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साहित्य आज तक में बोले अनुपम- फेल होने पर पिता की पार्टी ने सिखाया सबक

साहित्य आज तक के महामंच के पहले सत्र (13 नवंबर) दिन रविवार में अभी बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता अनुपम खेर हम सभी से रू-ब-रू हुए. ऐसे में जानें कि आखिर उन्होंने क्या-क्या कहा...

Anupam Kher Anupam Kher
विष्णु नारायण
  • नई दिल्ली,
  • 13 नवंबर 2016,
  • अपडेटेड 11:51 PM IST

आज तक के साहित्यिक महाकुंभ, साहित्य आज तक के मंच पर 'नॉट ऐन एक्सीडेंटल नेशनलिस्ट' के सत्र में अपने श्रोताओं से रू-ब-रू हुए अनुपम खेर और फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो एक एक कर ज़िंदगी और करियर की परतें खुलती चली गईं.

अनुपम बताते हैं कि उन्होंने वर्ष 75 से 78 के बीच नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में पढ़ाई की है. दिल्ली की गलियों में घूमे और आज दिल्ली के सबसे बड़े मंच पर शुरुआती और अंतिम सत्र में श्रोताओं रू-ब-रू हो रहे हैं. उन्होंने कहा कि यह बेहतरीन समय है. कुछ और झलकियां-

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अलग-अलग समय में कैसे अलग-अलग किरदार कर लेते हैं, देशद्रोही और देशप्रेमी का किरदार...
मैं पहले टीवी टाइकून बनना चाहता था. मैं फैमिली में पहला इंसान था जिसने 1000 रुपये एक साथ देखे. पिता फॉरेस्ट विभाग में क्लर्क थे. एक समय तो ऐसा भी था कि मैं दिवालिया हो गया था. मुझे अपनी जीवनी को लिखने के दौरान एहसास हुआ कि मैं अपनी त्रुटियों पर बात कर सकता हूं. ऐसे में मैंने अपने प्ले के मंचन के दौरान ऐसा पाया कि कुछ भी हो सकता है. यही मेरा प्ले है. वहीं से मोटिवेशनल लेक्चर की शुरुआत हुई. हम अपनी खूबियों का बखान खुद ही करते हैं. मैं हमेशा से ही 38 फीसदी वाले कैटेगरी में रहा हूं. ऐसे में जब मैं यहां आ सकता हूं तो कोई भी यहां आ सकता है. मैं खुद से ही सीखने की कोशिश करता हूं और इस क्रम में मैं परेशान नहीं होता. मुझे ऊर्जा मिलती है.

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सबसे चैलेंजिंग रोल कौन था?
सारांश फिल्म में एक 28 वर्षीय नवयुवक एक 70 साल के बूढ़े का किरदार निभाना आसान नहीं था. वह बड़ा मुश्किल दौर था. वह सबसे यादगार रहा. उसके अलावा सबको हंसाना बड़ा मुश्किल रहा. एक अलझाइमर रोगी का किरदार निभाना बड़ा मुश्किल था. वहां गांधी का किरदार निभाना मुश्किल था. आज दर्शक को हंसाना बड़ा मुश्किल है. उसके अलावा खोसला का घोसला में निभाया गया किरदार महत्वपूर्ण कहा जा सकता है. वेडनेसडे फिल्म में निभाया गया किरदार भी महत्वपूर्ण रहा.

सोशलमीडिया के माध्यम से जनचेतना का जुड़ाव...
सोशल मीडिया पर आप बहुत कुछ सीखते हैं. वहां से आप तात्कालिक तौर पर बहुत कुछ सीखते हैं. आप अपना पक्ष रखते हैं और दूसरों का तर्क भी देखते-पढ़ते हैं.

बेबाकी से बोलना बॉलीवुड में दिक्कत देता है?
नहीं, ऐसा नहीं है. यहां सबके अपने एजेंडे हैं. आप अपनी सोच को सही साबित करने के क्रम में बहुत कुछ सीखते हैं. सोशल मीडिया पर चलने वाली बहसें हमें हमेशा कुछ नया ही सिखाती हैं. आज की जनरेशन का सेंस ऑफ ह्यूमर गजब का है.

अवॉर्ड वापसी के क्रम में आपका मोर्चा?
मुझे लगता है कि देश के लिए बोलने के लिए पहले मैं नागरिक हूं. यदि लोगों के पास अवॉर्ड वापस करने का अधिकार है तो मुझे उसका विरोध करने का अधिकार है. मैं देश की पैदाइश के बाद पैदा हुआ. मैं देश को अपनी मां के बजाय भाई मानता हूं. यदि लोगों को लगता है कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है तो किसी को भी लग सकता है कि ऐसा नहीं है.

