
इसी महीने 3 तारीख को तड़के, चिलचिलाती दोपहर में सिर पर कलश रखे, हाथों में डिब्बे लिए 38 वर्षीया सुमतिया सरपट दौड़े जा रही है. मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में मानसनगर की सुमतिया यूं ही नहीं भाग रही हैं. वे बताती हैं, ''रोजाना दो किलोमीटर दूर हमें पानी भरने के लिए जाना पड़ता है.
कम से कम 8-10 चक्कर रोज लगाने पड़ते हैं. तब जाकर कहीं इनसानों और जानवरों की प्यास बुझती है.'' सुमतिया के कदम एक गड्ढे के पास रुके. साथ चल रही सात-आठ साल की अपनी बेटी तीता से उसने झल्लाकर कहा, ''अब जल्दी झिरिया में घुसो.''
तीता गड्ढे के अंदर कूद गई. और गड्ढे से करोच-करोच लोटे में अपनी मां को पानी देने लगी. सुमतिया झल्लाकर बोले जा रही थी. तभी तीता की आवाज आई, ''अम्मा इ झिरिया में अब पानी खतम हो गया.'' पानी के विकराल संकट की यह तस्वीर पन्ना या बुंदेलखंड के किसी हिस्से तक सीमित नहीं है.
पिछले दिनों शिमला से आई खबर ने लोगों को चौंका दिया. वहां के लोग सोशल मीडिया के जरिए देश के दूसरे हिस्से के लोगों से इन गर्मियों में शिमला न आने की अपील कर रहे हैं.
कुल मिलाकर यह तस्वीर किसी एक गांव या शहर की नहीं है बल्कि पूरे देश में पानी के लिए लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं.
शिमला में पानी की ऐसी कमी हुई कि लोग पीने के पानी के लिए टैंकरों के सामने कतारों में लगने लगे. असल में, शिमला की आबादी कोई पौने दो लाख है लेकिन इस बार सैलानियों की संख्या इससे दोगुनी हो गई.
19 मई से पानी को लेकर शिमला में हाहाकार मच गया, क्योंकि सर्दियों में बर्फबारी न के बराबर हुई थी. एक बड़ी समस्या पानी के असमान बंटवारे को लेकर भी रही.
सिंचाई और जन स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक, टूरिस्ट सीजन यानी गर्मियों में शिमला में औसतन 40 मिलियन लीटर रोजाना (एमएलडी) पानी की जरूरत होती है.
और तब शहर को पानी देने वाली गुम्मा और गिरी परियोजनाओं से मिलने वाला पानी 18 एमएलडी ही रह गया.
फिर, खेती के लिए पानी इन्हीं दोनों परियोजनाओं से लिया जाता है. नतीजतन, शिमला में लोग नहाना तो दूर, पीने के लिए भी तरसने लगे.
हालांकि, उपायों की घोषणा करते हुए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपनी सरकार के नवजात होने का हवाला दिया और कहा, ''सरकार को अभी पांच महीने ही हुए हैं.
हम शॉर्ट टर्म और लांग टर्म उपाय कर रहे हैं. स्थायी समाधान के लिए 725 करोड़ रु. की लागत से कोल डैम से पानी लाया जाएगा.''
लेकिन कोई भी बांध पानी की आपूर्ति तभी कर पाएगा जब खुद उसमें पानी हो. 31 मई तक देश के 91 प्रमुख जलाशयों में इनकी कुल क्षमता का महज 17 फीसदी पानी रह गया था. यह पिछले दस साल के औसत से 11 फीसदी कम है.
यानी संकट अब सतह पर दिखने लगा है. बुंदेलखंड में कई बांध सूख चुके हैं. झांसी जिले में आजादी के बाद पहली बार सपरार बांध पूरी तरह सूख गया है. पर्यावरणविद् सोपान जोशी कहते हैं, ''मॉनसून हर साल हमें पर्याप्त पानी देता है.
हमें उसे सहेजना नहीं आता. इसलिए हर साल यह रोना रोया जाता है. शिमला या बाकी जगहों पर पानी की समस्या इसलिए है क्योंकि हमने प्रकृति के साथ चलने की बजाए उससे लड़ना शुरू कर दिया है.'' बुंदेलखंड के किसान नेता शिवनारायण सिंह परिहार कहते हैं, ''सपरार बांध तो तीन महीने पहले सूख गया था, लेकिन प्रशासन ने ध्यान नहीं दिया. अब आसपास के बांध भी सूख चुके हैं या उनका जलस्तर इतना कम है कि किसानों के खेत और लोगों के गले सूख गए हैं.''
