
जिस तरह 'उमर खय्याम की रुबाइयों को पत्थर पर लिख देने से उनके मायने नहीं बदल जाते' उसी तरह हालावाद के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हरिवंश राय बच्चन की केवल इसलिए आलोचना नहीं की जा सकती कि उन्होंने 'मधुशाला' से मदिरा को महिमा मंडित किया था. हमें भूलना नहीं चाहिए कि हिंदी साहित्य में 'हालावाद' की शुरुआत 'छायावाद' के तुरंत बाद हुई थी. दुख और निराशा का एक दौर बीत चला था, और मानव के सारे दुःख, सारी निराशा और सारी कठिनाइयां इसी 'हालावाद' की मस्ती में तिरोहित हो गईं. बचा तो सिर्फ प्रेम. 'मंदिर मस्जिद बैर कराते, प्रेम कराती मधुशाला' शराब का अधिक महिमामंडन करती है या धर्मस्थलों के वैमनस्य को अधिक उजागर करती है, इसके बारे में सभी अपनी सोच के हिसाब से अपनी बात कह सकते हैं, पर इतना तय है कि इस दौर में आई 'मधुशाला' हालावाद की उत्कृष्ट कृति है, क्योंकि यह जितनी लोकप्रिय हुई उतनी उस दौर की कोई अन्य काव्य कृति नहीं हुई.
'मधुशाला' का जितना विरोध हुआ उससे कई गुना समर्थन मिला. आज हम मधुशाला की बात इसलिए कर रहे, क्योंकि इसके लेखक हरिवंश राय बच्चन आज ही की तारीख 27 नवंबर, 1907 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में जन्मे थे. कायस्थ हरिवंश राय को बचपन में उनकी शरारतों के चलते 'बच्चन' कहा जाने लगा, जिसे बाद में हरिवंश राय ने अपने साथ जोड़े रखा और हरिवंश राय बच्चन के नाम से ही जाने गए.
उर्दू-अंग्रेजी में पढ़े थे हरिवंश राय बच्चन, ये थीं प्रमुख रचनाएं
हरिवंश राय बच्चन की शुरुआती शिक्षा उर्दू में हुई. फिर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एम. ए. किया. वह कई सालों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में प्राध्यापक रहे. बाद में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी के कवि यीट्स पर पी.एच.डी. किया. वह कुछ समय तक आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से भी जुड़े रहे और फिर 1955 में विदेश मंत्रालय से हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में जुड़कर दिल्ली चले आये. 'बच्चन' की कविता के साहित्यिक महत्त्व के बारे में अनेक मत हैं, पर उनकी विलक्षण लोकप्रियता विवाद से परे है. उनकी कविताएं सर्वग्राह्य और सर्वप्रिय हैं. वह उर्दू तो पढ़े ही थे, खय्याम की रुबाइयों का अनुवाद भी किया था. इसीलिए वह उर्दू गज़लों की चमक और लचक, सहजता और संवेदना तथा सीधे दिल पर असर करने की उसकी ताक़त से वाकिफ थे.
'बच्चन' ने साल 1935 से 1940 के दौर के विक्षुब्ध, वेदनाग्रस्त मध्यवर्ग के मन की वाणी को जैसे उसकी आवाज दे दी थी. हालांकि बच्चन की एक किताब 'तेरा हार' साल 1932 में प्रकाशित हो चुकी थी, पर 1935 में छपी 'मधुशाला' को ही उनकी पहली किताब माना जाता है. इसके प्रकाशन के साथ ही 'बच्चन' साहित्य जगत पर छा गए. 'मधुशाला', 'मधुबाला' और 'मधुकलश'- एक के बाद एक तीन संग्रह शीघ्र आए जिन्हें 'हालावाद' का प्रतिनिधि ग्रंथ कहा जा सकता है.
हरिवंश राय बच्चन के कविताओं की खासियत यह है कि उन्होंने इनसानी जीवन की नीरसताओं को स्वीकार करते हुए भी उनसे मुंह मोड़ने के बजाय उसे खुशी मन से अपनाने की प्रेरणा दी. यह एक तरह का भौतिकवादी अध्यात्म ही तो था. समूचा भारतीय दर्शन 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की अवधारणा पर बल देता रहा है. जीवन पलायनवाद नहीं है, क्योंकि इसमें वास्तविकता का अस्वीकरण नहीं है, न ही उससे भागने की परिकल्पना है. यह सच है कि बच्चन की इन कविताओं में डूबने के बुलावे के साथ ही रूमानियत और क़सक़ भी शामिल है, पर उनका हालावाद ग़म ग़लत करने का निमंत्रण भर नहीं है; न ही ग़म से घबराकर ख़ुदक़शी करने का बुलावा...उनके बुलावे में एक मस्ती है, और जीवन की कड़वी से कड़वी सच्चाई को खुले दिल से स्वीकारने का साहस. शायद इसकी वजह उनके अपने अनुभव थे.
जब बिग बी ने हरिवंश राय से पूछा, 'मुझे पैदा ही क्यों किया', ये मिला जवाब
बच्चन अपने तब तक के जीवन में, अपने युवाकाल के आदर्शों और स्वप्नों के टूटने के दंश को झेल रहे थे. साल 1926 में 19 वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ जो उस समय 14 वर्ष की थी. हरिवंश राय पढ़ाई छोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन में क़ूद पड़े थे. एक छोटे से स्कूल में अध्यापक की नौकरी करते हुए वास्तविकता और आदर्श के बीच की गहरी खाई में डूब रहे थे. इस अभाव की दशा में पत्नी असाध्य रोग से ग्रस्त हो गईं. 1936 में टी.बी से उनकी मौत हो गई. 'बच्चन' का कवि मन अधिकाधिक अंतर्मुखी होता गया. कविता संग्रह 'निशा निमंत्रण' तथा 'एकान्त संगीत' इसी दौर की रचनाएं हैं. पाँच साल बाद 1941 में बच्चन ने तेजी सूरी से शादी की, जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं. इसके बाद बच्चन को अच्छी नौकरी भी मिली, साथ ही नया जीवनसाथी भी, तो 'नीड़ का पुनर्निर्माण' जैसी कविताओं की रचना हुई. तेजी बच्चन ने हरिवंश राय बच्चन द्वारा 'शेक्सपीयर' के अनुदित कई नाटकों में अभिनय किया है.
सामान्य बोलचाल की भाषा को कविता की गरिमा प्रदान करने का श्रेय बच्चन को ही जाता है. उन्होंने काव्यपाठ की मार्फत भी हिन्दी में कवि सम्मेलन की परम्परा को सुदृढ़ और जनप्रिय बनाने में असाधारण योगदान किया. इस तरह वे अपने पाठकों-श्रोताओं के और भी निकट आ गये. कविता के अलावा उन्होंने समीक्षात्मक निबन्ध भी लिखे और अनुवाद भी किया. यहां गौर करने वाली बात यह है कि शायद अनुवाद ने उनके कवि मन और कर्म को और भी गहराई से उभारा. इसकी झलक उनके खुद के शब्दों में भी दिखती है. उमर ख़य्याम की रुबाइयों के अनुवाद के समय हरिवंश राय बच्चन ने एक लंबी भूमिका लिखी थी, उसके कुछ अंश यों हैं:
उमर ख़य्याम के नाम से मेरी पहली जान-पहचान की एक बड़ी मज़ेदार कहानी है. उमर ख़य्याम का नाम मैंने आज से लगभग 25 बरस हुए जब जाना था, उस समय मैं वर्नाक्यूलर अपर प्राइमरी के तीसरे या चौथे दरजे में रहा हूँगा. हमारे पिताजी 'सरस्वती' मंगाया करते थे. पत्रिका के आने पर मेरा और मेरे छोटे भाई का पहला काम यह होता था कि उसे खोलकर उसकी तस्वीरों को देख डालें. उन दिनों रंगीन तस्वीर एक ही छपा करती थी, पर सादे चित्र, फ़ोटो इत्यादि कई रहते थे. तस्वीरों को देखकर हम बड़ी उत्सुकता से उस दिन की बाट देखने लगते थे, जब पिताजी और उनकी मित्र-मंडली इसे पढ़कर अलग रख दें. ऐसा होते-होते दूसरे महीने की 'सरस्वती' आने का समय आ जाता था. उन लोगों के पढ़ चुकने पर हम दोनों भाई अपनी कैंची और चाकू लेकर 'सरस्वती' के साथ इस तरह जुट जाते थे, जैसे मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी मुर्दों के साथ. एक-एक करके सारी तस्वीरें काट लेते थे. तस्वीरें काट लेने के बाद पत्रिका का मोल हमको दो कौड़ी भी अधिक जान पड़ता. चित्रों के काटने में जल्दबाजी करने के लिए, अब तक याद है, पिताजी ने कई बार 'गोशमाली' भी की थी.
