
जेटली के बजट में सबसे बड़ा सुधार क्या हो सकता है, ज्यादा झंझट में पड़ने की जरुरत नहीं है. बस उन पैराग्राफ को ध्यान से सुनियेगा जहां रेल बजट के आम बजट में विलय का जिक्र हो रहा हो, क्योंकि ताजादम सुधारों की सबसे बड़ी उम्मीद इसी विलय से जुड़ी है.
इस मुगालते में हरगिज मत रहिये कि रेल बजट का आम बजट में विलय अपने आप कोई बड़ा सुधार है. यह दरअसल आखिरी विकल्प था क्यों कि रेलवे का नया निजाम पिछले दो साल में भारत के सबसे बड़े ट्रांसपोर्टर को अपने पैरों पर खड़ा नहीं कर सका, नतीजतन उसे जेटली के कंधे पर बिठा दिया. अलबत्ता, इस विलय से रेलवे में उन कठोर सुधारों की शुरुआत होनी चाहिए कि राजनीति का तर्क देकर टाला जाता रहा है.
बीते बरस सितंबर में जब हमने रेल बजट के आम बजट में विलय को लेकर रेल मंत्री सुरेश प्रभु को टटोलने की कोशिश की थी तो वह झुंझला उठे थे. हम जानना चाहते थे कि इस विलय से रेलवे को क्या हासिल होगा और रेलवे में किस तरह के सुधार प्रारंभ होंगे. लेकिन रेल मंत्री बताना चाहते थे कि दुनिया के किसी देश में रेल बजट अलग नहीं तो भारत में क्यों होना चाहिए? हालांकि बाद के महीनों में भी इस विलय के के बारे में कुछ ठोस सुना नहीं गया और दूसरी तरफ रेल भवन के गलियारों से लेकर लेकर सुदूर इलाकों तक फैले रेल नेटवर्क में इस विलय को लेकर उत्सुकता व रोमांच बढ़ता गया है.
बात सिर्फ इतनी नहीं कि बजट की परंपरा बंद हो रही है बल्कि इसे कहीं आगे जाकर रेलवे के संचालन, वित्तीय पुनर्गठन और स्वायत्तता से जुडे सवाल भी हैं जिनका जवाबों का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है.
रेलवे और वित्त मंत्रालय के रिश्ते पेचीदा हैं:
§ रेलवे कोई कंपनी नहीं है, फिर भी सरकार को लाभांश देती है. रेलवे घाटे में है, इसलिए यह लाभांश नहीं बल्कि बजट से मिलने वाले कर्ज पर ब्याज है.
§ एक हाथ से रेलवे सरकार को ''लाभांश" देती है तो दूसरे हाथ से आम बजट से मदद लेती है. यह मदद रेलवे नेटवर्क के विस्तार और आधुनिकीकरण के लिए है, क्योंकि दैनिक खर्चों, वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने के बाद रेलवे के पास नेटवर्क विस्तार के लिए संसाधन नहीं बचते.
§ रेलवे के तहत कई कंपनियां हैं, जिन्हें अलग से केंद्रीय खजाने से वित्तीय मदद मिलती है.
§ बजट से मदद के अलावा रेलवे को भारी कर्ज लेना पड़ता है, जिसके लिए इंडियन रेलवे फाइनेंस कॉर्पोरेशन है. भारत में रेलवे अकेला सरकारी विभाग है जिसके पास कर्ज उगाहने वाली कंपनी है, जो रेलवे को वैगन-डिब्बा आदि के लिए कर्ज संसाधन देती है.
§ प्रभु के नेतृत्व में रेलवे ने जीवन बीमा निगम से भी कर्ज लिया है, जो खासा महंगा है.
रेलवे की माली हालत का क्या कहना:
· सुरेश प्रभु पिछले साल रेलवे की दो सबसे फायदेमंद सेवाओं को निचोड़ लिया.
· पहले कोयले पर माल भाड़ा बढ़ा. रेलवे का लगभग 50 फीसदी ढुलाई राजस्व कोयले से आता है. फिर प्रीमियम ट्रेनों में सर्ज प्राइसिंग यानी मांग के हिसाब से महंगे किराये बढ़ाये गए
· और इस तरह गहरे वित्तीय संकट में फंसी रेलवे अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता को दांव पर लगा दिया.
· रेलवे लगातार ऐसी कंपनी होती जा रही है जो अपना कारोबार (माल और यात्री) अन्य क्षेत्रों को सौंपना चाहती है ताकि घाटा कम किया जा सके.