असल में सपरार बांध झांसी ही नहीं, हमीरपुर तक पानी पहुंचाता था, लेकिन गाद की समस्या से इसकी जलग्रहण क्षमता में भारी कमी आई है. परिहार कहते हैं, ''सबसे अधिक समस्या तो मवेशियों को है, खासकर अन्ना प्रथा के तहत सड़क पर खुले घूमते हजारों मवेशियों को. पानी की आपूर्ति टैंकरों से हो रही है, लेकिन वह भी पर्याप्त नहीं है.''
पड़ोसी जिले चित्रकूट के पाठा इलाके में संकट ज्यादा गहराया दिखता है. जिले के रमपुरिया-मजरा गांव को तो लोहिया आदर्श ग्राम भी घोषित किया गया था.
कोल आदिवासियों की इस बस्ती में जनवरी से ही पानी की किल्लत शुरू हो गई थी. गांव की महिला रामरती शिकायत करती हुई कहती हैं, ''आंगनबाड़ी केंद्र में बने गांव के एकमात्र हैंडपंप से गंदा पानी निकलता है.''
वैसे, 1973 में पाठा पेयजल परियोजना से शुरुआत करके, 2003 में कर्बी पुनर्गठन पेयजल योजना, मऊ पेयजल योजना और बरगड़ पेयजल योजनाएं भी बनीं. लेकिन सारी योजनाएं कागजों के पुलिंदे में बंद हो गईं.
बुंदेलखंड के 13 जिलों में से टीकमगढ़ में हालात सबसे खराब हैं. यहां के ग्रामीण दूरदराज तक जाकर पीने के पानी का जुगाड़ कर रहे हैं तो कहीं पानी के इंतजार में घंटों कतार में खड़े रहने को मजबूर हैं. यहां के अटरिया गांव में हैंडपंप, कुएं, तालाब सब सूख गए हैं.
लोगों के लिए प्यास मौत का सबब बनने लगी है. टीकममढ़ के गांव गुना में तो पानी के लिए जमा भीड़ के बोझ से कुएं की पाड़ टूट गई और पांच लोग कुएं में जा गिरे. इस घटना में एक महिला की मौत भी हो गई.
शहर तो शहर, पानी का संकट जंगलों में भी है. पन्ना टाइगर रिजर्व के मुख्य वन संरक्षक राघवेंद्र सिंह बताते हैं, ''पन्ना टाइगर रिजर्व में पानी का संकट खड़ा हो गया है.
यहां पक्षियों और जंगली जानवरों को पानी की कमी से परेशानी हो रही है.'' टीकमगढ़ के समाजसेवी पवन घुवारा कहते हैं, ''इस बार संकट अभूतपूर्व है.
तालाब और जितने भी कुएं थे वह सूख गए हैं. हैंडपंपों में पानी नहीं है. ऐसे में इनसानों के साथ जानवरों के जीवन पर खतरा है.''
हालांकि राज्य सरकार ने टीकमगढ़ को अति सूखाग्रस्त जिलों में शामिल किया है. इस अटरिया गांव के ग्रामीण बृजेंद्र कुमार कहते हैं, ''सुबह से ही अपने परिवार सहित पानी भरने के लिए निकलना पड़ता है. उत्तर प्रदेश के पथरिया गांव में एक कुएं में जो थोड़ा बहुत पानी है उसी से काम चल रहा है.'' आदिवासी पार्वती की अपनी अलग दास्तान है. वे तो निर्जन स्थान पर पहले से ही पानी भरने आती रहीं हैं. संकट गहराया तो अब पूरा गांव आने लगा है.
सुबह-शाम सिर पर बर्तन रखे महिलाओं और बच्चों की कतारें बताती हैं कि संकट कितना गहरा है. जर्जर कुओं की तलहटी में बाकी बचे पानी के लिए लोग जान जोखिम में डालकर पानी भरने कुओं में उतरते हैं. पन्ना में पत्थर खदानों के पास रहने वाले आदिवासियों को तो अस्थायी रूप से झिरिया यानी पत्थरों के बीच खुदाई कर पानी निकालना पड़ता है पर यह स्रोत भी हफ्ते भर में सूख जाता है और नई जगह पर खुदाई करनी होती है. वैसे यह पानी पीने के लायक तो बिल्कुल नहीं है.
इस इलाके में पानी की समस्या पर काम करने वाले समाजसेवी यूसुफ बेग कहते हैं, ''गर्मियां पन्ना में बसे आदिवासियों के लिए तो कहर बनकर आती हैं. पिछले कई दशकों से यह मुद्दा जस का तस बना हुआ है. पत्थर की धूल मिला यह पानी इतना दूषित होता है कि गर्मियों में हर साल इससे कई लोग गंभीर रूप से बीमार पड़ते हैं.''
