
रामचरित मानस हमारी जीवन शैली का आधार है और इसमें कथानक का जिस तरीके से वर्णन किया गया है, वह छंद बद्ध कविता होते हुए भी महज एक साहित्यिक कृति नहीं है, बल्कि पूजा-पद्धति में शामिल है. इसके प्रसंग, कथाओं का वर्णन और प्रस्तुत किए गए उदाहरणों को जब हम पढ़ते-देखते हैं तो ये मन पर ऐसा प्रभाव डालते हैं कि, हृदय के भीतर से सहज ही इसे अपने जीवन में अपनाने और उतारने की प्रेरणा मिलती है.
महादेव शिव और सती की कथा
श्रीराम की कथा लिखते हुए, संतकवि तुलसीदास ने कई अन्य कथाओं को भी बीच-बीच में कथा का ही हिस्सा बनाकर प्रस्तुत किया है. ऐसी ही एक कथा, महादेव शिव और उनकी पहली पत्नी सती की भी है. सती, जिन्होंने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपनी आहुति दे दी थी. ऐसा क्यों हुआ? शिव ने सती का क्यों त्याग कर दिया मानस की कथा की शुरुआत में ही इसका वर्णन किया गया है.
याज्ञवल्क्य ऋषि ने भारद्वाज मुनि को सुनाया प्रसंग
मानस की शुरुआत में ही कथा के सूत्रधार के रूप में पहले ऋषि भारद्वाज और याज्ञवल्क्य ऋषि सामने आते हैं. इन दोनों के बीच गुरु-शिष्य जैसी बातचीत होती है और इसी दौरान मुनि भारद्वाज श्रीराम के विषय में अपनी जिज्ञासा सामने रखते हैं. वह कहते हैं कि प्रभु श्रीराम कौन हैं? एक राम तो दशरथ के पुत्र हुए, जिन्होंने सीता हरण से बहुत दुख पाया और क्रोध में रावण का वध कर दिया. क्या उनके अलावा भी कोई श्रीराम हैं.
इस बातचीत को तुलसीदास ऐसे लिखते हैं.
अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥
एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा॥
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥
जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
ऋषि भारद्वाज के मुख से ये सारी बातें सुनकर ऋषि याज्ञवल्क्य मुस्कुरा दिए और उन्होंने हंस कर श्रीराम की महिमा का वर्णन करना शुरू किया. उन्होंने कहा, जिस तरह अभी तुम्हें श्रीराम को लेकर मोह और संदेह हो रहा है, ठीक ऐसा ही संदेह महादेव शिव की प्रथम प्रिया रहीं, सती को भी हुआ था. उन्होंने सीता रूप धारण कर श्रीराम की परीक्षा ली और इससे दुखी होकर महादेव ने उनका त्याग कर दिया. बाद में सती ने दक्ष यज्ञ में प्राण आहुति दे दी. वह कथा बहुत मार्मिक है. तब भारद्वाज मुनि ने कहा, हे ऋषि, आप सबसे पहले उमा-महेश्वर की यही कथा मुझे सुनाइए.
तब याज्ञवल्क्य ऋषि ने कहना प्रारंभ किया. एक बार महादेव ने सती के साथ अगस्त्य मुनि से श्रीराम कथा सुनी. इसके बाद उन्हें अपने इष्ट का ध्यान हो आया और वह अपने मन में आराध्य के दर्शन की इच्छा करने लगे. इस दौरान उनकी दशा पूरी तरह शिथिल पड़ गई और वह मन ही मन श्रीराम का जाप करने लगे. महादेव की भक्ति को देखकर श्रीराम ने उन्हें प्रकट रूप में दर्शन दिए तो महादेव ने श्रीराम कहकर उन्हें प्रणाम किया.
यह देख सती के मन में संदेह हुआ. यहां संत तुलसीदास लिखते हैं
सती सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
सती को हुआ श्रीराम पर संदेह
सती मन ही मन सोचने लगीं कि सारा संसार महादेव की स्तुति करता है, लेकिन वह खुद इतने बड़े-महान होकर किसकी वंदना कर रहे हैं. उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परमधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर भक्ति और प्रेम से मगन हो गए हैं. आखिर वे कौन हैं? सती सोचने लगीं कि जो ब्रह्म है , जो व्यापक है और जो माया से रहित, शिवजी से भी अधिक ज्ञान का भंडार है तो वह क्या कभी मनुष्य की तरह जन्म ले सकता है. क्या वह स्त्री के विरह में ऐसा दुखी हो सकता है और कातर होकर उसे जगह-जगह खोजता फिरे, वह ऐसा कैसे हो सकता है? अगर वह लक्ष्मी के पति और विष्णु के स्वरूप हैं तो क्या वह अपनी स्त्री के विरह में इस तरह दुखी रहेंगे.
(बता दें कि यहां सती के संदेह में ही तुलसीदास ने पहली बार प्रकट रूप में श्रीराम को विष्णु का अवतार बताया है.)
