
पारा चढऩे के साथ ही देश का जमा पानी सूखने लगा है. बांधों-जलाशयों के गिरते जलस्तर को लेकर केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट चेतावनी दे रही है और ठंड के मौसम में आमतौर पर होने वाली बारिश आधी भी नहीं हुई है. गर्मी के महीने आने वाले हैं. राजधानी दिल्ली, गुजरात, कर्नाटक और मध्य प्रदेश समेत अनेक राज्यों में पानी का संकट दिखने लगा है.
पिछले हफ्ते जारी आयोग की रिपोर्ट बताती है कि देश के बांधों, तालाबों और नदी क्षेत्रों (रिवर बेसिन) में जलस्तर गिर रहा है. बांधों और तालाबों के मामले में यह गिरावट 10 साल के औसत से भी नीचे चली गई है. बांधों और जलाशयों का जलस्तर 63.59 बीसीएम (अरब घन मीटर) के स्तर पर है.
यह पिछले 10 साल के औसत 69.76 बीसीएम से भी नीचे चल रहा है जो कि 39 फीसदी है. 15 फरवरी से पहले के हफ्ते में यह 41 फीसदी था. देश के 91 में से 35 जलाशयों में पानी का स्तर सामान्य से कम है. नर्मदा, साबरमती, तापी, गोदावरी, कृष्णा नदी बेसिन में भी पानी दस साल के औसत से नीचे चला गया है. इन नदी बेसिन के इलाकों में पानी की किल्लत बढ़ रही है. हिमालय से निकलने वाली नदियों में फरवरी के दूसरे हफ्ते में हुई बारिश और बर्फबारी से राहत है.
मॉनसून की बारिश सरकारी आंकड़ों में सामान्य रहने के बावजूद यह किल्लत क्यों झेलनी पड़ रही है? मौसम के आंकड़ों का विश्लेषण करने वाली कंपनी स्काइमेट के प्रमुख मौसम विज्ञानी महेश पालावत बताते हैं कि जून से सितंबर के दौरान 96 से 104 फीसदी तक की बारिश सामान्य मानी जाती है.
2017 में सामान्य से एक फीसदी कम (95) बारिश होना कोई बहुत खराब बात नहीं. इस बार बारिश सब जगह एक-सी नहीं हुई. गुजरात में सामान्य से 19 फीसदी और राजस्थान में 8 फीसदी ज्यादा बारिश हुई. यह आंकड़ा तो बेहतर दिखता है पर इसका कोई फायदा धरातल पर नहीं हुआ. बाढ़ आई और पानी समुद्र में चला गया.
इसके अलावा तमाम इलाकों में मॉनसून के दौरान कम बारिश हुई जिससे वहां पानी संकट शुरू हो गया है. उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब और मध्य प्रदेश में सामान्य से 20 से 30 फीसदी तक कम बारिश हुई है. झारखंड. हिमाचल प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ में सामान्य से करीब 10 फीसदी कम पानी बरसा है. मॉनसून के अलावा सर्दी में भी इस बार बारिश कम ही हुई है. 2018 में तो फरवरी के पहले पखवाड़े तक सामान्य से 58 फीसदी कम बारिश हुई है जो कि सूखे जैसे हालात का एक बड़ा कारण है.
नोएडा के राष्ट्रीय मध्यम अवधि मौसम पूर्वानुमान केंद्र के वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि फिलहाल मौसम शुष्क रहेगा. अब धीरे-धीरे तापमान बढ़ेगा. उधर, पालावत बताते हैं कि आने वाले दिनों में बारिश की कोई खास उम्मीद नहीं दिखाई देती. किसी तरह का कोई सिस्टम बनता नहीं दिख रहा. अगले दो-तीन महीनों में तापमान बढ़ेगा जिससे पानी का संकट और प्रबल होने के आसार लगते हैं. पानी के मोर्चे पर मॉनसून से पहले राहत का कोई संकेत नहीं है.
महाराष्ट्र के राजनैतिक दल स्वाभिमानी पक्ष के अध्यक्ष राजू शेट्टी कहते हैं, ''विदर्भ और मराठवाड़ा के कुछ हिस्सों में पानी की किल्लत दिख रही है. हां, पिछले साल जैसी स्थिति नहीं है क्योंकि मॉनसूनी बारिश ठीक रही. प्रदेश में भीषण गर्मी के कारण मई के पहले हक्रते से मुश्किल बढ़ती है.