पानी की यह कमी इनसानों और जानवरों के बीच संघर्ष पैदा कर रही है. बेग बताते हैं कि कुछ दिन पहले ही एक बाघ ने यहां के एक स्थानीय निवासी को अपना आहार बनाया. इसके अलावा पिछले दो महीनों में 20 लोग भालू और 22 लोग तेंदुए का शिकार बने चुके हैं.
बुंदेलखंड के पाठा में मवेशियों के लिए पानी की सबसे अधिक समस्या है. तालाबों का पानी सूख जाने से मवेशी इधर-उधर भटकते नजर आते है. हालांकि, यह जलसंकट भारत के लिए नया नहीं है, पर इस बार काफी गहरा है और इसके और अधिक भीषण होते जाने की आशंकाएं व्यक्त की जाने लगी हैं.
विश्व बैंक का एक अध्ययन बताता है कि भारत के 16 करोड़ से अधिक लोगों को पीने के लिए पानी उपलब्ध नहीं है.
उधर, महाराष्ट्र को पानी की वजह से दंगे झेलने पड़े. औरंगाबाद में मोतीलांज क्षेत्र में नल के कनेक्शन के विवाद में शहर में झड़प शुरू हो गई जो बाद में सांप्रदायिक दंगे में बदल गई. इस झड़प में दो लोग मारे गए जबकि 50 से अधिक लोग घायल हो गए. 40 से अधिक दुकानें आग के हवाले कर दी गईं. दर्जनों वाहन फूंक दिए गए.
असल में, महाराष्ट्र में भूजल की कमी अब गंभीर रूप में उभर आई है, जहां 353 तालुकों में भूमिगत जलस्तर में एक मीटर से अधिक की गिरावट की रिपोर्ट है. राज्य के भूमिगत जल सर्वे और विकास एजेंसी (जीएसडीए) ने पिछले पांच साल के दौरान करीब 4,000 कुओं की जांच की.
सर्वे के मुताबिक, महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा इलाकों में यह स्थिति ज्यादा भयावह है. इन इलाकों में ज्यादातर खेती भूमिगत जल से ही होती है.
भारत में पानी की कमी का ट्रेंड वाकई चिंताजनक हो चला है. ऐसे में भूमिगत जल पर दोहन का भार बढ़ गया है. सालाना कुल मौजूद भूमिगत जल से दोहन किए जाने वाले जल के प्रतिशत, जिसे भूमिगत जल विकास का स्तर कहा जाता है, में तेजी से वृद्धि दिखी है.
जोशी कहते हैं, ''हमने ज्यादातर समयसिद्ध पारंपरिक तरीकों को बेकार मानकर कथित नए तरीकों से पानी पहुंचाने की कवायद शुरू की है. आप कुछ भी करिए, पर आप नया पानी बना नहीं सकते. आपको प्रकृति के जल चक्र और जल संसार की अहमियत समझनी होगी.''
केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड की जनवरी, 2017 में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि पंजाब के इलाकों में 82 फीसदी और हरियाणा में कोई तीन-चौथाई कुओं में जलस्तर में पिछले एक दशक में खतरनाक ढंग से कमी आती जा रही है. पिछले पांच साल में इन कुओं में से आधों में दो मीटर और कोई बीस फीसदी कुओं में चार मीटर तक पानी नीचे चला गया है.
पिछले दो दशकों में खेती की बोरवेल के पानी पर बढ़ी निर्भरता को इसका दोष दिया जा सकता है. लेकिन ज्यादातर भारतीय घरों में रोजमर्रा की पानी की जरूरतें भी भूमिगत जल से ही पूरी होती है. 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि कि भारत में आधे से भी कम घरों में सप्लाई का पानी मुहैया है.
इसका अर्थ है कि भारत के आधे से अधिक घरों में भूमिगत जल के लिए पानी के लिए बोरवेल जैसे निजी साधन लगाए गए हैं. अनियोजित शहरीकरण ने इस समस्या को और अधिक बढ़ा दिया है.
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय का अनुमान है कि देश में पानी की मौजूदा जरूरत 2050 तक कोई डेढ़ गुना बढ़ोतरी हो जाएगी. भूमिगत जल समेत तमाम जल संसाधनों के ठीक प्रबंधन से इस स्थिति को सुधारा तो जा सकता है लेकिन ढीले-ढाले रवैए से उस बात की फिलहाल कोई सूरत दिखती नहीं है.
जल प्रबंधन पर अभी ध्यान नहीं दिया गया तो शेयर बाजार से लेकर कृषि भंडारों तक, बिन पानी सब सून होगा. बारिश इस बार भी होगी, पर उसे संजोने के उपाय ठीक नहीं हुए, तो कहना होगा, उठो ज्ञानी खेत संभालो, बह निरसेगा पानी.
—साथ में, संध्या द्विवेदी और डी.डी. गुप्ता
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