
देश में 2021 में होने वाली जनगणना के साथ-साथ जातिगत जनगणना की मांग भी तेज हो गई है. सियासी पार्टियां जातिगत जनगणना के आधार पर राजनीतिक समीकरण सेट करने में जुट गई हैं.
उत्तर प्रदेश में पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने जातिगत आरक्षण की मांग उठाई तो सपा विधायकों ने इस मुद्दे पर विधानसभा में आवाज बुलंद कर दी. वहीं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना के प्रस्ताव को पास कर केंद्र को भेजा है जबकि महाराष्ट्र की उद्धव सरकार पहले ही इसे हरी झंडी दे चुकी है.
जातिगत जनगणना की मांग तेज
बता दें कि देश में हर दस साल में जनगणना होती है. साल 2011 में आखिरी जनगणना हुई थी और अब 2021 जनगणना होनी है. ऐसे में 2021 की जनगणना को जातिगत के आधार पर करने की मांग उठने लगी है. हालांकि भारत में आजादी से पहले 1941 में जाति गिनी गई थी, लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के कारण आंकड़ों को संकलित नहीं किया जा सका था.
आजादी के बाद सरकार ने तय किया कि जनगणना में जातिगत आधार को शामिल नहीं किया जाएगा. भारत में पहली बार 1951 में जनगणना हुई और 2011 में अंतिम बार जनगणना हुई है, लेकिन जाति की गिनती नहीं हो सकी.
देश के हर आदमी की सामाजिक, आर्थिक स्थिति का आकलन सिर्फ जनगणना में होता है. अब अगले साल 2021 में जनगणना होनी है, जिसमें जातिगत गिनती कराने की मांग उठने लगी है.
उद्धव सरकार का ओबीसी कार्ड
महाराष्ट्र में शिवसेना ने बीजेपी से नाता तोड़कर एनसीपी और कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर सत्ता पर काबिज हो गई है. मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने जनवरी में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर जातिगत आधारित जनगणना प्रस्ताव पेश किया था, जिसे ध्वनि मत से पारित कर दिया गया था.
इसके तहत उद्धव ठाकरे सरकार ने केंद्र से देश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की जनसंख्या जानने के लिए जाति आधारित जनगणना कराने का अनुरोध किया है.
कांग्रेस नेता और महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर पटोले ने सदन में प्रस्ताव पेश किया था. उन्होंने कहा था कि जनगणना साल 2021 में होनी है. ओबीसी की जनसंख्या कितनी है, इस आंकड़े की जरूरत है. मंत्री छगन भुजबल ने कहा कि जाति आधारित जनगणना की मांग सालों पुरानी है. माना जा रहा है कि इसके जरिए गठबंधन सरकार ओबीसी कार्ड खेला है.
नीतीश का जातिगत जनगणना का दांव
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साल 2021 में होने वाली जनगणना में ओबीसी समाज की गिनती के लिए एक अहम प्रस्ताव पास किया. इसके तहत नीतीश ने जातिगत जनगणना का कार्ड केंद्र के पाले में डाल दिया है.
तेजस्वी यादव के ओबीसी के बीच बढ़ते प्रभाव के बीच ही नीतीश कुमार को ओबीसी की इन जातियों का विश्वासपात्र बनना जरूरी लग रहा है. इसी बड़ी वजह के आधार में जातिगत जनगणना की पटकथा लिखी गई है. चुनावी साल में हुए इस फैसले के कई मायने भी हैं.
यूपी में भी जातिगत जनगणना की मांग
समाजवादी पार्टी ने जातिगत जनगणना की मांग को लेकर उत्तर प्रदेश में मोर्चा खोल दिया है. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके जातिगत जनगणना की मांग उठाई तो सपा विधायकों ने विधानसभा में इस मुद्दे को लेकर जमकर हंगामा किया था.
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अखिलेश ने कहा कि समाज में हर तबके को उसकी संख्या के मुताबिक हक और सम्मान मिले. इसके लिए जातिगत जनगणना कराई जाए. कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियां जातिगत जनगणना के लिए तैयार नहीं हो रही हैं, क्योंकि ऐसा हुआ तो इनका जातिगत आधार पर बांटने का खेल खत्म हो जाएगा.
उन्होंने कहा कि एक बार जातीय जनगणना हो जाने पर उस अनुपात में सबकी हिस्सेदारी तय हो जाएगी. विकास और सामाजिक न्याय के लिए यह बेहद आवश्यक है.
दरअसल, जातिगत जनगणना की मांग के पीछे एक बड़ा सियासी मकसद है. देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट 1991 में लागू की गई, लेकिन 2001 की जनगणना में जातियों की गिनती नहीं की गई.
ओबीसी समुदाय का दखल
इसके बावजूद देश की राजनीतिक समीकरण बदले हैं, जिनमें ओबीसी समुदाय का सियासत में दखल बढ़ा. केंद्र से लेकर राज्यों तक की सियासत में ओबीसी समुदाय की तूती बोलने लगी और राजनीतिक दलों ने भी उनके बीच अपनी पैठ जमाई.
जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर अरविंद कुमार कहते हैं कि देश में किस समाज की कितनी जनसंख्या है ये बात सभी जानना चाहते हैं. लेकिन केंद्र सरकार तो क्या, देश में किसी को नहीं मालूम कि किस राज्य में कितने ओबीसी हैं.
वहीं, सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि आरक्षण के बारे में कोई भी फैसला आंकड़ों के बिना कैसे हो सकता है और सरकार को आंकड़ा लेकर आना चाहिए, लेकिन आंकड़ा जुटाने का काम जान-बूझकर टाला जाता रहा है, क्योंकि देश में ओबीसी समुदाय की संख्या काफी है, जिसे सत्ता में बैठे लोग सामने नहीं आने देना चाहते.
देश में सबसे ज्यादा ओबीसी वोटर
देश की राजनीति में काफी वक्त से पिछड़ी जाति के वोटरों का सत्ता में दखल देखने को मिला है. जातियों के वोट पर्सेंट की बात करें तो 55 फीसदी से अधिक ओबीसी वोटर हैं, जिनमें विभिन्न जातियां शामिल हैं.
देश के अलग-अलग राज्यों में ये ओबीसी वोटर अलग-अलग पार्टियों के साथ हैं. यूपी में बीजेपी और सपा के बीच ओबीसी वोटर बंटा हुआ है तो बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव के अलावा बीजेपी के साथ खड़ा हुआ है.
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ओबीसी जाति के बड़े प्रभाव के बीच ही इन जातियों के नेता लंबे वक्त से जाति आधारित प्रतिनिधित्व की मांग करते रहे हैं. वीपी सिंह की सरकार के वक्त से ही देश के एक बड़े हिस्से में जिसमें बिहार, उत्तर प्रदेश प्रमुख है, यह मांग उठती रही है कि अगर ओबीसी जातियों का 50 फीसदी हिस्सेदारी है तो उनके आरक्षण का अंश सिर्फ 27 फीसदी ही क्यों है?
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वहीं जातिगत जनगणना की मांग के साथ आरक्षण के प्रावधानों की समीक्षा की आवाज भी उठती रही है. ऐसे में यह माना जा सकता है कि जातिगत जनगणना के फैसले से नीतीश कुमार बिहार में तो शरद पवार और उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र में और अखिलेश यादव यूपी में ओबीसी वोटरों को इसी समूह को साधने की कोशिश में हैं.