लेकिन प्रदेश के सभी शहरों और गांवों में पेयजल का संकट दिखने लगा है.’’ बकौल शेट्टी, जालना, उस्मानाबाद और बीड में आने वाले दिनों में हालात और खराब हो सकते हैं. लेकिन गुजरात में हालात ज्यादा खराब हैं. यहां मध्य प्रदेश ने नर्मदा का पानी देने में अड़ंगा लगाना शुरू कर दिया है क्योंकि वह पहले अपने राज्य की सप्लाई सुनिश्चित करना चाहता है.
इस बार गुजरात का हाल अभी से बेहाल है. वहां बारिश का 40 फीसदी पानी समुद्र में बह जाता है. प्रदेश में पानी और स्वच्छता के क्षेत्र में सक्रिय एनजीओ प्रवाह के संयोजक नितिन ठाकुर बताते हैं, यहां पानी का मुख्य जरिया सरदार सरोवर प्रोजेक्ट ही है.
इससे प्रदेश के 131 शहर और 53 फीसदी गांवों को पेयजल की आपूर्ति होती है लेकिन मध्य प्रदेश में बारिश कम होने से नर्मदा में पानी बहुत कम है. इस कारण इस साल गुजरात को तय 90 लाख एकड़ फुट पानी का 45 प्रतिशत यानी करीब 47 लाख एकड़ फुट पानी ही मिल सकेगा. इसके अलावा सिंचाई और उद्योग को भी पानी की सप्लाई होनी है. जाहिर है, गर्मी में यहां हालात बहुत खराब होने का अंदेशा है. मध्य प्रदेश के शहरों में पानी की किल्लत अभी से शुरू हो चुकी है.
भारतीय मौसम विभाग के पूर्व महानिदेशक लक्ष्मण सिंह राठौड़ का कहना है कि जलाशयों में ज्यादातर पानी मॉनसून के दौरान ही आता है. गर्मी के मौसम में वाष्पोत्सर्जन की दर काफी बढ़ जाती है और खपत में भी तेजी आ जाती है. जलाशयों के पानी से सिंचाई और शहरों को आपूर्ति बढ़ रही है. इसकी दर भी बढ़ रही है. हिमालय के ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं और यह भी तापमान बढऩे के कारण हो रहा है. पिछले 18 साल से साल-दर-साल गर्मी बढ़ी है.
तापमान बढऩे का यह क्रम इस साल भी जारी रहेगा. राठौर कहते हैं, ‘‘परंपरागत रूप से देश के कुछ भागों में पानी की किल्लत हर साल बनी रहती है. पठारी भाग यानी कर्नाटक से मराठवाड़ा और तेलंगाना तक, तमिलनाडु का एक बड़ा इलाका जिसमें चेन्नै भी शामिल है और मध्य राजस्थान में हर साल सूखे जैसे हालात पैदा होते हैं.’’
2018 में दक्षिण अफ्रीकी शहर केपटाउन के पानी संकट की चर्चा दुनिया में रही तो यहां कर्नाटक की राजधानू बेंगलूरू का जल संकट भी काफी सुर्खियां बटोर गया. पिछले 15 साल से देश की नदियों और जलाशयों को करीब से देख चुके जलपुरुष राजेंद्र सिंह का कहना है, ''पानी के मामले में हमारे देश का हर शहर केपटाउन है. अभी हम शहरों के लिए सौ किलोमीटर या इससे कम-ज्यादा दूरी से पानी लेकर आते हैं.
लेकिन अब नदियों के सूखने से इतनी दूर से भी लाना मुश्किल हो गया है. केपटाउन में पानी संकट का मामला तो किसी ने रणनीति के तहत मीडिया में आखिरी आदमी तक पहुंचा दिया.’’ राजेंद्र सिंह कहते हैं, बड़े बांधों के कारण भारत में आजादी के बाद सूखा 10 गुना बढ़ गया है.
इनकी वजह से केनाल के छोरों पर पानी नहीं पहुंचता और पानी को लेकर लड़ाइयां शुरू हुई हैं. कावेरी विवाद जैसे झगड़े इसकी मिसाल हैं. इसके पीछे भले राजनीति हो सकती है लेकिन इतना तय है कि गर्मी के आने वाले तीन महीने पानी की अग्निपरीक्षा लेंगे.
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