Advertisement

बढ़ती उदासीनता... क्या गरीबों की लाशें महज संख्याएं होती हैं?

पटना-इंदौर एक्सप्रेस के कानपुर के पास हुए हादसे में मरने वालों की तादाद अब तक 145 का आंकड़ा पार कर चुकी है. इससे भी ज़्यादा लोग घायल हैं, जिसमें कइयों की हालत गंभीर बनी हुई है. हिंदी के चैनलों और अखबारों पर यह खबर है ज़रूर लेकिन इंटरनेट के आंकड़े देखें तो अंग्रेज़ी का पाठकवर्ग इसके प्रति उदासीन है.

पटना-इंदौर एक्सप्रेस रेल हादसा पटना-इंदौर एक्सप्रेस रेल हादसा
पाणिनि आनंद
  • नई दिल्ली,
  • 21 नवंबर 2016,
  • अपडेटेड 8:58 AM IST

वर्ष 2014 में जब मलेशिया का हवाई जहाज़ एमएच 370 अचानक लापता हो गया था तो कई दिनों तक उसकी तलाश और यात्रियों की ज़िंदगी ख़बरों में प्रमुखता से छाए रहे. वो विमान कहां गया और यात्रियों का क्या हुआ, किसी को नहीं मालूम. कुल 239 लोग उस पर सवार थे जिसमें से 227 यात्री थे. किसी के भी जीवित होने की संभावना न के बराबर ही है. यह घटना भले ही इतिहास हो गई हो लेकिन इसने खबरों की दुनिया में भूचाल ला दिया था. दुनियाभर की नज़रें इसी एक खबर पर हफ्तों टिकी हुई थीं.

Advertisement

ऐसा ही एक दृश्य पटना-इंदौर एक्सप्रेस के कानपुर के पास हुए हादसे का भी है. मरने वालों की तादाद अब तक 145 का आंकड़ा पार कर चुकी है. इससे भी ज़्यादा लोग घायल हैं, जिसमें कइयों की हालत गंभीर बनी हुई है. हिंदी के चैनलों और अखबारों पर यह खबर है ज़रूर लेकिन इंटरनेट के आंकड़े देखें तो अंग्रेज़ी का पाठकवर्ग इसके प्रति उदासीन है. उसने घटना के बारे में जान लिया. जानकारी ले ली और बस आगे बढ़ लिए.

तो क्या रेल दुर्घटना में मरे लोग क्या हमारे लिए महज संख्याएं हैं जिन्हें किसी मैच के स्कोर या तारीख के कलेंडर की तरह देख लेना भर काफी है. क्या हम इतने असंवेदनशील और उदासीन हो चुके हैं कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों का मरना और घायल होना हमें विचलित नहीं करता.

Advertisement

या फिर ऐसा इसलिए है क्योंकि इस हादसे में मारे गए लोग महंगे दाम के टिकटों पर यात्रा नहीं कर रहे थे, हवाई जहाज़ जैसी परिवहन की सबसे तेज़, विकसित और आधुनिक प्रणाली का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे जिसमें दुनियाभर के साधन संपन्न लोग सफर करते हैं. जो लोग हादसे में मारे गए वो स्लीपर क्लास के दूसरी श्रेणी के डिब्बों में सवार थे. ज़ाहिर है कि ये आम जनता हैं, कम आय और सस्ते टिकटों पर यात्रा करनेवाले गरीब, विद्यार्थी, कामगार हैं. भारत के इतने बड़े लोकतंत्र के लिए इनकी अहमियत भेड़ों जितनी है.

