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धारा 377 पर सरकार ने कहा- सुप्रीम कोर्ट ही ले उचित फैसला, सुनवाई जारी

समलैंगिकता को अपराध के तहत लाने वाली आईपीसी की धारा 377 की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को भी सुनवाई होनी है. मंगलवार को कोर्ट में समलैंगिकता को अपराधमुक्त करने की मांग कर रहे याचिकाकर्ताओं के वकीलों के तर्क सुने गए.

सांकेतिक तस्वीर सांकेतिक तस्वीर
भारत सिंह/अनुषा सोनी
  • नई दिल्ली,
  • 11 जुलाई 2018,
  • अपडेटेड 9:44 AM IST

समलैंगिकता को अपराध के तहत लाने वाली आईपीसी धारा 377 की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को सुनवाई हो रही है. मंगलवार को कोर्ट में समलैंगिकता को अपराधमुक्त करने की मांग कर रहे याचिकाकर्ताओं के वकीलों के तर्क सुने गए.

इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ कर रही है. पीठ के पांच जजों में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा चार और जज हैं, जिनमें आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं.

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इससे पहले, देश की सर्वोच्च अदालत ने सोमवार को इस मामले की सुनवाई में देरी से इनकार कर दिया था. केंद्र सरकार चाहती थी कि इस मामले की सुनवाई कम से कम चार हफ्तों बाद हो. लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसपर सहमत नहीं हुआ.

बुधवार की सुनवाई के LIVE अपडेट-

- याचिकाकर्ताओं के वकील जान्या कोठारी ने अदालत को बताया कि किस तरह से धारा 377 किस तरह से ट्रांसजेंडरों के जीवन को प्रभावित कर रहा है, अभी इसका अध्ययन किया जाना बाकी है.

- आनंद ग्रोवर ने याचिकाकर्ताओं की ओर से बहस को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ये केस नैतिकता की परिभाषा को बदलने के लिए है.

- धारा 377 सेक्शुअल अल्पसंख्यकों के सामाजिक, राजनीतिक या किसी अन्य एसोसिएशन के गठन के अधिकार का हनन करती है. मौजूदा कानून उनकी जिंदगी को परेशान करता है और वे अपनी मान्यता चाहते हैं. देश में नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक नागरिकता चाहते हैं.

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- मेनका के इस जवाब पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने कहा कि अगर ये हमें बताया गया होता तो यहां से साइन करा दिए जाते.

- मेनका ने उदाहरण दिया कि एलजीबीटी के साथ भेदभाव ऐसे होता है कि नोटरी ने याचिकाकर्ता के हलफनामे पर साइन करने से इनकार किया था. इसके बाद विशाखापट्टनम से साइन कराए गए. वह चीफ जस्टिस के पूर्व में पूछे सवाल का जवाब दे रही थीं.

- मेनका गुरुस्वामी ने कहा- धारा 377 आस्तित्व में नहीं रह सकती. ये नैतिकता के खिलाफ है क्योंकि इससे लैंगिक अल्पसंख्यकों के राजनीतिक और  सामाजिक अधिकारों का हनन हो रहा है.

- सुप्रीम कोर्ट में फिर से सुनवाई शुरू.

- सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की आगे की सुनवाई दोपहर दो बजे करेगा.

- सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने से देश का समाज एलजीबीटी समुदाय के लोगों की मदद करने को प्रेरित होगा और ये लोग भी अपनी जिंदगी उल्लास से जी सकेंगे.

- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर देने के बाद एलजीबीटी समुदाय के लोग बिना किसी परेशानी और संकोच के चुनावों में हिस्सा ले सकेंगे.

- ऐडवोकेट मेनेका गुरुस्वामी ने कहा कि लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल और ट्रांसजेंडर इस देश के संविधान और सुप्रीम कोर्ट से सुरक्षा पाने के अधिकारी हैं. धारा 377 एलजीबीटी समुदाय को समान अवसर और सहभागिता से रोकता है.

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- चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा ने पूछा कि क्या ऐसा कोई नियम है जिससे समलैंगिकों को नौकरी देने से रोका जाता है?

- याचिकाकर्ताओं की ओर से ऐ़डवोकेट मेनेका गुरुस्वामी ने कहा कि समलैंगिकता से किसी के करियर या उन्नति में कोई असर नहीं पड़ता है. समलैंगिकों ने सिविल सर्विस कमीशन, आईआईटी और दूसरी शीर्ष प्रतियोगी परीक्षाएं पास की हैं.

- इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि हम यौन व्यवहारों के बारे में नहीं कह रहे. हम ये चाहते हैं कि अगर दो गे मरीन ड्राइव पर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर टहल रहे हैं तो उन्हें अरेस्ट नहीं किया जाना चाहिए.

- तुषार मेहता ने कहा कि पशुओं के साथ या सगे संबंधियों के साथ यौन संबंध बनाने की इजाजत नहीं होनी चाहिए.

- चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में संविधान पीठ ने दिए संकेत- दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति के आधार पर समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जा सकता है.

- केंद्र सरकार ने कहा कि समलैंगिकों के बीच शादी विवाह या लिव इन को लेकर सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला ना दे.

- तुषार मेहता ने अपील की कि ऐसा कुछ न कहा जाए जिससे गलत व्याख्या हो.

- चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा ने कहा- इस मामले को समलैंगिकता ही सीमित न रखकर वयस्कों के बीच सहमति से किए गए कार्य जैसी व्यापक बहस तक ले जाया जा सकता है.

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- केंद्र सरकार की ओर से कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट बच्चों के खिलाफ हिंसा और शोषण को रोकना सुनिश्चित करे.