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तात्कालिक तौर पर देखें तो कालाधन पर रोक को आप कैसे देखेंगे?
आप देखते हैं कि इसमें लोगों का नीयत क्या है. लोगों का इरादा क्या है. आप अमेरिका को देखें. वहां भी तो चीजें बदल गई न. ऐसे में कुछ भी हो सकता है. नीयत महत्वपूर्ण है.

आपकी नई किताब पर कुछ बताएं?
पिछले 2 साल के माहौल में एक लोकतांत्रिक सरकार की आलोचना करने का फैशन सा आ गया है. हम इमरजेंसी भूल गए हैं. 84 के दंगे याद नहीं है. आप कालाधन के मामले में नीयत की बात करते हैं मगर उसके पीछे के कार्यान्वयन की बात नहीं करते. मैं सरकार का यहां बचाव नहीं कर रहा. उसके लिए सरकार के मजबूत मंत्री काफी हैं.

क्या बॉलीवुड में कालाधन नहीं लग रहा?
अब पहले की तुलना में चीजें बदली हैं. अब कॉर्पोरेट वाले भी इस प्रक्रिया में शामिल हो गए हैं. लोगों को समय बिताने के लिए कुछ न कुछ चाहिए होता है. स्थापित लोगों को दिक्कत हो रही है. वे सहानुभूति दिखा रहे हैं मगर समानुभूति नहीं है. वे बस तमाशा खड़ी करने की कोशिश में हैं.
फेल होना तो एक इवेंट है. इंसान थोड़े न फेल होता है. मैं एक घोर आशावादी है. मैं एक बंद घड़ी के भी दो बार सही समय दिखाने में सही चीज पाता हूं. अभी तो हम 70 साल के ही हैं. हमारी जनरेशन पर अब सारा दारोमदार है. वे बेहतर करने की क्षमता रखते हैं. हमारे देश की ताकत है उम्मीद. हम बीते सालों में न जाने कितने ही घोटालों से होकर गुजरे हैं. हम बेहतरी की ओर बढ़ रहे हैं. हम अपने बच्चों को जूझना सिखाते हैं. हम अपने बच्चों को परिस्थितियों से लड़ना सिखाते हैं.

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अरविंद केजरीवाल का इस कालेधन (Demonetisation) पर कहना कि यह सही नहीं है, इस पर आप क्या कहेंगे?
वे पहली बार तो ऐसी बातें नहीं कह रहे. आज मैं उनसे व्यक्तिगत तौर पर असहमत हूं. वे काफी कुछ कर सकते थे मगर वे ऐसा करते नहीं दिखते. उन्हें मिला जनादेश अद्भुत था. वे हमेशा खुद को नरेन्द्र मोदी से कंपेयर करते हैं. उन्हें खुद के होने पर खुश होना चाहिए, मगर वे ऐसा नहीं करते. आज सर्जिकल स्ट्राइक पर पूरी दुनिया हमारे साथ खड़ी है. SAARC की इतनी बड़ी इवेंट कैंसिल हो गई. पाकिस्तान को आतंक के सवाल पर जलील होना पड़ा. कोई बुजुर्ग गर कुछ अच्छा कर रहा है तो सभी को उसके साथ खड़ा होना चाहिए. ऐसा करके हम अपने देश के साथ खड़े रहते हैं.

आज की परिस्थितियों में कहीं भी और कुछ भी हो सकता है. जैसे कि मैं एक फॉरेस्ट क्लर्क का लड़का था और आज आप सभी से रू-ब-रू हूं. आप धोनी फिल्म को देखें तो पाते हैं कि वह कहां और किन परिस्थितियों में खेलते हुए देश के सबसे सफलतम कप्तान बने. तो वे कहते हैं कि कुछ भी हो सकता है. मैंने अपने पिता के साथ गरीबी के दिन देखे. हम शिमला में रहेते थे और वहां के एक रेस्टूरेंट (अल्फा) में 6 माह के बाद ही सपरिवार जाते थे. वहां तीन चीजें ही ऑर्डर करते थे. वे मुश्किलों के दिन थे.

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एक बार मेरे पिता वहां दो माह के बाद ही ले गए. वह मेरी अपेक्षा के अनुरूप नहीं था. मेरे पिता ने वहां सारे पुराने ऑर्डर किए. मैंने पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि वे एजुकेशन बोर्ड गए थे और वहां उन्होंने मेरे फेल होने का रिजल्ट देखा है. मैं इस पर शॉक्ड था कि आखिर वे ऐसा क्यों कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि वे मेरा फेल्यूर (असफलता) सेलिब्रेट करने के लिए यहां आए हैं. आगे से उन्हें ऐसी परिस्थितियों में परेशान होने की जरूरत नहीं है. तो वे इस तरह की परिस्थितियों से जूझते हुए बड़े हुए हैं. जिसके पिता ने महज 16 साल की उम्र में ऐसे सबक सिखाए हों. उसे आगे कौन सी परिस्थितियां परेशान कर सकती है भला.

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