यह कैसा शिक्षित और संवेदनशील मध्यमवर्ग है जो जबतक अपने वर्ग पर चोट न हो, किसी की मौत को भी दर्द से नहीं देखता. यह कैसी स्वार्थवत्ता है जो केवल कपड़ों, पैसों और ओहदों के आधार पर लोगों की ज़िंदगियों की कीमत पहचानना चाहता है. रेल की पटरियों पर कागज़ की तरह बिखरे पड़े डिब्बों को काट काटकर लोगों को बाहर निकाला जा रहा है. बाहर आते-आते लोग मर रहे हैं. बच्चों के पास पिता का नाम बताने तक की चेतना नहीं है. मां अपने बच्चों की तस्वीर हाथ में लिए गूंगी हो गई है. बुजुर्ग अपने नए खून को अपनी आंखों के आगे शांत होता देख रहे हैं. इस दर्द के मंज़र में राजनीति, एक्सप्रेस-वे, फाइटर विमान , संसद और नारों के सिवाय कुछ भी न कहा जा रहा है और न सुना, देखा जा रहा है.

Advertisement

जिस वक्त इस हादसे में लोग मौत से जूझ रहे थे और मदद की आस लगाए एक-एक सांस जीवन का इंतज़ार कर रहे थे, कानपुर से थोड़ी दूरी पर प्रधानमंत्री संवेदना के दो शब्दों के बाद अपनी योजनाओं का प्रचार और विधानसभा चुनाव के लिए लोकलुभावन भाषण दे रहे थे. इन प्रभावितों को मदद देर से मिली और इसलिए भी मृतकों की संख्या बढ़ती गई. ज़िंदगी के लिए अस्पताल में जूझते लोगों को बंद हो चुके नोट राहत के तौर पर बांट दिए गए. हादसे से कुछ दूरी पर सूबे की सरकार अपने महान सड़क प्रोजेक्ट का लोकार्पण करने में व्यस्त रही. सरकार से लेकर विपक्ष तक इन प्रभावितों के लिए सिर्फ दुख और अफसोस की औपचारिकता के शब्द हैं और कुछ भी नहीं.

कल्पना कीजिए कि यह खबर किसी महानगर की होती. दिल्ली की मेट्रो में या किसी पांच सितारा होटल में ऐसा कोई हादसा हो जाता तो अंग्रेज़ी के तमाम चैनल अपनी सारी शक्ति इसपर झोंक देते. मध्यमवर्ग केवल इसी की चर्चा में सराबोर रहता. सत्तापक्ष और विपक्ष बड़े-बड़े बयान और प्रदर्शन कर रहे होते. इसी रेलगाड़ी की जगह हादसा अगर किसी हवाईजहाज़ में होता तो सारा देश केवल यही कह सुन रहा होता.

तो क्या जीवन का मूल्य हमारी आय और संपन्नता के आधार पर ही तय होता रहेगा. अगर केंद्र और राज्यों की सरकारें इस हादसे के बाद वाकई हिल जातीं तो राहत से लेकर परिजनों की खोज तक का काम तेज़ हो सकता था. हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब बुलेट ट्रेन का सपना इस हादसे से ज़्यादा अहम खबर है और ज़्यादा दिखाया सुनाया जाता है. सत्ता की ओर से भी और मीडिया की ओर से भी.

Advertisement

अफसोस कि हवा में सपने उछालने के दौर में हम बुनियादी सवालों पर शांत हैं. सरकारें सपने बेच रही हैं. कोई एक्सप्रेस वे पर फाइटर विमान उतार रहा है तो कोई जापान जैसी बुलेट ट्रेन की तैयारी में लगा है. लेकिन इस दौरान जर्जर होते रेलवे के आधारभूत ढांचे की पोल ऐसी मौतें खोलती जा रही हैं और हम इन मौतों पर आंखें मूंदे आगे बढ़ रहे हैं.

कानपुर में हुआ रेल हादसा एक बड़ा हादसा है और इसको बड़ा हादसा न मानना एक बड़ी भूल है. इस भूल की गुंजाइश न तो मानवता देती है और न ही संविधान. लेकिन मौत गरीब की हो तो बड़ी भूलें मृतकों की संख्याएं भर रह जाती है. शमशान में चिताओं के ठंडे होने से पहले हमारी चेतनाओं का ठंडा हो जाना इसका जलता उदाहरण है.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement