
आप का ध्यान टीवी पर था. 23 और 24 अक्तूबर को आला दर्जे का लाइव और टैक्स फ्री मनोरंजन जनता को मिला. एक महीने से छाई सर्जिकल स्ट्राइक की धुंध हमारी राजनैतिक स्मृति से काफी हद तक छंट गई. आल्हा ऊदल की धरती महोबा से दिया गया प्रधानमंत्री का भाषण अनसुना रह गया. आप यही सुनते रहे कि पहले भतीजा बोला, फिर चाचा बोले और फिर पार्टी के मुखिया बोले. अंतत: तकरीबन हाथा-पाई के दृश्य ने रोमांचकारी दृश्यवाली को पूरा कर दिया.
लेकिन असल में हुआ क्या? लखनऊ के इतने बड़े सम्मेलन के बाद समाजवादी पार्टी में क्या बदलाव आया है. आप ने देखा होगा कि मुलायम सिंह यादव ने अपने भाई शिवपाल यादव की खूब तारीफ की. इतनी तारीफ की कि किसी भी समझदार आदमी को ऐसे आड़े वक्त पर इतनी ज्यादा तारीफ मिलने से तसल्ली के बजाय चिंता होनी चाहिए. क्यों? क्योंकि शिवपाल को तारीफ ही मिली है, न छीने गए पद मिलें हैं, न भतीजे से मिलने वाला पहले जैसा सम्मान मिला है, न पद मिलने की कोई दिलासा ही दी गई है. यही नहीं पार्टी के शीर्ष कार्यकर्ताओं की महफिल में उनकी जमकर हूटिंग, उनका यह भरम भी तोड़ गई होगी कि संगठन पर उनकी पकड़ है. उधर विधायक पहले ही अखिलेश के पीछे लामबंदी दिखा चुके हैं. पिता तुल्य बड़े भाई और राजनीति में उनके सब कुछ मुलायम सिंह ने उन्हें इस जलसे में प्यार के सिवा और क्या दिया? और प्यार भी ऐसा जो आने वाले समय में त्याग ही मांगता रहेगा?
घटनाक्रम के दूसरे किरदार हैं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव. सुनने और देखने वालों को यही दिखा कि अखिलेश ने एक बहुत भावुक भाषण दिया. आज्ञाकारी पुत्र के सारे लक्षण दिखाए और यह भी दिखा कि जहां उन्हें अपने बाप की नाफरमानी करनी पड़ी, वह उन्होंने कुनबे, पार्टी और प्रदेश के व्यापक हित में की. सुनने में तो ऐसा लगा जैसे मुलायम सिंह यादव ने उन्हें चौराहे पर पछाड़-पछाड़ कर धो डाला हो. सबसे सामने उनकी औकात बताई हो. उन्हें अहंकारी और मुंहजोर बताया हो. लेकिन इन चीजों का वाकई कोई मतलब होता तो मुलायम सिंह अपने प्यारे अनुज की वह पुकार जरूर सुनते कि भइया आप खुद ही पद संभाल लीजिए.
लेकिन मुलायम सिंह ने डांट-फटकार के बीच अखिलेश के कद में कोई कमी नहीं की. वह पहले की तरह मुख्यमंत्री बने रहेंगे और शिवपाल का मंत्रिमंडल में आना या न आना अब अखिलेश की मर्जी पर निर्भर होगा. विधानसभा चुनाव में टिकटों का वितरण वह खुद करेंगे, यह भी अखिलेश ने डंके की चोट पर कह दिया.
यानी इस पूरे सार्वजनिक समारोह का कोई निचोड़ है, तो बस यह कि अखिलेश को सरकार के साथ पार्टी की भी कमान मिल गई है. शिवपाल का अख्तियार कम हो गया है, जो आगे और कम होता जाएगा. धीरे-धीरे वे उस स्थिति की तरफ बढ़ेंगे जहां या तो उन्हें सही मायने में अखिलेश के नीचे काम करना होगा या फिर राजनीति के अज्ञातवास में जाना होगा. अखिलेश को निष्कंटक विरासत सौंपने का काम नेताजी ने एक ऐसे तनाव भरे माहौल में कर दिखाया है, जहां सारा-होहल्ला शादी में गाई जाने वाली शगुन की गालियों में तब्दील हो गया और स्वयंवर के लिए दूल्हा निकासी हो गई.