तान से सटे इलाकों में तालिबान को पाकिस्तानी समर्थन ने जिंदा रखा और आज अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबान फिर से सर उठाकर खौफ का नाम बनकर उभरा है.
कौन है तालिबान का नेता?
पहले मुल्ला उमर और फिर 2016 में मुल्ला मुख्तर मंसूर की अमेरिकी ड्रोन हमले में मौत के बाद से मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंजादा तालिबान का चीफ है. वह तालिबान के राजनीतिक, धार्मिक और सैन्य मामलों का सुप्रीम कमांडर है. हिब्तुल्लाह अखुंजादा कंधार में एक मदरसा चलाता था और तालिबान की जंगी कार्रवाईयों के हक में फतवे जारी करता था. 2001 से पहले अफगानिस्तान में कायम तालिबान की हुकूमत के दौरान वह अदालतों का प्रमुख भी रहा था. उसके दौर में तालिबान ने राजनीतिक समाधान के लिए दोहा से लेकर कई विदेशी लोकेशंस पर वार्ता में भी हिस्सा लेना शुरू किया.
20 साल बाद कैसे मजबूत हो गया तालिबान?
साल 2001 से शुरू हुई अमेरिकी और मित्र सेनाओं की कार्रवाई में पहले तालिबान सिर्फ पहाड़ी इलाकों तक ढकेल दिया गया लेकिन 2012 में नाटो बेस पर हमले के बाद से फिर तालिबान का उभार शुरू हुआ. 2015 में तालिबान ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कुंडूज के इलाके पर कब्जा कर फिर से वापसी के संकेत दे दिए. ये ऐसा वक्त था जब अमेरिका में सेनाओं की वापसी की मांग जोर पकड़ रही थी. अफगानिस्तान से अमेरिका की रूचि कम होती गई और तालिबान मजबूत होता गया. इसी के साथ पाकिस्तानी आतंकी संगठनों, पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की खुफिया मदद से पाक सीमा से सटे इलाकों में तालिबान ने अपना बेस मजबूत किया. अमेरिका से लौटने की अपनी कोशिशों के तहत 2020 में अमेरिका ने तालिबान से शांति वार्ता शुरू की और दोहा में कई राउंड की बातचीत भी हुई. एक तरफ तालिबान ने सीधे वार्ता का रास्ता पकड़ा तो दूसरी ओर बड़े शहरों और सैन्य बेस पर हमले की बजाय छोटे-छोटे इलाकों पर कब्जे की रणनीति पर काम करना शुरू किया. और आज इसका नतीजा सबके सामने है.
किन इलाकों पर कब्जा जमा चुका है तालिबान?
अप्रैल 2021 में अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने सितंबर तक अमेरिकी सैनिकों की पूरी तरह से वापसी का ऐलान कर दिया तो तालिबान को मैदान साफ लगा और हमले तेज कर दिए. अफगानिस्तान के सैनिक पीछे हटते गए और तालिबान का कब्जा बढ़ता गया. आज तालिबान का दावा है कि अफगानिस्तान के 85 फीसदी हिस्सों पर उसका कब्जा है. काबुल के बाद अफगानिस्तान के दूसरे सबसे बड़े शहर कंधार के कई चेक पोस्ट पर तालिबान कब्जा जमा चुका है. शहर पर कब्जे की लड़ाई तेज है. पाकिस्तान से सटे इलाकों में सभी चेकपोस्ट तालिबान के कब्जे में हैं. ताजिकिस्तान बॉर्डर पर तो तालिबान के हमले के बीच अफगान सैनिकों को भागकर ताजिकिस्तान में शरण तक लेना पड़ा.
अफगानिस्तान के आम लोगों में फिर वही खौफ!
20 साल बाद प्रभाव में लौटे तालिबान को लेकर लोगों में खौफ क्यों है ये जानने के लिए 23 साल पीछे चलना होगा. 1998 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर देश पर शासन शुरू किया तो कई फरमान जारी किए. पूरे देश में शरिया कानून लागू कर दिया गया और न मानने वालों को सरेआम सजा देना शुरू किया. हत्या और यौन अपराधों से जुड़े मामलों में आरोपियों की सड़क पर हत्या की जाने लगी. चोरी करने के आरोप में पकड़े गए लोगों के शरीर के अंग काटना, लोगों को कोड़े मारने जैसे नजारे सड़कों पर आम हो गए.
