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इस जोड़े ने 300 एकड़ की बंजर जमीन पर बनाई है पहली प्राइवेट वाइल्डलाइफ सेंचुरी

एक जोड़े को प्रकृति से इतना प्रेम था कि उन्होंने 300 एकड़ बंजर जमीन को वाइल्डलाइफ सेंचुरी में बदल दिया. जानिए उन्होंने कैसे इस पूरे सफर को पूरा किया.

Pamela and her husband Anil K Malhotra (Photo: Milestothewild.com ) Pamela and her husband Anil K Malhotra (Photo: Milestothewild.com )
स्नेहा
  • नई दिल्ली,
  • 11 मार्च 2016,
  • अपडेटेड 6:25 PM IST

जहां हम लोगों के लिए एक गार्डन की देख रेख करना भी मुश्किल होता है. वहीं, एक जोड़े ने 300 एकड़ के बंजर जमीन को खरीदकर उसे एक अभ्यारण्य में बदल दिया.

यह सुनकर भले ही आपको आश्चर्य हो लेकिन पामेला और उनके पति अनिल के. मल्होत्रा ने 25 साल तक कर्नाटक की वो जमीनें खरीदीं जो या तो खाली थीं या फिर बंजर. इस जोड़े ने ब्रह्मगिड़ी की माउंटेन रेंज में वेस्टर्न घाट के नजदीक जमीन खरीदी और आज इस जगह का नाम मल्होत्रा सेव एनिमल्स इनिशियेटिव (SAI) अभ्यारण्य है. संभवत: यह भारत का पहला और अकेला निजी अभ्यारण्य है. यह 300 से अधिक प्रजातियों के पक्षियों का आवास है और यहां दुर्लभतम जीव भी पाए जाते हैं.

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कैसे हुई शुरुआत:
अनिल दून स्कूल से पढ़े हुए हैं और भारत आने से पहले वह अमेरिका में रियल एस्टेट और रेस्टोरेंट बिजनेस से जुड़े थे. 1991 में अनिल (75 साल) और पामेला (64 वर्ष) देश के दक्षिणी हिस्से में अपने एक दोस्त के कहने पर यहां जमीन खरीदने आए थे. यहां 55 एकड़ की बेकार पड़ी हुई जमीन थी.
जमीन का मालिक अपनी जमीन इसलिए बेचना चाहता था क्योंकि यहां वह कॉफी या कोई भी दूसरी चीज नहीं पैदा कर पा रहा था.

जब छोड़ना पड़ा था जमीन खरीदने का ख्याल:
1960 में अमेरिका के न्यू जर्सी में इस जोड़े की मुलाकाता हुई और जल्द ही शादी भी कर लिया. जब वो अपने हनीमून के लिए हवाई गए तो उसकी खूबसूरती को देखकर वहीं रहने भी लगे. अनिल बताते हैं कि वहीं उन्होंने प्रकृति की कीमत भी जानी और यह भी समझा कि ग्लोबल वाॅर्मिंग के बीच जंगलों को बचाने के लिए कोई भी महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाए जा रहे हैं.
मल्होत्रा 1986 में अपने पिता का अंतिम संस्कार करने भारत आए. जब वे हरिद्वार गए तो वहां गंगा नदी की स्थिति देखकर डर गए. जंगलों को वहां जिस गति से काटा जा रहा था, उसे देखकर उन्हें काफी बुरा लगा. अभ्यारण्य बसाने के लिए उन्होंने उत्तरी भारत में जगह की तलाश शुरू की लेकिन कहीं भी मनचाही जगह नहीं मिल सकी. इस वजह से उन्हें काफी निराशा हुई.

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जब उन्हें उत्तरी भारत में जमीन नहीं मिली तो उन्होंने दक्षिण भारत में जमीन खोजने का सिलसिला शुरू किया. एक दोस्त की मदद से उन्हें ब्रह्मगिड़ी के माउंटेन रेंज में वेस्टर्न घाट के नजदीक जमीन मिल गई. इस जमीन को खरीदने के लिए उन्होंने हवाई में स्थित अपनी जमीन बेच दी और यहां आ गए. लेकिन जल्द ही वे यह समझ गए कि जब तक उनकी झरने के पास वाली जमीन के नजदीक दूसरे लोग पेस्टिसाइड का प्रयोग करते रहेंगे, जंगल की देखभाल करने और उसे संवारने का उनका काम पूरा नहीं हो सकेगा.

जानवरों को शिकारियों से बचाने के लिए फॉरेस्ट विभाग से भी ली मदद:
उन्होंने इसके बाद झरने के आस-पास वाली जमीन भी खरीदनी शुरू कर दी. इस क्षेत्र के ज्यादातर किसान जमीन के इन हिस्सों से अच्छी पैदावार नहीं कर पाते थे. उन्हें इसके बदले जब अच्छी रकम मिलने लगी तो उन्होंने जमीन बेचना स्वीकार कर लिया. इस जंगली जमीन पर उन्होंने तमाम तरह के पेड़-पौधे लगाने शुरू किए.
जंगल में आने वाले पशु-पक्षियों को शिकारियों से बचाने के लिए उन्होंने फॉरेस्ट डिपार्टमेंट का सहारा लेना भी लिया. इस काम में कई ट्रस्ट के लोगों ने भी मदद शुरू की. वे बड़ी कंपनियों से भी जमीन खरीदने और उस पर जंगल बसाने के लिए बातचीत कर रहे हैं. पामेला का कहना है कि बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों को यह समझने की जरूरत है कि बिना स्वच्छ पानी के वे कुछ भी नहीं कर सकते हैं.

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