
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी आजकल उत्तर प्रदेश की यात्रा पर हैं. वो यहां किसान यात्रा निकाल रहे हैं और इसके जरिए सियासत की बिसात पर अपनी पार्टी की पुनर्स्थापना का प्रयास कर रहे हैं. इस प्रदेश व्यापी यात्रा की शुरुआत उन्होंने पूर्वांचल के देवरिया जिले से की और अंत दिल्ली की जमीन पर होगा.
किसान की बात कर रहे राहुल ने जब देवरिया से अपनी यात्रा शुरू की तो आशीर्वाद लेने के लिए रुद्रपुर के दुधनाथ बाबा के मंदिर जा पहुंचे. देवरिया से राहुल गोरखपुर गए. शुक्रवार को वो फैजाबाद होते हुए अयोध्या आ पहुंचे और यहां प्रसिद्ध हनुमानगढ़ी मंदिर में दर्शन-अर्चन किया और फिर महंत ज्ञानदास से एक बंद कमरे में मुलाकात भी की.
हनुमानगढ़ी से बाहर निकलते राहुल के माथे पर तिलक था और आंखों में चमक. वो बिना कुछ बोले ही वहां से आगे बढ़ गए. दरअसल, वो कुछ बोलकर किसी दूसरे संदेश में फंसना नहीं चाहते थे. राहुल की ओर से उनके मत्थे पर लगा तिलक ही संदेश था. यह संदेश एक संप्रदाय विशेष के लिए भी है और एक जाति विशेष के लिए भी.
राहुल दरअसल यहां दोहरा कार्ड खेल रहे हैं. उनकी यात्रा तो किसानों पर केंद्रित है लेकिन निगाहें अगड़ों के वोट पर है. खासकर ब्राह्मण वोट बैंक को रिझाने में राहुल और कांग्रेस पार्टी कोई कोरकसर नहीं छोड़ रहे. कांग्रेस पार्टी पहले ही दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों के लिए अपना प्रत्याशी घोषित कर चुकी है. शीला दीक्षित ब्राह्मण हैं और प्रदेश के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार की बहू हैं.
जिस दौरान राहुल पंडितों की दहलीज माने जाने वाले इन जिलों में यात्रा कर रहे थे और मंदिर में मत्था टेकते आगे बढ़ रहे थे, शीला दीक्षित मिर्जापुर में मां विंध्यवासिनी मंदिर में आशीर्वाद लेने पहुंची हुई थीं. ऐसा अचानक ही नहीं हुआ है कि कांग्रेस के नेतृत्व का ईष्टप्रेम जागृत हो गया है. इन छवियों में एक संदेश है और वो संदेश स्पष्ट रूप से ब्राह्मणों के लिए है.
जाति का तिलक
राहुल और कांग्रेस के इस ब्राह्मण प्रेम को समझने के लिए सूबे की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को भी समझना पड़ेगा. 2014 की लोकसभा में 73 सांसदों के साथ सूबे से इतिहास रचने वाली भारतीय जनता पार्टी की विधानसभा में स्थिति दयनीय है. उनके पास 403 विधानसभा सीटों वाले सूबे में केवल 10 प्रतिशत सीटें हैं. बीजेपी अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में इस वनवास को खत्म करना चाहती है.
इसके लिए बीजेपी का गणित जिस जातिगत आकलन पर आधारित है, उसमें दलित और मुस्लिम वोट न के बराबर हैं. यादवों के भी वोटों में भाजपा किसी बड़ी सेंधमारी की स्थिति में है, ऐसा कहना अतिश्योक्ति ही होगा.
बीजेपी का आधार अगड़ों का वोट है. ऐसा ही बिहार में था और ऐसा ही उत्तर प्रदेश में भी. बाकी की उम्मीद अन्य पिछड़ों और अति पिछड़ों से हासिल हो पाने वाले वोटों पर निर्भर करती है. ऐसे में अगर किसी पार्टी को लगता है कि उसे बीजेपी का रथ रोकना है तो उसे सबसे पहले उनके कोर वोटबैंक यानी अगड़ों के बीच उपस्थिति को कमजोर करना होगा.
कांग्रेस इसी आकलन के हिसाब से अपनी चुनावी रणनीति तैयार कर रही है. अगड़ों में ब्राह्मण एक लंबे समय से कांग्रेस का पारंपरिक वोटर रहा है. जैसे-जैसे कांग्रेस कमजोर पड़ी, यह आधार खिसकता रहा. लेकिन इस बार शीला दीक्षित का तुरुप खेलकर कांग्रेस ने ब्राह्मणों को वापस रिझाना शुरू कर दिया है.
कांग्रेस अगर ब्राह्मणों का वोट काट पाने में सफल रही तो इससे भाजपा के मज़बूत होने की संभावनाएं झीण होंगी और उत्तर प्रदेश से दोबारा वो संदेश दोहराया जा सकेगा जो बिहार में महागठबंधन का हिस्सा बनकर कांग्रेस दे पाई थी. 2017 की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस और उसके अभियान प्रबंधक प्रशांत किशोर की नज़र दरअसल 2019 के चुनाव पर है और 2017 का उत्तर प्रदेश चुनाव उस दिशा में खासा निर्णायक है.
इसे इस तरह से भी देखें कि जिस कांग्रेस पार्टी के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार का 10 वर्षों के दौरान ज्यादा ध्यान मजदूरों, भूमिहीनों पर केंद्रित था वो पार्टी आज किसानों की बात ज्यादा कर रही है. दरअसल, संख्या में कम होते हुए भी जमीनों पर अधिकार अगड़ों के पास ज्यादा है. उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, ठाकुर और यादवों के पास खासी जमीनें हैं. जिस कर्जमाफी का नारा कांग्रेस यूपी में दोहरा रही है, वो अगड़ों को ज्यादा लाभान्वित करेगा, पिछड़ों, दलितों को कम.
राहुल किसानों के साथ खाट डालकर बैठे हैं. लेकिन माथे पर तिलक है और नज़रों में अपना पुराना जनाधार. बीजेपी के लिए यह निश्चित रूप से चिंता का विषय है.