
जून 1991 में फिलीपींस स्थित माउंट पिनेताबू नाम के ज्वालामुखी में विस्फोट हुआ. 20वीं सदी के सबसे बड़े विस्फोट से फैली राख आसमान में लगभग 28 मील तक छा गई. इसके बाद से अगले 15 महीनों तक पूरी दुनिया का तापमान लगभग 1 डिग्री तक कम हो गया. राख के कारण सूरज की किरणें धरती तक नहीं पहुंच पा रही थीं. इसी बात ने वैज्ञानिकों को नया आइडिया दिया. उन्होंने सोचा कि अगर सूरज और वायुमंडल के बीच किसी चीज की एक परत खड़ी कर दी जाए तो सूरज की किरणें हम तक नहीं पहुंचेंगी.
इस चीज का छिड़काव होगा वायुमंडल में
सूरज की धूप को कम करने की तकनीक कुछ वैसे ही तरीके से काम करेगी, जैसे गर्म चीज पर किसी छिड़काव से वो जल्दी ठंडी होती है. सोलर जियोइंजीनियरिंग नाम से जानी जा रही इस प्रोसेस में साइंटिस्ट बड़े-बड़े गुब्बारों के जरिए वायुमंडल के ऊपर हिस्से (स्ट्रैटोस्फीयर ) पर सल्फर डाइऑक्साइड का छिड़काव करेंगे. सल्फर में वो गुण हैं, जो सूर्य की तेज किरणों को परावर्तित कर दे. माना जा रहा है कि इससे धरती को तेज धूप से छुटकारा मिल सकेगा.
कई दूसरी तकनीकों पर भी हो रहा काम
वैज्ञानिक सल्फर के छिड़काव के अलावा इस प्रक्रिया में कई दूसरे तरीके भी खोज रहे हैं. इनमें से एक है- स्पेस सनशेड तैयार करना. इस प्रोसेस में अंतरिक्ष में दर्पण जैसी किसी चीज के जरिए सूर्य की किरणों को परावर्तित करके दूसरी ओर मोड़ दिया जाएगा. कुछ और तरीके भी हैं, जैसे क्लाउड सीडिंग, जिसमें हवा में लगातार समुद्री पानी से बादल बनाकर नमी रखी जाएगी ताकि गर्मी न पहुंच सके. इसके अलावा कुछ छोटे विकल्प भी हैं, जिसमें इमारतों की छतों को सफेद रखा जाएगा.
दुनिया की कई कंपनियों ने सूरज की धूप को कम करने की तकनीक पर काम शुरू कर दिया है. हाल ही में ब्रिटिश एनजीओ डिग्रीज इनिशिएटिव ने एलान किया कि सोलर इंजीनियरिंग पर हो रहे शोध के लिए लगभग नौ लाख डॉलर (साढ़े सात करोड़ रुपए) दिए जाएंगे. फिलहाल कुल 15 देशों में ये रिसर्च हो रही है. इस एनजीओ के अलावा कई और संस्थाएं भी हैं, जो इसपर भरपूर फंडिंग कर रही हैं. वहीं ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड जैसे इंस्टीट्यूशन इसपर रिसर्च कर रहे हैं.
कम आय वाले देश हैं टारगेट
रिसर्च का सबसे हैरअंगेज पहलू ये है कि ग्लोबल वार्मिंग कम करने का दावा करने वाले इस प्रोजेक्ट के लिए सैंपल एरिया के तहत गरीब या कम आय वाले देशों को चुना गया है, जबकि ज्यादा प्रदूषण विकसित देश कर रहे हैं. इसे इस तरह से समझें कि एक औसत अमेरिकी सालभर में 14.7 मैट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करता है, जबकि एक आम भारतीय 1.8 मैट्रिक टन. ग्लोबल वार्मिंग के लिए बड़े देश ज्यादा जिम्मेदार हैं, लेकिन प्रयोग का टारगेट एरिया विकासशील देशों को बनाया जा रहा है. बहुत से वैज्ञानिक इसपर भी एतराज उठा रहे हैं.
मैक्सिको ने लगा दिया प्रयोग पर बैन
साल 2022 के आखिर में एक स्टार्टअप कंपनी मेक सनसेट्स, जो सोलर जियोइंजीनियरिंग पर काम कर रही है, ने दो बड़े गुब्बारे मैक्सिको के आसमान पर भेजे. सल्फर डाइऑक्साइड से भरे ये बैलून कथित तौर पर सूरज की धूप को कम करने जा रहे थे, लेकिन मैक्सिको सरकार ने अपने यहां तुरंत इस प्रयोग पर बैन लगा दिया. उसका कहना है कि वायुमंडल की परत को किसी जहरीली गैस से ढंकना भले ही क्लाइमेट चेंज को रोकने का विकल्प दिखे, लेकिन असल में ये काफी खतरनाक हो सकता है.
क्या खतरे हैं प्रयोग के
सबसे छोटी मुश्किल से शुरू करें तो वायुमंडल में हमेशा कुछ एरोसोल्स रहेंगे, जिससे नीला आसमान दिखना बंद हो जाएगा. लेकिन इसके बड़े खतरे भी हैं. सल्फर डाइऑक्साइड अपने-आप में जहरीली गैस है, जिससे सांस की कई बीमारियां हो सकती हैं. ऐसे में हवा में पूरे समय इसके कण रहना सेहत पर गंभीर खतरा लाएगा.
मेसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिक दावा करते हैं कि इस गैस की वजह से सूरज की धूप आर्टिफिशियल ढंग से परावर्तित हो जाएगी. इससे सूखा और अकाल की आशंका बढ़ जाएगी. सबसे बड़ा खतरा ये है कि सल्फर के चलते ओजोन लेयर पर असर होगा. इससे हमें खतरनाक अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाने वाली ये परत पतली होती जाएगी, जिससे कैंसर जैसी घातक बीमारी का डर बढ़ता ही जाएगा.