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सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज की गिरफ्तारी के बाद भिलाई स्थित उनके घर पर समर्थकों का तांता लगा हुआ है. वो उन पर लगे आरोपों से सकते में हैं. साथ ही इस आरोप को सिरे से खारिज किया कि सुधा भारद्वाज का नक्सलियों से कभी कोई नाता रहा है. इनका कहना है कि भारद्वाज सिर्फ आदिवासियों और मजदूरों के साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ सड़क से लेकर अदालत तक आवाज बुलंद करती रही हैं. नक्सली गतिविधयों में उनके शामिल होने का सवाल ही नहीं उठता.
सुधा भारद्वाज के समर्थकों ने उनकी गिरफ्तारी को राजनीतिक साजिश करार दिया है. दिल्ली से उनकी गिरफ्तारी के बाद छत्तीसगढ़ के भिलाई स्थित उनके घर पर समर्थक जुटने लगे. जामुल इलाके के लेबर कैंप में सुधा भारद्वाज साल 1992 से लेकर 2007 तक रहीं. उनका यह घर अब रेजिडेंस कम ऑफिस की तर्ज पर उपयोग होता है.
इस घर से उन्होंने अपने पहले प्रदर्शन और सामाजिक आंदोलन की शुरुआत की थी. मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी हत्याकांड को लेकर इस इलाके में प्रदर्शनों की शुरुआत इसी घर से हुई थी. इसके बाद उन्होंने मानवधिकारों के हनन को लेकर भी आंदोलन शुरू किया. धीरे-धीरे उनकी छवि आदिवासियों और मजदूरों के बीच ऐसी बनी कि वो उन्हें अपना हमदर्द समझने लगे. जैसे ही सुधा भारद्वाज की गिरफ्तारी की खबर इनको हुई, तो ये लोग उनके घर में जुट गए.
भिलाई के जामुल इलाका स्थित लेबर कैम्प किसी समय सुधा भारद्वाज का जाना पहचाना ठिकाना होता था. हालांकि आज भी इस दफ्तर में उनका आना-जाना और रहना होता है, लेकिन पहले की तुलना में बेहद कम. साल भर से वो दिल्ली में रह रही हैं. अदालती कार्यवाही के चलते उनका अक्सर दिल्ली से रायपुर और बिलासपुर आना-जाना लगा रहता है. अब इस दफ्तर में उनकी मौजूदगी बेहद कम दर्ज होती है, लेकिन उनसे जुड़े संगठन और संगठन के कार्यकर्त्ता यहां नियमित रूप से आते रहते हैं.
अगर कोई मामला बड़ा होता है, तो इस ऑफिस के जरिए सुधा भारद्वाज से संपर्क किया जाता है और फिर सड़कों से लेकर अदालती कार्यवाही का रास्ता तय होता है. यहां मौजूद कोई भी शख्स यकीन नहीं कर पा रहा है कि सुधा भारद्वाज का कोई नक्सली कनेक्शन हो सकता है. वो इसे राजनीतिक साजिश करार दे रहे हैं.
भारद्वाज के समर्थक राजकुमार साहू के मुताबिक वो साल 1992 के दशक से सुधा भारद्वाज से जुड़े हैं. उन्होंने दावा किया कि सुधा भारद्वाज का नक्सलियों के साथ कभी कोई संपर्क नहीं रहा. वो तो आदिवासियों और मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ती रही हैं. वे कभी भी देश विरोधी गतिविधियों में शामिल नहीं रहीं.
एक अन्य समर्थक मंगलबाई ने बताया कि वो एक फैक्ट्री में कार्यरत थी. यहां श्रम कानूनों का पालन नहीं होता था. सुधा भारद्वाज ने कानूनों का पालन करवाया. इससे उन्हें रोजगार मिला. दफ्तर में मौजूद दुखीराम ने एक घटना बताई कि आखिर वो किस तरह से उद्योगपतियों और मिल मालिकों के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ती रही हैं.
इन समर्थकों ने सुधा भारद्वाज की रिहाई की मांग की है. साथ ही भारद्वाज की गिरफ्तारी के विरोध में उनके संगठन ने सड़क पर उतरकर लड़ाई लड़ने का ऐलान किया है. भारद्वाज की गिरफ्तारी के साथ ही उनके समर्थक पूरे दल बल के साथ आंदोलन की तैयारी में हैं.
मजदूरों की कानूनी लड़ाई के लिए शुरू कर दी थी वकालत
सुधा भारद्वाज ने मजदूरों के आंदोलनों को हवा देने के साथ-साथ अदालत की लड़ाई भी लड़ी. इसके लिए वो वर्ष 2007 के बाद बिलासपुर हाईकोर्ट में वकालत भी करने लगी थीं. बस्तर में मानवाधिकारों के हनन और आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार को लेकर उन्होंने बिलासपुर हाईकोर्ट में कई यांचिकाएं दायर की. इस वजह से कई सरकारी अफसरों की कुर्सी पर आफत मंडरा रही है. छत्तीसगढ़ में सुधा भारद्वाज सामाजिक और मानवाधिकारवादियों की सबसे बड़ी हमदर्द के रूप में जानी पहचानी जाती हैं.
सुधा भारद्वाज ने आदिवासियों की हत्याओं को जोरशोर से उठाया
बस्तर के सुकमा में सलवा जुडूम के चलते साल 2007 में आदिवासियों की हत्या और उनके घरों को जलाने के मामले में सुधा भारद्वाज प्रदेश के कई सरकारी अधिकारियों के लिए मुसीबत बनी हुई है. इसमें पुलिस और प्रशासन के अफसर भी शामिल हैं.
उनके उठाए गए मुद्दों की वजह से राज्य के लगभग एक दर्जन से ज्यादा नौकरशाह मानव अधिकार आयोग के निशाने पर हैं. सुकमा के बहुचर्चित कोड़ासावली में हुए निर्मम हत्याकांड मामले में पुलिस ने न तो मृतकों का पोस्टमार्टम कराया था और न ही आजतक मृतकों के परिजनों को कोई मुआवजा मिल पाया है. इस मामले को लेकर उन्होंने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में भी याचिका दायर की थी.
'याचिकाओं के चलते सुधा भारद्वाज को फंसाने की चल रही साजिश'
अदालत के निर्देश पर इस घटना को लेकर पहला मुकदमा घटना के सात साल बाद अक्टूबर 2013 में दर्ज किया गया था. अदालत में दायर सुधा भारद्वाज की याचिकाओं की वजह से मामले में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल अफसरों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही होना लाजमी है. हालांकि ये तमाम याचिकाएं अभी बिलासपुर हाईकोर्ट में विचाराधीन हैं.
अभी इन पर अंतिम फैसला नहीं हो पाया है. सुधा भारद्वाज के करीबी मानते हैं कि इन्ही याचिकाओं के चलते उन्हें नक्सली मामलों में फंसाने की साजिश चल रही है.