रेलवे बजट का आम बजट में विलय उतनी बड़ी बात नहीं है ज्यादा बड़ी खबर तो रेलवे के वह पुनर्गठन कार्यक्रम होंगे जिनका ऐलान (अगर) बजट में होता है, क्योंकि बजटों के विलय का मकसद रेलवे को सरकारी विभाग में बदलना हरगिज नहीं हो सकता.
आइये देखते हैं वह पांच सुधार जिनका ऐलान रेल बजट के आम बजट में विलय के साथ होना जरुरी है -
पहलाः अकाउंटिंग सुधारों के जरिए रेलवे की सामाजिक जिम्मेदारियों को वाणिज्यिक कारोबार से अलग करना और सामाजिक सेवाओं के लिए बजट से पारदर्शी सब्सिडी
दो- सामाजिक सेवाओं को अलग करने के बाद रेलवे की आर्थिक सेवायें बचेंगी। जिसमें लागत के हिसाब माल भाड़ा और किराया बढ़ाने की नीति और स्वतंत्र किराया नियामक का गठन
तीन- रेलवे के अस्पताल और स्कूलों का विनिवेश ताकि ताकि खर्च बच सके और संसाधन मिल सकें.
चार- देबरॉय समिति की सिफारिशों के आधार पर रेलवे के ट्रांसपोर्ट संचालन और बुनियादी ढांचे को अलग कंपनियों में बदला जाए और रेलवे के सार्वजनिक उपक्रमों के लिए एक होल्डिंग कंपनी का गठन
पांच- रेलवे की नई कंपनियों में निजी निवेश या विनिवेश के जरिए शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए जैसा कि दूरसंचार सेवा विभाग को बीएसएनएल में बदल कर किया गया था.
नवंबर में रेल मंत्री के बनने के साथ सुरेश प्रभु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए रेलवे के मनमोहन सिंह बन सकते थे, क्योंकि रेलवे की हालत 1991 से पहले की भारतीय अर्थव्यवस्था जैसी है. 1991 में भारत की अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्धा रहित, वित्तीय संकट से भरपूर, सरकारी एकाधिकार भरी थी जिसमें नई तकनीक और तेज रफ्तार बदलावों का प्रवेश वर्जित था ठीक यही हाल रेलवे का है. सुरेश प्रभु को रेलवे में क्रांतिकारी बदलाव करने थे लेकिन उन्होंने बजट ही वित्त मंत्री को सौंप दिया.
खैर! बीमार, खस्ताहाल, दुर्घटनाग्रस्त रेलवे अब वित्तमंत्री की जिम्मेदारी है जिसमें बैठे लोग बुलेट ट्रेन के सपने भी देखने लगे हैं. बजट में विलय के साथ यदि वित्त मंत्री रेलवे के सुधार का एजेंडा लेकर नहीं आते तो यह माना जाएगा कि बजटों का विलय सिर्फ रेलवे की मुसीबतों को छिपाने के लिए था इसे आधुनिक बनाने के लिए नहीं.
इतिहास का पहिया
बजट के विलय के साथ रेलवे अपने सौ साल पुराने इतिहास की तरफ लौट आएगी, 1880 से पहले लगभग आधा दर्जन निजी कंपनियां रेल सेवा चलाती थीं. ब्रिटिश सरकार ने अगले 40 साल तक इनका अधिग्रहण किया और रेलवे को विशाल सरकारी ट्रांसपोर्टर में बदल दिया. इस पुनर्गठन के बाद 1921 में एकवर्थ समिति की सिफारिश के आधार पर स्वतंत्र रेलवे बजट की परंपरा प्रारंभ हुई, जिसमें रेलवे का वाणिज्यिक स्वरूप बनाए रखने के लिए रेलवे केंद्र सरकार को डिविेडेंड देती है.
बजट मिलन के बाद रेलवे को वापस कंपनीकरण की तरफ लौटना होगा ताकि इसे वाणिज्यिक और सामाजिक रूप से लाभप्रद और सक्षम बनाया जा सके. डिब्बा पहिया, इंजन, कैटरिंग, रिजर्वेशन के लिए अलग-अलग कंपनियां पहले से हैं, सबसे बड़े संचालनों यानी परिवहन और बुनियादी ढांचे के लिए कंपनियों का गठन अगला कदम होना चाहिए.