गैर-सरकारी संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) हर साल प्रेस इंडेक्स जारी करता है. इसमें बताया जाता है कि अलग-अलग देशों में मीडिया कितना आजाद है, और कितना खुलकर काम कर पाता है. इस साल भी हाल में प्रेस फ्रीडम इंडेक्स निकला, जिसमें भारत को एकदम पीछे रखा गया है. इस बात पर नाराज होते हुए जयशंकर ने कहा कि ये माइंड गेम खेलने जैसा है. जिस देश को आप पसंद नहीं करते, उसकी रैंकिंग पीछे कर दी जाए. वरना अफगानिस्तान जैसे देश के बारे में कौन सोच सकता है कि वहां का मीडिया भी भारत से ज्यादा आजादी से काम करता होगा.
क्या है प्रेस फ्रीडम इंडेक्स?
ये देशों की एनुअल रैंकिंग करता है कि कहां का मीडिया कितना खुलकर काम कर पाता है, या फिर कहां पर वो सरकार द्वारा दबाया जाता है. साल 2002 से रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ये इंडेक्स निकाल रहा है, जो कि मीडिया वॉचडॉग है. पेरिस स्थित ये संस्था दावा करती है कि उसका किसी भी मीडिया कंपनी या देश से कोई नाता नहीं. हालांकि उसके इस दावे को बहुत से देश शक की नजर से देखते रहे.
कहां खड़ा है रैंकिंग में देश?
साल 2002 में जब ये रैंकिंग शुरू हुई, तब भारत 80 नंबर पर था, यानी इस रैंकिंग सिस्टम में माना गया कि हमारे यहां मीडिया को संतोषजनक आजादी मिली हुई है. ये दर्जा एक खास समय तक बना रहा, जिसके बाद से लगातार नीचे जा रहा है. सबसे नीचे नॉर्थ कोरिया है, जिसके बाद वियतनाम और चीन का स्थान है.
इससे पहले भी इस रैंकिंग पर सवाल होते रहे. भारत की बात करें तो कुछ समय पहले नीति आयोग ने पूछा था कि जिन सवालों के आधार पर ये इंडेक्स बनाया जाता है, उन्हें सार्वजनिक क्यों नहीं किया जाता है. साथ ही उन पत्रकारों का भी नाम दिया जाना चाहिए, जो इस सर्वे में हिस्सा लेते हैं ताकि पता लग सके कि वे खुद कितने पारदर्शी रहे हैं.
क्या है प्रेस फ्रीडम इंडेक्स पर विवाद की वजह
इसकी एक वजह ये भी है कि वो विकासशील देशों को हमेशा खराब रैंकिंग देता है. ये आमतौर पर वे देश होते हैं, जहां की मीडिया को सरकार से फंडिंग नहीं मिलती. जबकि विकसित देशों में अक्सर कई बड़े मीडिया संस्थानों को सरकार से सीधी सब्सिडी मिलती है. उदाहरण के तौर पर नॉर्वे और डेनमार्क को इंडेक्स में टॉप पर रखा गया. ये वो देश हैं, जहां मीडिया को सरकार कई सारी आर्थिक रियायत देती है. ऐसे में रैंकिंग कितनी भरोसेमंद है, इसपर सवाल उठना लाजिमी है.
अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस का भी नाम उछला
मजे की बात ये है कि रैंकिंग करने वाली संस्था RSF पर भी फंड लेने और काम करने के आरोप लगते रहे. जैसे मीडिया संस्थान द स्ट्रीट ने आरोप लगाया था कि अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस ने इस संस्था को भर-भरकर पैसे दिए ताकि वो उनकी सोच के मुताबिक काम करने लगे. और कथित तौर पर हुआ भी यही. प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में अमेरिका और कई वेस्टर्न देशों के खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा गया, जिनसे उसे फंडिंग मिल रही थी.
सिंगापुर के पूर्व पीएम ने भी उठाए थे सवाल
भारत के अलावा सिंगापुर ने भी एक बार RSF पर पक्षपातपूर्ण होने का आरोप लगाया था. तब सिंगापुर के पीएम गोह चोक टोंग हुआ करते थे. उन्होंने कहा था कि संस्था वेस्टर्न चश्मे से ही दुनिया को देखती है. इसके बाद से सिंगापुर की रैंकिंग लगातार खराब होती गई. इस बार भी वो 129 वें स्थान पर है.
कहां से आती है संस्था के पास फंडिंग?
फिलहाल RSF का कुल बजट 6 मिलियन यूरो से कुछ ज्यादा है. इसमें से 40 प्रतिशत हिस्सा फ्रेंच सरकार देती है. वहीं 35 प्रतिशत फंड निजी संस्थानों और एनजीओ से आता है. इनमें ज्यादातर अमेरिकी या यूरोपियन एनजीओ हैं. आरोप लगता रहा कि ये एक तरह का रैकेट है, जो किसी एक देश या देशों की इमेज खराब करने का काम करता है. ये ऐसे देश होते हैं, जिनसे अमेरिका या यूरोपियन देशों को किसी न किसी किस्म का खतरा होता है. जैसे क्यूबा, रूस या वेनेजुएला जैसे देशों को हमेशा ही खराब रैंकिंग मिली. ये वही देश हैं, जिनके साथ अमेरिका का तनाव जगजाहिर है.