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स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंर 1983 को शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म सम्मेलन में दिए गए भाषण के 125 वर्ष पूरे हो चुकें हैं. ये भाषण उनके जीवन का ऐतिहासिक भाषण साबित हुआ.
125 साल पहले जब स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषण की शुरुआत 'मेरे अमेरिकी भाइयो और बहनों' कहकर की थी जिसके बाद सभागार कई मिनटों तक तालियों की गूंज हर तरफ गूंजती रही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्म शताब्दी के अवसर पर विज्ञान भवन में युवाओं को संबोधित किया.
125 साल पहले इस सपने की वजह से स्वामी जी ने 'धर्म सम्मेलन' में दिया था भाषण
शिकागो में स्वामी विवेकानंद का संघर्ष
जानकर हैरानी होगी कि स्वामी जी शुरुआत में शिकागो में भाषण देने नहीं जाना चाहते थे. लेकिन 25 जुलाई 1893 में उनका जहाज शिकागो पहुंचा. उन्होंने ने शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म सम्मेलन में भाषण देने के लिए जो कष्ट उठाए वह किसी साधारण किसी व्यक्ति के बस की बात नहीं थी. स्वामी जी ने खुद लिखा कि 'जब उनका जहाज शिकागो पहुंचा था तो वहां इतनी ठंड थी कि उन्होंने लिखा है, ‘मैं हडि्डयों तक जम गया था'.
उन्होंने आगे लिखा कि 'मुंबई से रवाना होते हुए उनके दोस्तों ने जो कपड़े दिए थे वो नॉर्थवेस्ट अमेरिका की कड़ाके की ठंड के लायक नहीं थे'. शायद मेरे दोस्तों को ठंड का अनुमान नहीं था.
जब स्वामी विश्व धर्म सम्मेलन के पांच हफ्ते पहले पहुंचे
वह विदेशी धरती पर एक दम अकेले थे. विश्व धर्म सम्मेलन के पांच हफ्ते पहले वह गलती से पहुंच गए थे. शिकागो काफी महंगा शहर था. उनके पास पर्याप्त पैसे भी नहीं थे. और जितने पैसे थे वह तेजी से खत्म हो गए थे....कौन हैं रोहिंग्या? जिन्हें कोई भी देश अपनाने को तैयार नहीं
उन्होंने आगे लिखा है, ‘साथ लाई अजीब सी चीजों का बोझ लेकर मैं कहां जाऊं कुछ समझ में नहीं आ रहा था. फिर मेरी अजीब-सी वेशभूषा लेकर लड़के मेरे पीछे भी दौड़ते थे'.
देश से दूर किसी विदेशी शहर में स्वामी जी के लिए वह मुश्किल का दौर साबित हुआ. जब हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन राइट नेउन्हें धर्म संसद समिति के अध्यक्ष का पतादिया और उनका परिचय देते हुए पत्र भी दिया लेकिन वह उनसे खो गया था.
जब सोना पड़ा मालगाड़ी के डिब्बे में
उनका शरीर खाली पेट और थकावट से टूट चुका था, जिसके बाद उन्हें खुद को कड़ाके की सर्दी से बचाने के लिए मालगाड़ी केयार्ड में खड़े खाली डिब्बे में सोना पड़ा.
खाने के लिए मांगनी पड़ी भीख
अगली सुबह वे पास के धनी इलाके लेक शोर ड्राइव में भोजन केलिए भीख मांगने गए. लेकिन वहां के लोग उन्हें चोर और डाकू समझकर भगा देते थे. हर दरवाजे की दहलीज पर उन्हें उपहास और तिरस्कार ही मिला. खुद को इतना लाचार महसूस करने के बाद उनके दिमाग में सिर्फ एक ही बात आती कि सब कुछ छोड़कर भारत लौट जाएं.
विक्रम बत्रा, जिनकी शहादत की कसमें कारगिल की पहाड़ियां आज भी खाती हैं
जब नहीं मानी हार
लेकिन इतने कष्ट सहने के बाद भी वह डटे रहें. एक मौका था जब वह भारतीयों को गरीबी से मुक्त कर सकते थे. वह ये मौका नहीं छोड़ना चाहते थे. भले ही वह शारीरिक रूप से हार चुकें थे लेकिन अंदर हिम्मत अभी भी बाकी थी. एक पार्क में जाकर बैठ गए और खुद को ईश्वर के हवाले छोड़ दिया. विश्व धर्म सम्मेलन में दिए गए भाषण के बाद जिस रात वह बिस्तर पर लेटे थे तो उनके सामने घोर गरीबी से जूझता भारत नजर आ रहा था.