
नोटबंदी से पहले देश की 86 फीसदी जनसंख्या(2012 के आंकड़े) पूरी तरह से कैश पर निर्भर थी. एक झटके में सरकार ने इतनी बड़ी जनसंख्या को उनके वित्तीय आधार से अलग कर दिया. नोटबंदी पर आम आदमी की राय जानने के लिए कराए गए सी-वोटर सर्वे का दावा है कि 86 फीसदी लोगों ने सरकार के इस कदम का स्वागत किया है.
सर्वे के मुताबिक लोगों का मानना है कि सरकार का यह कदम भले उनके लिए कई कठिनाइयों को लेकर आया है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम उनके हित में है लिहाजा वह इसका समर्थन करते हैं. 8 नवंबर को नोटबंदी लागू होने के बाद से सरकार ने एक-एक कर कैशलेस इकोनॉमी को बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए लेकिन इस दौरान एक बात साफ है कि इस प्रक्रिया में कैश पर चल रही 86 फीसदी जनसंख्या के साथ सिर्फ सौतेला व्यवहार हो रहा है.
अधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक देश में 40 करोड़ लोग पढ़े-लिखे (साक्षर) नहीं हैं. ये सभी ऐसे लोग हैं जिनसे आप किसी तरह के बैंक फॉर्म को भरने की उम्मीद नहीं रख सकते हैं. आप न तो इनसे ये उम्मीद कर सकते हैं कि ये बैंक में खाता खुलवाकर इसे ऑपरेट करें. और न ही ये स्मार्ट फोन, कंप्यूटर जैसे किसी साधन के जरिए रुपये-पैसे के आदान-प्रदान की बारीकियों को समझ सकते हैं.
अब ये सभी लोग कैशलेस की उभरती नई व्यवस्था में नुकसान में रहेंगे. यह ऐसा नुकसान होगा जिसमें इनकी कोई गलती नहीं हैं. इन लोगों के पास यदि किसी तरह का पहचान पत्र नहीं है तो इनकी जिंदगी भर की कमाई या तो डूब जाएगी या फिर मोटे ब्याज पर किसी साहूकार के पास चली जाएगी. यदि इनके पास पहचान पत्र है भी तो बैंक का फॉर्म भरवाने के लिए इन्हें किसी एजेंट को कमीशन देना पड़ेगा. वहीं बैंक में पैसे जमा करने अथवा निकालने के लिए दिनभर लाइन में खड़े होने से इनकी एक दिन की देहाड़ी का जाना तय है.
पीडब्लूसी के आंकड़ों के मुताबिक 2011 तक देश में 55 करोड़ से ज्यादा ऐसे लोग थे जो बैंकिंग व्यवस्था से अछूते थे. वहीं 2013 में 40 करोड़ लोगों के पास बैंक अकाउंट था. जनवरी 2015 तक प्रधानमंत्री जनधन योजना के तहत 12 करोड़ अतिरिक्त लोगों का बैंक खाता खोला गया. लेकिन केन्द्रीय बैंक के अपने आंकड़े कहते हैं कि इनमें से अधिकांश खातों में लेन-देन की कोई प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है.
इन आंकड़ों से एक बात साफ है कि देश में इस बड़े तबके को बैंकिंग के लिए सशक्त नहीं किया जा सका है. लिहाजा, कैशलेस इकोनॉमी की तरफ भागते इस देश में यह तबका पूरी तरह से निहत्था और निराश बैठा है क्योंकि अब सरकार अब कैश के आदान-प्रदान के बारे में कुछ नहीं सोच रही है. इस तबके साथ पूरी तरह से सौतेला व्यवहार हो रहा है और दावा किया जा रहा है कि देश बदल रहा है.