
कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) और नेशनल पेंशन सिस्टम (एनपीएस) ने पहली बार अपने यहां खुले खातों का डाटा सार्वजनिक किया है. कहा जा रहा है कि इससे केंद्र सरकार को रोजगार के मोर्चे पर राहत मिलेगी. दोनों संगठनों में खुले खातों के आधार पर संकेत मिलते हैं कि सितंबर 2017 से फरवरी 2018 के बीच की छमाही में 18 से 25 साल के 31 लाख नए रोजगार सृजित हुए हैं, यानी हर महीने करीब पांच लाख रोजगार. इनमें से 22 लाख रोजगार संगठित क्षेत्र के हैं. संकेत इसलिए, क्योंकि इन आंकड़ों को रोजगार मान लेना सही नहीं होगा.
दूसरी ओर, लेबर ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2017 में महज 4.16 लाख नौकरियों का सृजन हो पाया. वहीं, अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ (ILO) ने हाल ही में अनुमान जाहिर किया है कि 2019 तक भारत में रोजगार की स्थिति दयनीय होगी और 15 से 25 साल के जितने युवाओं को रोजगार मिलेगा, उससे तीन गुना युवा बेरोजगार ही रह जाएंगे. आइए जानते हैं कि रोजगार के आंकड़ों से कैसे खेल रही है सरकार.
ईपीएफओ और एनपीएस के आंकड़ों में कहा गया है कि बीते छह महीनों में ईपीएओ के 18.5 लाख खाते खुले और एनपीएस के 3.5 लाख खाते खुले और दोनों को जोड़कर नए रोजगार के आंकड़ों के तौर पर पेश किया जा रहा है. अगर एक ही नौकरीपेशा शख्स का ईपीएफओ और एनपीएस में खाता हो तो उसके दो खातों के आधार पर दो नौकरियां मान लिए जाने का खतरा है. चूंकि किसी भी कर्मचारी का आयकर उसके संस्थान में ही काटा जाता है और कई संस्थानों में सितंबर से फरवरी के बीच नए वित्तीय वर्ष के निवेश की घोषणा करनी होती है. ऐसे में टैक्स बचाने के लिए इस अवधि में एनपीएस में खाते खोले जाते हैं. इसके अलावा एनपीएस में 18 साल से लेकर 60 साल तक की उम्र का भारत का निवासी या एनआरआई भी खाता खोल सकता है. इसलिए एनपीएस खाते का मतलब नया रोजगार नहीं है.
जानकारी के मुताबिक इन आंकड़ों में एक साल से निष्क्रिय पड़े अकाउंट्स को शामिल नहीं किया गया है. हालांकि, इससे भी पूरी तरह से भरोसेमंद आंकड़े सामने आने की उम्मीद नहीं है. इसकी वजह यह है कि सितंबर से फरवरी के बीच जिन लोगों ने नौकरियां बदली होंगी, उनके पास ईपीएफओ के एक से ज्यादा खाते होंगे. नौकरी छोड़ने के बावजूद ईपीएफओ खाते में रखी रकम पर तीन साल तक अच्छा ब्याज मिलता है. इसकी वजह से तीन साल तक इस पैसे को नहीं निकाला जाता है. ऐसे में रोजगार के पेश किए जा रहे आंकड़ों में दोहराव की गलती होने की पूरी गुंजाइश है. इन आंकड़ों को भरोसेमंद तभी माना जा सकता है जब नौकरी बदलने पर भी ईपीएफओ खाता पुराना वाला ही रहे या यह अनिवार्य तौर पर सुनिश्चित किया जा सके कि देश में एक शख्स का एक ही ईपीएफओ खाता होगा.
भारत में अर्थव्यवस्था और रोजगार का बड़ा हिस्सा (करीब 80 फीसदी) असंगठित क्षेत्र से आता है. दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई जैसे कुछ शहरों को छोड़ दें तो यहां की रिहाइश और रोजगार के तरीके अब भी बड़े शहरों से दूर और असंगठित क्षेत्र में ही हैं. पिछले साल नवंबर में भारतीय अर्थव्यवस्था में नोटबंदी और उसके बाद जीएसटी लागू होने के बाद असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों और उद्यमियों को (अपने कर्मचरियों सहित) संगठित क्षेत्र में आना पड़ा है. इस वजह से अब तक असंगठित क्षेत्र में रहे रोजगार संगठित क्षेत्र में स्थानांतरित रहे हैं और उन्हें रोजगार सृजन की श्रेणी में रखना सही नहीं कहा जा सकता है.