- केंद्र सरकार ने कहा है कि धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट अपने विवेक से फैसला ले.

- तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से इस मामले में हलफनामा पेश किया है.

- केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता अपनी बात रख रहे हैं.

(फोटो- मोहसिन)

मंगलवार को क्या हुआ सुनवाई में

याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए अरविंद दातार ने कहा कि 1860 का समलैंगिकता का कोड भारत पर थोपा गया था. यह तत्कालीन ब्रिटिश संसद का इच्छा का प्रतिनिधित्व भी नहीं करता था. उन्होंने कहा, 'अगर यह कानून आज लागू किया जाता तो यह संवैधानिक तौर पर सही नहीं होता.' इस पर कोर्ट ने उनसे कहा- आप हमें भरोसा दिलाइए कि अगर आज की तारीख में कोई ऐसा कानून बनाया जाता है तो यह स्थायी नहीं होगा.

अरविंद दातार ने कहा, 'अगर किसी व्यक्ति का यौन रुझान अलग है तो इसे अपराध नहीं कहा जा सकता. इसे प्रकृति के खिलाफ नहीं कहा जा सकता. समलैंगिकता बीमारी नहीं है. यौन रुझान और लैंगिक पहचान दोनों समान रूप से किसी की प्राकृतिक प्रवृत्ति के तथ्य हैं.' बेंच में इकलौती जज इंदु मल्होत्रा ने कहा कि समलैंगिकता केवल पुरुषों में ही नहीं जानवरों में भी देखने को मिलती है. वह दातार के समलैंगिता को सामान्य और अहिंसक बताने और मानवीय यौनिकता का एक रूप बताने पर टिप्पणी कर रही थीं.

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केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यह केस धारा 377 तक सीमित रहना चाहिए. इसका उत्तराधिकार, शादी और संभोग के मामलों पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए. इस पर मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने टिप्पणी की कि यह मामला केवल धारा 377 की वैधता से जुड़ा हुआ है. इसका शादी या दूसरे नागरिक अधिकारों से लेना-देना नहीं है. वह बहस दूसरी है.

पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी याचिकाकर्ताओं की ओर से धारा 377 को हटाने के लिए पेश हुए. उन्होंने कहा, 'धारा 377 के होने से एलजीबीटी समुदाय अपने आप को अघोषित अपराधी महसूस करता है. समाज भी इन्हें अलग नजर से देखता है. यौन रुझान और लिंग (जेंडर) अलग-अलग चीजें हैं. यह केस यौन प्रवृत्ति से संबंधित है. इस केस में जेंडर का कोई लेना-देना नहीं है. यौन प्रवृत्ति का मामला पसंद से भी अलग है. यह प्राकृतिक होती है. यह पैदा होने के साथ ही इंसान में आती है. पश्चिमी दुनिया में इस विषय पर शोध हुए हैं. इस तरह की यौन प्रवृत्ति के कारण वंशानुगत होते हैं. धारा 377 'प्राकृतिक' यौन संबंध के बारे में बात करती है. समलैंगिकता भी प्राकृतिक है, यह अप्राकृतिक नहीं है.'

रोहतगी ने कहा, 'धारा 377 मानवाधिकारों का हनन करती है. समाज के बदलने के साथ ही नैतिकताएं बदल जाती हैं. हम कह सकते हैं कि 160 साल पुराने नैतिक मूल्य आज के नैतिक मूल्य नहीं होंगे. ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के 1860 के नैतिक मूल्यों से प्राकृतिक सेक्स को परिभाषित नहीं किया जा सकता है. प्राचीन भारत की नैतिकता विक्टोरियन नैतिकता से अलग थी.

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वेणुगोपाल नहीं रखेंगे सरकार का पक्ष

अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने समलैंगिकता के मुद्दे से जुड़ी विभिन्न याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रिव्यू याचिका की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया. बता दें कि अटॉर्नी जनरल की जगह मंगलवार को अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार का पक्ष रखा.

केके वेणुगोपाल ने कहा है कि उनकी राय इस मामले में केंद्र सरकार से अलग है, इसलिए वह इस मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से पेश नहीं होंगे.

इस बारे में पूछे जाने पर वेणुगोपाल का साफ शब्दों में कहा, 'मैंने सरकार का जो पक्ष रखा था अब सरकार की राय उससे भिन्न है. यही वजह है कि मैं इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने पेश नहीं हो रहा हूं. कायदे से हो भी नहीं सकता. वैसे मेरी अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से इस मुद्दे के तकनीकी और कानूनी पहलुओं के साथ दलीलों और तर्कों पर काफी गंभीर चर्चा हुई है.'

के के वेणुगोपाल ने कहा कि दिल्ली हाईकोर्ट में मामले की सुनवाई कर फैसला देने वाले जज काफी अनुभवी होकर सुप्रीम कोर्ट आ चुके हैं.

जेटली की भी अलग है सरकार से राय

केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली पहले ही धारा 377 को हटाने की वकालत कर चुके हैं. जेटली ने 2015 में ही कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को आईपीसी की धारा 377 पर पुनर्विचार करना चाहिए. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को समलैंगिकता के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला नहीं बदलना चाहिए था.

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जेटली का कहना था कि होमोसेक्शुअलिटी पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला दुनिया भर में लिए जा रहे कानूनी फैसलों से मेल नहीं खाता है. उन्होंने कहा था कि दुनिया भर में लोग अलग-अलग सेक्शुअल ओरियंटेशन्स को अपना रहे हैं. ऐसे में किसी को सेक्शुअल रिलेशंस के आधार पर जेल भेजना बहुत पुराना ख्याल लगता है.

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