मर्दों को लंबी दाढी रखना और महिलाओं को बुर्का पहनने और पूरा शरीर ढंक कर निकलना अनिवार्य कर दिया गया. घरों की खिड़कियों के शीशे काले रंग से रंगवा दिए गए. टीवी, संगीत और सिनेमा बैन कर दिए गए. 10 साल से अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी गई. बामियान में बुद्ध की ऐतिहासिक मूर्ति को तोड़कर तालिबान ने धार्मिक कट्टरता भी दुनिया को दिखाई. तालिबान के इस शासन को मान्यता देने वाले तीन देश थे- पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई.
अफगान और तालिबान की सैन्य ताकत कितनी?
तालिबान की ताकत कितनी है कि वह अफगानिस्तान की सेना पर भारी पड़ रहा? अफगानिस्तान के फर्स्ट वाइस प्रेसिडेंट कहते हैं- 'तालिबान का जल्द खात्मा होगा. उनके पास 80 हजार के करीब लड़ाके हैं और अफगानिस्तान की सेना के पास 5 से 6 लाख के बीच सैनिक. इसके अलावा अफगानिस्तान के पास वायु सेना है जो तालिबान पर भारी पड़ेगी.' हालांकि, इस दावे के बावजूद कई ऐसे फैक्ट हैं जो जमीनी स्तर पर तालिबान को मजबूत साबित कर रहे हैं. तालिबान का मैनपावर सोर्स कबाइली इलाकों में बसे कबीले और उनके लड़ाके हैं. इसके अलावा कट्टर धार्मिक संस्थाएं, मदरसे भी उनके विचार को सपोर्ट कर रहे हैं. लेकिन इन सबसे ज्यादा पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की सीक्रेट मदद तालिबान के लिए मददगार साबित हो रही है. अमेरिकी खुफिया आकलन भी जमीनी हालात को साफ करते हैं जिसमें कहा गया है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के 6 महीने के भीतर अफगानिस्तान सरकार का प्रभुत्व खत्म हो जाएगा और तालिबान का शासन आ सकता है.
अमेरिका, रूस, चीन, पाकिस्तान और भारत की क्या भूमिका?
अफगानिस्तान को लेकर अंतरराष्ट्रीय रूख भी असमंजस वाला है. अमेरिका और मित्र देशों की सेनाएं वापस लौट चुकी हैं और ये देश अब केवल अफगान समस्या के राजनीतिक हल पर बयानबाजी कर रहे हैं. रूस तालिबान को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं है. अमेरिकी प्रभुत्व खत्म करने के लिए तालिबान के उभार से जहां रूस खुश है वहीं पड़ोस के ताजिकिस्तान-उजबेकिस्तान जैसे रूसी प्रभाव वाले देशों के लिए खतरे के रूप में भी वह तालिबान को देख रहा है और जल्द ही इलाके में सैन्य अभ्यास करने की तैयारी में है. पाकिस्तान तालिबान के पीछे है और ऐसे में चीन को भी तालिबान शासन में अफगानिस्तान में प्रभाव बढ़ने की संभावना दिख रही है. भारत की स्थिति ऐसे में काफी संवेदनशील है. भारत पिछले 20 साल में अरबों डॉलर अफगानिस्तान के विकास में निवेश कर चुका है. स्कूल, अस्पताल, बिजली-गैस संयंत्रों समेत कई बड़ी परियोजनाओं पर भारत ने काफी खर्च किया है. तालिबान शासन आने से ये सब खतरे में पड़ जाएगा. अफगानिस्तान भारत से मदद की आस रखे हुए है. लेकिन भारत वर्तमान हालात में वहां सीधे दखल देने का जोखिम नहीं लेगा. ऐसे में अफगानिस्तान के भविष्य और साउथ तथा सेंट्रल एशिया के पूरे इलाके में हालात के मद्देनजर आने वाले महीने काफी अहम होंगे.