उन्हीं दिनों की बात है, किसी महीने की 'सरस्वती' में एक रंगीन चित्र छपा था- एक बूढ़े मुस्लिम की तस्वीर थी, चेहरे से शोक टपकता था; नीचे छपा था- उमर ख़य्याम. रुबाइयात के किस भाव को दिखाने के लिए यह चित्र बनाया गया था, इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता, इस समय चित्र की कोई बात याद नहीं है, सिवा इसके कि एक बूढ़ा मुस्लिम बैठा है और उसके चेहरे पर शोक की छाया है. हम दोनों भाइयों ने चित्र को साथ-ही-साथ देखा और नीचे पढ़ा 'उमर ख़य्याम'. मेरे छोटे भाई मुझसे पूछ पड़े, "भाई, उमर ख़य्याम क्या है?" अब मुझे भी नहीं मालूम था कि उमर ख़य्याम के क्या माने हैं. लेकिन मैं बड़ा ठहरा, मुझे अधिक जानना चाहिए. जो बात उसे नहीं मालूम है, वह मुझे मालूम है, यही दिखाकर तो मैं अपने बड़े होने की धाक उस पर जमा सकता था. मैं चूकने वाला नहीं था. मेरे गुरुजी ने यह मुझे बहुत पहले सिखा रखा था कि चुप बैठने से ग़लत जवाब देना अच्छा है.
मैंने अपनी अक्ल दौड़ायी और चित्र देखते ही देखते बोल उठा, "देखो यह बूढ़ा कह रहा है- उमर ख़य्याम, जिसका अर्थ है 'उमर ख़त्याम', अर्थात उमर ख़तम होती है, यह सोचकर बूढ़ा अफ़सोस कर रहा है." उन दिनों संस्कृत भी पढ़ा करता था. 'ख़य्याम' में कुछ 'क्षय' का आभास मिला होगा और उसी से कुछ ऐसा भाव मेरे मन में आया होगा. बात टली, मैंने मन में अपनी पीठ ठोंकी, हम और तस्वीरों को देखने में लग गये. पर छोटे भाई को आगे चलकर जीवन का ऐसा क्षेत्र चुनना था, जहाँ हर बात को केवल ठीक ही ठीक जानने की ज़रूरत होती है. जहाँ कल्पना, अनुमान या कयास के लिए सुई की नोक के बराबर भी जगह नहीं है. लड़कपन से ही उनकी आदत हर बात को ठीक-ठीक जानने की ओर रहा करती थी. उन्हें कुछ ऐसा आभास हुआ कि मैं बेपर उड़ा रहा हूँ. शाम को पिताजी से पूछ बैठे. पिताजी ने जो कुछ बतलाया उसे सुनकर मैं झेंप गया. मेरी झेंप को और अधिक बढ़ाने के लिए छोटे भाई बोल उठे, "पर भाई तो कहते हैं कि यह बूढ़ा कहता है कि उमर ख़तम होती है- उमर ख़य्याम यानी उमर ख़त्याम." पिताजी पहले तो हँसे, पर फिर गम्भीर हो गये; मुझसे बोले, "तुम ठीक कहते हो, बूढ़ा सचमुच यही कहता है." उस दिन मैंने यही समझा कि पिताजी ने मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह दिया है, वास्तव में मेरी सूझ ग़लत थी.
उमर ख़य्याम की वह तस्वीर बहुत दिनों तक मेरे कमरे की दीवार पर टंगी रही. जिस दुनिया में न जाने कितनी सजीव तस्वीरें दो दिन चमककर ख़ाक में मिल जाती हैं, उसमें उमर ख़य्याम की निर्जीव तस्वीर कितने दिनों तक अपनी हस्ती बनाये रख सकती थी! उमर ख़य्याम की तस्वीर तो मिट गयी पर मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ गयी. उमर ख़य्याम और उमर ख़तम होती है, यह दोनों बात मेरे मन में एक साथ जुड़ गयीं. तब से जब कभी भी मैंने 'उमर ख़य्याम' का नाम सुना या लिया, मेरे हृदय में वही टुकड़ा, 'उमर ख़तम होती है' गूज उठा. यह तो मैंने बाद में जाना कि अपनी ग़लत सूझ में भी मैंने इन दो बातों में एक बिल्कुल ठीक सम्बन्ध बना लिया था.
हरिवंश राय बच्चन को उनकी कृति 'दो चट्टाने' के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था. उन्हें 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के 'कमल पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था. बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी आत्मकथा के 'क्या भूलूं क्या याद करूं मैं' के लिये सरस्वती सम्मान से सम्मानित किया था, तो भारत सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया था. बच्चन की लोकप्रियता की ही देन है कि आज के मेगास्टार अमिताभ बच्चन अपने करियर के शुरुआती दिनों में एक से बढ़कर एक फ्लाप फिल्में देने के बाद भी मौके पाते गए और अंततः बिग बी के रूप में आज भी चमक रहे.
आखिर हम यही कह सकते हैं, कि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी कविताओं से जीवन और प्रेम से उपजे अवसाद को साहस में बदलने की पुरजोर कोशिश की. जिसकी बानगी उन्हीं की कविता 'जो बीत गई सो बात गई' की चंद पंक्तियों में, श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत हैः
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई