
पश्चिम बंगाल के जलदापारा नेशनल पार्क में जंगल सफारी का आनंद ले रहे सैलानियों पर एक गैंडे ने हमला कर दिया. घटना बीते माह की है, लेकिन ऐसे हादसे लगातार हो रहे हैं. जंगलों या चिड़ियाघरों में शांति से रहते पशु-पक्षी अचानक गुस्सैल होने लगे. इस बीच ये बात भी हो रही है कि क्या डॉग अटैक की तरह ही वाइल्डलाइफ अटैक भी बढ़ने लगेगा, और क्या इसकी वजह हम ही हैं!
पहले रायनो के हमले की घटना को जानते चलें. सोशल मीडिया पर आईएफएस आकाश दीप बधवान ने एक वीडियो पोस्ट किया, जो वायरल हो गया. इसमें साफ तौर पर दिख रहा है कि सफारी घूम रहे लोग खुली हुई गाड़ी पर गैंडे की तस्वीरें खींच रहे हैं. इसपर वो अचानक आक्रामक हो जाता है और जीप की तरफ बढ़ता है. ड्राइवर हालांकि गाड़ी को संभालने की कोशिश करता है, लेकिन वो कंट्रोल खोकर पलट जाती है. बीते कुछ वक्त में देश-विदेश से इस तरह की घटनाओं की रिपोर्ट आ रही है.
क्या वाइल्ड एनिमल्स ज्यादा हिंसक हो रहे हैं?
साइंस की मानें तो हां, लेकिन इसकी वजह भी हम ही हैं. क्लाइमेट क्राइसिस के चलते दुनिया लगातार गर्म होती जा रही है. इसका असर इंसानों ही नहीं, पशु-पक्षियों पर भी हो रहा है. हालात ये हो चुके कि इंसान और वाइल्ड एनिमल्स साथ-साथ रहने को मजबूर हैं. ऐसे में संघर्ष बढ़ना जाहिर सी बात है. इसे एक उदाहरण से समझें. साल 2018 में दक्षिण अफ्रीकी देश बोत्सवाना में भयंकर सूखा पड़ा. स्थिति इतनी खराब हुई कि गर्मी और भूख से बौखलाई इंसानी आबादी जंगलों के करीब जा पहुंची. वहां खुद को बचाने के लिए इंसान जानवरों को मारने लगे, या फिर डरे हुए जानवर उनपर हमला करने लगे. ये एक एक्सट्रीम हाल था, लेकिन आएदिन ऐसी घटनाएं हो रही हैं.
इसलिए बढ़ रहा विरोध
जंगली हाथी गांव में पहुंच रहे हैं, या फिर चीते बस्तियों पर हमले कर रहे हैं ताकि उनका पेट भर सके. ये एक तरह से जिंदा रहने की लड़ाई है, जिसकी वजह कहीं न कहीं इंसान ही हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन की शोधकर्ता ब्रायना अब्राहम्स ने इसपर एक पेपर लिखा, जो साइंस जर्नल में छपा. ये कहता है कि वक्त के साथ ह्यूमन-वाइल्डलाइफ कन्फ्लिक्ट बढ़ता ही जाएगा, अगर हमने उनके हैबिटेट के पास जाना न छोड़ा तो. ये बिल्कुल वैसा ही है कि अगर कोई हमारे घर पर कब्जा करना चाहे तो हम उसका विरोध करेंगे. वाइल्ड जानवरों का बढ़ता गुस्सा भी एक किस्म का विरोध ही है. इसका पहला और आसान इलाज ये है कि उनके घरों में जबरन घुसना कम कर दिया जाए.
भारत में कैसा है वाइल्डलाइफ टूरिज्म?
वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया का नेशनल वाइल्डलाइफ डेटाबेस कहता है कि हमारे यहां 981 प्रोटेक्टेड इलाके हैं. इसमें 566 अभयारण्य, 106 नेशनल पार्क, 214 कम्युनिटी रिजर्व और 97 कंजर्वेशन रिजर्व हैं. सब मिलाकर ये पूरे देश की जमीन का 5 प्रतिशत से ज्यादा है. लेकिन बस इतना ही. बाकी हिस्से पर इंसानों का कब्जा है और वो अपने मुताबिक इसमें भी कम-ज्यादा करता रहता है.
तो क्या जंगल सफारी बंद करा दी जानी चाहिए?