शिवजी ने किया सती को समझाने का प्रयास
सती के बार-बार ऐसा सोचने पर महादेव ने उनकी मन की स्थिति जान ली. इसके बाद शिवजी ने कई प्रकार से सती को समझाने का प्रयास किया. सती ने शिवजी की बात सुन तो ली, लेकिन उनका संदेह नहीं गया. तब महादेव ने कहा कि, आप चाहें तो उनकी परीक्षा ले लें और फिर उन्होंने मन में सोचा कि जिसे मेरे भी समझाने पर समझ नहीं आया तो वह परीक्षा से भी क्या समझेगा. ऐसा सोचकर महादेव बहुत दुखी हुए और मन ही मन श्रीराम का ध्यान करने लगे.
तब तुलसीदास लिखते हैं,
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
सती का श्रीराम की परीक्षा के लिए जाना
इसके बाद सती वहां गईं, जहां श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण सहित विराजमान थे. यह घटना अपने आप में टाइम ट्रेवल का वर्णन करती है. क्योंकि श्रीराम का जन्म त्रेतायुग में हुआ था, उनके जीवनकाल के दौरान मां पार्वती शिवजी की पत्नी थीं. सीताजी ने भी श्रीराम को पाने के लिए मां पार्वती का गौरी व्रत किया था. इसलिए सती का श्रीराम के पास परीक्षा के लिए जाना टाइम ट्रैवल का घटनाक्रम है, जिसमें वह भविष्य की समय यात्रा पर गई थीं.
अब देवी सती जब परीक्षा के लिए वहां पहुंची तो उन्होंने माया से सीताजी का रूप धर लिया. श्रीराम ने उन्हें देखा तो जगदंबा कहकर प्रणाम किया और पूछा कि महादेव शिव कहां रह गए. सती ये सुनकर बहुत लज्जित हुईं और सिर्फ प्रणाम कहकर शिवजी के पास वापस लौट आईं.
यहां संत तुलसीदास लिखते हैं...
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥
सती ने शिवजी से कहा झूठ
शिवजी ने जब वहां का घटनाक्रम पूछा तो सती ने सिर्फ इतना कहा कि वह प्रणाम कर लौट आईं, बाकी बातें नहीं बताईं. हालांकि शिवजी ने ध्यान से ये सारी बातें जान लीं और ये जानकर बहुत दुखी हुए कि उन्होंने वहां जाकर मेरी परम आराध्या सीताजी का रूप धर लिया, इस तरह वह मेरे लिए माता समान हो गईं.
यहां तुलसीदास लिखते हैं,
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं
इसलिए शिवजी ने किया था सती का त्याग
शिवजी ने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रेम करता हूं तो यह भक्तिमार्ग से अलग हट जाता हूं. सती बहुत पवित्र हैं, इसलिए उन्हें छोड़ते भी नहीं बनता, लेकिन अब सती के इस देह से प्रेमी के रूप में मेरी भेंट नहीं हो सकती. ऐसा सोचकर महादेव शिव ने उनका त्याग कर दिया. इस दौरान सुंदर आकाशवाणी हुई और शिवजी के भक्तिमार्ग की बहुत प्रशंसा हुई. सती ने भी यह बात जान ली कि शिवजी ने उनका त्याग कर दिया है तो वह बहुत दुखी हुईं और पछतावा करने लगीं. अब वह भी इस देह से शिवजी से भेंट नहीं करना चाहती थीं, इसलिए विधाता से जल्द ही इस देह को नष्ट हो जाने की प्रार्थना करने लगीं.
इसी दौरान उनके पिता दक्ष को प्रजापति का पद मिला और उनमें अहंकार आ गया. फिर दक्ष ने एक महान यज्ञ किया और शिवजी को छोड़कर सभी देवताओं को बुलाया. सती बिना बुलाए इस यज्ञ में पहुंची और वहां अपने पिता महादेव का अपमान देखकर क्रोधित हो गईं. इसी क्रोध में उन्होंने दक्ष यज्ञ में स्वयं की आहुति दे दी. सती खुद में देवी जगदंबा का अवतार थीं, इसलिए उनकी ज्योति उन्हीं में जा मिली.
पार्वती के अनेक नामों की कथा और शिवजी से उनका पुनर्विवाह
इसके बहुत बाद में जगदंबा ने ही पार्वती के रूप में अगला जन्म पर्वतराज हिमालय के घर लिया. वह पर्वत की पुत्री पार्वती और शैलपुत्री कहलाईं. उन्होंने एक बार फिर शिवजी को पति रूप में पाने के लिए कई वर्ष कठिन तपस्या की और इस कठिनता में उन्होंने पहले जल और अन्न का त्याग किया. कुछ दिनों तक वह पत्ते खाकर तपस्या करती रहीं, लेकिन अपनी तपस्या के हठ में उन्होंने पत्तों का भी त्याग कर दिया और अपर्णा कहलाईं. इसीलिए देवी पार्वती का एक नाम अपर्णा भी है. तुलसीदास ने मानस में उनके इन सभी नामों की कथा भी संक्षेप में कही है. पार्वती की तपस्या से महादेव शिव प्रसन्न हुए और उनकी इच्छानुसार वर का वरण करने का आशीर्वाद दे दिया. तब बाद में शिव और पार्वती का विवाह हो गया.