
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक समीकरण सेट किए जाने लगे हैं. ऐसे में हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी ने महागठबंधन से नाता तोड़ लिया है और अब वो जेडीयू के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरने का फैसला कर सकते हैं. बिहार की राजनीतिक में मांझी दलित चेहरा माने जाते हैं और नीतीश के साथ आते हैं तो राजनीतिक तौर पर एनडीए को क्या इसका सियासी फायदा मिल सकेगा?
दरअसल, श्याम रजक जेडीयू से अलग होकर आरजेडी में जाकर नीतीश कुमार को दलित विदलित नेता उदय नारायण चौधरी पहले ही जेडीयू से अलग हो चुके हैं. वहीं, एलजेपी प्रमुख चिराग पासवान इन दिनों नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. ऐसे मेंरोधी करार दे रहे हैं. दलित समुदाय की नाराजगी जेडीयू-बीजेपी के लिए चुनाव में भारी पड़ सकती है. ऐसे में जीतन राम मांझी की जेडीयू में एंट्री नीतीश कुमार के लिए मास्टर स्ट्रोक मानी जा रही है.
जीतन राम मांझी एक दौर में नीतीश कुमार के ही पार्टी जेडीयू का दलित चेहरा हुआ करते थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने मोदी की उम्मीदवारी के विरोध में एनडीए से अलग होकर लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा था और जेडीयू सिर्फ दो सीटों पर सिमट गई थी. नीतीश ने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए 18 मई को इस्तीफा दिया और फिर 20 मई 2014 को जीतन राम मांझी को नया सीएम बना दिया. मांझी ने अपने आपको महादलित के नेता को तौर पर स्थापित करने के लिए कई फैसले लिए.
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जीतन राम मांझी मुसहर समुदाय से आते हैं, जो बिहार में महादलित माना जाता है. बिहार में मुसहर समुदाय के करीब साढ़े तीन फीसदी वोट हैं. नीतीश कुमार इस समुदाय के वोटरों को साधना चाहते थे. वहीं, मांझी खुद की ताकत बढ़ाने में जुट गए तो नीतीश को यह बात न गवार गुजरने लगी. कहा जाता है कि मांझी को बीजेपी ने अपने फेर में ले लिया था. नीतीश को जल्दी ही अहसास हो गया कि उनसे फिर एक गलती हो गई है और आठ महीने बाद भी जीतन राम मांझी से मुख्यमंत्री का भार वापस ले ले लिया गया और उन्हें जेडीयू से भी निकाल दिया गया. इसके खुद नीतीश ने कुर्सी संभाली.
मुख्यमंत्री की कुर्सी जाने के बाद जीतन मांझी ने खुद को बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की. और इसमें जोड़ने लगे वो अपनी जातीय अस्मिता को अहम मुद्दा बनाया. जुलाई 2015 में मांझी ने हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा नाम की पार्टी बनाई. 2015 के विधानसभा चुनाव में वो खुद भी जहानाबाद की मखदुमपुर सीट और गया की इमामगंज सीट से चुनाव लड़े थे. लेकिन सिर्फ इमामगंज सीट ही जीत पाए बाकी उनकी पार्टी के सभी नेता हार गए.
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महागठबंधन से जेडीयू के अलग होने के बाद जीतन राम मांझी ने आरजेडी प्रमुख लालू यादव के करीब गए. इस तरह उनकी महागठबंधन में एंट्री और 2019 का चुनाव आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर लडे़. इस चुनाव में गया से किस्मत आजमाया, लेकिन जीत नहीं सके. अब नीतीश कुमार से मांझी पुरानी अदावतें भुलाकर एक बार फिर से हाथ मिला रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि मुसहर समुदाय क्या मांझी के नेतृत्व में जेडीयू और एनडीए पर भरोसा दिखा सकेगा.