
जुलाई-अगस्त को तख्तापलट का मौसम कहा जाए तो कुछ अलग नहीं. इसी अगस्त में भारत के पड़ोसी बांग्लादेश में सत्ता बदली. वहीं साल 2022 की जुलाई में श्रीलंका में भी यही हुआ था. तत्कालीन गोटबाया राजपक्षे सरकार के दौर में लगभग दिवालिया हो चुके देशवासियों ने सरकार गिरा दी. तब से वहां आर्थिक के साथ-साथ सियासी अस्थिरता भी बनी हुई है. जनाक्रोश के बाद इसी महीने श्रीलंका में पहला आम चुनाव होगा. इस बीच जानें, कैसे हैं श्रीलंका में आम लोगों के हाल.
सबसे पहले जानते चलें कि देश में क्यों हुआ तख्तापलट.
वैसे तो श्रीलंका में धीरे-धीरे आर्थिक स्थिति चरमरा रही थी, लेकिन ये खुलकर दिखी साल 2022 में. लोग बिजली कटौती, फ्यूल और खानेपीने जैसी बुनियादी चीजों के लिए परेशान होने लगे. महंगाई तेजी से बढ़ी. उसी साल अप्रैल में तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे की सरकार के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे. कोलंबो से शुरू प्रोटेस्ट आग की तरह देशभर में फैल गया.
इस बीच आर्थिक स्थिति और बिगड़ चुकी थी. बसों, ट्रेनों और एंबुलेंस जैसी सेवाओं के लिए भी ईंधन की कमी हो गई क्योंकि इंपोर्ट के लिए कोलंबो के पास विदेशी मुद्रा भंडार चुक रहा था. कुल मिलाकर श्रीलंका अपनी जरूरत की चीजें भी जुटा नहीं पा रहा था. इसी गुस्से ने तख्तापलट किया. जनता ने राष्ट्रपति भवन को घेरकर लूट लिया था. इस बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को अंतरिम राष्ट्रपति बनाया गया. उनकी सरकार इंटरनेशनल मदद के लिए गुहार लगाने लगी. हालांकि स्थितियां अभी भी चुनौतीपूर्ण बनी हुई हैं.
कर्ज में जाने की नौबत क्यों आई
राजपक्षे सरकार ने बीते सालों में बहुत से देशों से भारी कर्ज लिया और बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पर लगा दिया था. ये कर्ज हाई इंट्रेस्ट रेट्स पर था, जिसकी वजह से श्रीलंका धीरे-धीरे और ज्यादा कर्ज में डूबता चला गया. आखिरकार, दो साल पहले तत्कालीन वित्त मंत्री अली साबरी ने एलान कर दिया कि देश दिवालिया हो चुका. इसके बाद राष्ट्रपति राजपक्षे ने भी आधिकारिक रूप से माना कि उनकी सरकार अब विदेशी कर्ज नहीं चुका सकती.
सरकार बदलने के बाद साल 2023 में इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड से लगभग 3 बिलियन डॉलर का बेलआउट पैकेज मिला. इसके अलावा कई दूसरी इंटरनेशनल संस्थाओं और देशों ने खुलकर मदद की. इसमें भारत भी शामिल था. उसने नेबर फर्स्ट नीति के तहत कोलंबो की हर मुमकिन सहायता की. इसी जून कोलंबो में हुए इंडिया पार्टनर्स मीट में राष्ट्रपति विक्रमसिंघे ने कहा था कि भारत से उन्हें 3.5 बिलियन डॉलर की आर्थिक मदद मिली. इससे देश में आर्थिक स्थिरता तो आई लेकिन अब भी मामला पानी में ऊब-डूब करता हुआ ही है.
गांवों-कस्बों की स्थिति अब भी बदहाल
फ्यूल की कमी के चलते बंद हो चुकी सेवाएं शहरों में तो शुरू हो चुकीं, लेकिन गांवों की स्थिति अब भी बदहाल है. जैसे उत्तरी श्रीलंका के जाफना और मुल्लैतिवू जिले में आर्थिक संकट बना हुआ है. वहां खेती-किसानी से जुड़ी सुविधाओं के अलावा बुनियादी जरूरतें भी मुश्किल से पूरी हो पा रही हैं. बता दें कि देश का उत्तरी हिस्सा लंबे समय तक तमिल और सिंहलियों के बीच लड़ाई का मैदान बना रहा था. यहीं पर एलटीटीई का उदय हुआ था, जिसके विद्रोह को दबाने में श्रीलंकाई सेना ने इतना दम लगाया कि इस इलाके में रहने वाले नागरिक और आर्थिक विकास पर भी सीधा असर हुआ. अब चरमराई व्यवस्था को पटरी पर लाने में एक फैक्टर ये भी होगा कि इस बार जनता किसे चुनती है, और वो सरकार वो किस इश्यू पर ध्यान देती है.
बता दें कि अस्थिरता के बाद श्रीलंका में 21 सितंबर को पहली बार राष्ट्रपति चुनाव होने जा रहा है, जिसमें लगभग 17 मिलियन लोग वोट करेंगे.
ये काफी दिलचस्प होने वाला है. पीएम से राष्ट्रपति बनाए गए रानिल विक्रमसिंघे लोकप्रिय तो हैं लेकिन इकनॉमिक कमजोरी अब भी लोगों के लिए मुख्य मुद्दा है. हालांकि यही बात मौजूदा प्रेसिडेंट के पक्ष में भी जा सकती है. उन्होंने सबसे मुश्किल समय पर देश की बागडोर संभाली थी, और उसे उबारने की कोशिश की. वहीं राजपक्षे फैमिली, जिसे देश के दिवालिया होने का जिम्मेदार माना जाता है, से नमल राजपक्षे मैदान में हैं.
सजीथ प्रेमदासा भी रेस में हैं, जो पहले भी पद पर रह चुके. वे भी शीर्ष दावेदारों में से हैं, जो जनता की कमजोर नस को जानते हैं और रैलियों में लगातार आर्थिक उदारीकरण की बात करते रहे. एक चीज और नई है. कोलंबो में भी यूरोप की तरह वामपंथ से मोहभंग दिख रहा है. राजनैतिक पार्टियां अपनी-अपनी तरह से दक्षिणपंथ पर जोर दे रही हैं.