एक्सपर्ट्स के अलग-अलग तर्क हैं. कुछ पशुप्रेमी मानते हैं कि जानवर कोई सर्कस की चीज नहीं कि जिन्हें देखने के लिए हम जाएं. जाने तक भी बात खत्म नहीं होती. शेर या भालू सड़क पर आ जाएं, इसे पक्का करने के लिए भी कई प्राइवेट संस्थाएं अलग-अलग तरीके अपनाती हैं ताकि टूरिस्ट खुश होकर लौटें. ये अपने में हिंसा है.
इकनॉमी को बड़ा फायदा
कुछ लोग मानते हैं कि वाइल्डलाइफ टूरिज्म चलते रहना चाहिए. इससे जो कमाई होती है, वो जानवरों और जंगलों के संरक्षण में ही जाती है. मिसाल के तौर पर रणथंभोर नेशनल पार्क को लें, तो इसमें एंट्री फीस के तौर पर ही जो रकम आती है, वो सालाना 20 करोड़ से ज्यादा है. इसके बाद होटल, खानापीना, गाइड, ड्राइविंग के पैसे अलग से होते हैं. टाइगर टूरिज्म के बारे में अंदाजा लगाया जाता रहा कि इससे हर साल 5 सौ से 6 सौ करोड़ रुपयों की कमाई होती होगी, हालांकि इसका पक्का डेटा कहीं उपलब्ध नहीं. इससे लोकल इकनॉमी भी चलती रहती है. जैसे आसपास रहने वाले लोग खाना-पीना, चाय-पानी के जरिए कमाते हैं.
तब क्या किया जा सकता है?
शहरों से जंगली जानवरों को देखने आए लोग अक्सर कैमरा या मोबाइल फोन लिए रहते हैं ताकि दिखते ही जानवरों की वीडियो बनाई जा सके. कई बार वे इस फेर में जानवरों के बहुत करीब पहुंच जाते हैं. यहीं से हमले का डर शुरू होता है. कैमरा के फ्लैश और गाड़ी समेत इंसानों के बेहद करीब आ चुके पशु अचानक हमलावर हो सकते हैं. या डर से खुद को भी चोट पहुंचा सकते हैं. इस तरह के कई हादसों को देखते हुए महाराष्ट्र के ताडोबा नेशनल पार्क ने मोबाइल फोन पर ही पाबंदी लगा दी. वहां जंगल सफारी के दौरान इसका इस्तेमाल वर्जित है.
संवेदनशील होने की जरूरत पर जोर दे रहे कई पार्क्स
लोगों को ज्यादा संवेदनशील बनने की भी जरूरत है ताकि वे खुद ही जानवरों के ज्यादा पास जाना छोड़ दें. कई जगहों पर अलग-अलग तरह से सेंसिटाइजेशन प्रोग्राम चलाया जा रहा है. इसमें प्रवेश के दौरान ही सैलानियों को बताया जाता है कि फलां पार्क की टोपोग्राफी कैसी है और जानवरों का दिखना किस हद तक मुमकिन है. जैसे नॉर्थ-ईस्टर्न इलाकों में घास इतनी लंबी और सघन होती है कि पशु नजर नहीं आते हैं. ऐसे में जानबूझकर फोटो क्लिक करने के लिए खतरा लेना ठीक नहीं. कई जगहों पर गाड़ियों की स्पीड लिमिट और वॉल्यूम तय हो चुका है. किसी तरह के म्यूजिक बजाने पर पाबंदी है.
क्या इंसानों को देखकर सारे जानवर हिंसक हो जाते हैं?
ऐसा नहीं है. बल्कि हम उनसे जितना डरते हैं, वे हमसे उससे कहीं ज्यादा खौफ खाते हैं. इसकी एक वजह हमारा बाईपेडल होना यानी दो पैरों पर चलना भी है. ऐसे में हम उन्हें ज्यादा लंबे-चौड़े या अपने से अलग लगते हैं. यही वजह है कि अधिकतर जंगली पशु हमपर तब तक हमला नहीं करते, जब तक कि हम उन्हें छेड़े या डराएं नहीं. वैसे बाईपेडलिज्म के अपने खतरे भी हैं, हम चाहकर भी चार पैरों वाले जीवों से तेज नहीं भाग सकते. ऐसे में हमला होने पर अधिकतर समय इंसान ही घायल होते हैं.