आंकड़ेबाजी के इस खेल में एक सवाल यह भी उठ रहा है कि ईपीएफओ और एनपीएस समेत दूसरी सेवाओं में दर्ज होने वाले आंकड़े जमीनी सच्चाई से कितने दूर हैं. ईपीएफओ में दर्ज होने के लिए किसी संस्थान के पास कम से कम 20 कमर्चारी होने चाहिए. इसके अलावा एक कर्मचारी की सैलरी 15 हजार रुपये महीने से ज्यादा होने पर ही उसे ईपीएफओ सेवा में दर्ज किया जाता है. कई कंपनियां कम अवधि के लिए रोजगार मुहैया कराती हैं यानी तीन महीने या छह महीने के ठेके पर समयबद्ध काम दिया जाता है. ईपीएफओ सेवा में दर्ज हुए इन लोगों को अलग करने के लिए कोई तकनीक नहीं अपनाई गई है. ऐसे में इन सभी को नया रोजगार मान लेना भी आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाला माना जाएगा.
अभी करना होगा इंतजार
इस तरह से कम अवधि के रोजगार और आर्थिक सुधारों के बाद असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में दर्ज होते खातों को भी नए रोजगार के तौर पर पेश किया जा रहा है. इनकी असलियत जानने के लिए फिलहाल कुछ समय इंतजार करना ठीक रहेगा. चूंकि अब एनपीएस और ईपीएफओ के आंकड़े सार्वजनिक क्षेत्र में हैं तो नोटबंदी की अगली कुछ तिमाही या छमाही का विश्लेषण बारी-बारी करना होगा. यही नहीं, नोटबंदी से पहले के रोजगार के आंकड़ों का अध्ययन भी नई चीजें सामने ला सकता है. इन सबके बाद ही भारत में रोजगार की असली सूरत सामने आ सकेगी.
क्या यह सरकार की चाल है
स्टेट बैंट ऑफ इंडिया के ग्रुप चीफ इकोनोमिक एडवाइजर सौम्य कांति घोष और आईआईटी बैंगलोर में प्रोफेसर पुलक घोष ने इस साल बजट आने से पहले भी ईपीएफओ और एनपीएस के आंकड़ों को लेकर 33 पन्नों की एक रिपोर्ट जारी की थी. इसमें 2017-18 में 70 लाख नौकरियां मिलने का अनुमान लगाया गया था. तब तक ईपीएफओ और एनपीएस के आंकड़े पब्लिक डोमेन में नहीं थे और इन दोनों अर्थशास्त्रियों के उसे हासिल करने पर सवाल भी खड़े हुए थे. अब जाकर ये आंकड़े पब्लिक डोमेन में आए हैं. आपको याद दिला दें कि पीएम नरेंद्र मोदी ने 2014 के आम चुनावों से पहले हर साल 1 करोड़ रोजगार देने का वादा किया था, जो बीते चार सालों में से एक बार भी पूरा होता नहीं दिखा है. लीक किए गए आंकड़ों की मदद से रिपोर्ट में संगठित क्षेत्र में 70 लाख और असंगठित क्षेत्र में 80 लाख यानी हर साल 1.5 करोड़ रोजगार सृजन का अनुमान लगाया गया था. यानी सरकार को इस रिपोर्ट से काफी मदद मिली थी.
रिपोर्ट के बाद सामने आए थे मोदी
आपके लिए जानना मजेदार होगा कि भारत की पांच गुना बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश चीन में भी हर साल 1.5 करोड़ रोजगार सृजित नहीं हो पाते हैं. दोनों घोष की मददगार रिपोर्ट सामने आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ टीवी इंटरव्यू में नजर आए थे. इससे पहले मोदी की मीडिया के सवालों से दूरी बनाने पर आलोचना होती थी. रिपोर्ट सामने आने के बाद मोदी ने रोजगार के सवाल पर अस्पष्ट तौर पर कहा था कि असंगठित क्षेत्र में पैदा हुए रोजगार को भी उनकी सरकार की उपलब्धि माना जाए. इसके लिए उन्होंने सड़क किनारे पकौड़े बेचने वालों के रोजगारयुक्त होने का उदाहरण दिया था.
सरकार करेगी इन आंकड़ों का इस्तेमाल
ईपीएफओ और एनपीएस के आंकड़े ऐसे समय में सामने आए हैं, जब कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में अहम चुनाव होने हैं. कर्नाटक में बीजेपी की कोशिश है कि कांग्रेस को हटाकर सत्ता में आए. राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में बीजेपी को आंतरिक खेमेबाजी के अलावा एंटी इन्कमबेंसी फैक्टर का भी सामना करना है. इसके अलावा 2019 में लोकसभा चुनाव होने हैं, जिन्हें सरकार कुछ समय पहले भी करवा सकती है. ऐसे में केंद्र सरकार इन आंकड़ों को रोजगार के तौर पर पेश करके अपनी उपलब्धि गिना सकती है.