
सियासी मैदान में यूं तो पक्की दोस्ती या दुश्मनी जैसा कुछ नहीं होता लेकिन दुश्मन का दुश्मन फिर भी दोस्त हो सकता है. जब सामने भगवा पताका का ऐसा विजय रथ हो जिसके सारथि मोदी और अमित शाह सरीखे नेता हों तो विपक्षी पार्टियों के लिए ये बात और भी प्रासंगिक हो जाती है. यही वजह है कि विपक्षी खेमे से उठ रहे सुर इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि खुद को धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले राजनीतिक धड़े ने अभी से अगले आम चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है.
यूपी की जमीन पर विपक्षी महागठबंधन के बीज?
शनिवार को पार्टी के सदस्यता अभियान का आगाज कर रहे पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने कहा, ' आने वाले समय में देश में जो भी गठबंधन बनेगा, समाजवादी पार्टी उसमें अहम भूमिका निभाएगी.' इससे ठीक एक रोज पहले अखिलेश यादव की धुर विरोधी मायावती ने भी साफ किया था कि वो बीजेपी को हराने के लिए किसी भी पार्टी से हाथ मिलाने को तैयार हैं. समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक मायावती ने कहा कि 'ईवीएम में गड़बड़ी के खिलाफ संघर्ष में उन्हें किसी भी पार्टी से समर्थन लेने में परहेज नहीं है.'
ऐसा हर रोज नहीं होता जब एक दूसरे से आंख में आंख मिलाकर ना देखने वाली समाजवादी पार्टी और बीएसपी एक जैसे सियासी सुर लगाएं. जाहिर है 2014 और 2017 के बाद अब दोनों पार्टियों को अस्तित्व बचाने की चिंता सता रही है. विचारधारा के मसलों से तो बाद में भी निपटा जा सकता है. 2017 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि अगर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन के साथ बीएसपी भी आ मिली होती तो शायद नतीजे इतने एकतरफा नहीं होते.
दूसरी पार्टियों में भी बढ़ी बेचैनी
लेकिन अस्तित्व की चिंता कई दूसरे क्षत्रपों को भी सता रही है. शनिवार को ही भुवनेश्वर में बीजेपी की 2 दिनों की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही है. बैठक में ना सिर्फ नवीन पटनायक की डेढ़ दशक से ज्यादा पुरानी सत्ता को बदलने की रणनीति बन रही है बल्कि उत्तर-पूर्व में पार्टी की जमीन मजबूत करने पर भी विचार हो रहा है. हालिया स्थानीय चुनावों में बीजेपी के शानदार प्रदर्शन ने ओडिशा के मुख्यमंत्री की चिंता जरूर बढ़ाई होगी. कुछ ऐसा ही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के बारे में कहा जा सकता है. राज्य में बीजेपी के लगातार बढ़ते ग्राफ से निपटने में तृणमूल की कोई तरकीब काम नहीं आ रही है. कुल मिलाकर 2019 के सियासी महाभारत से पहले हालात ऐसे बन रहे हैं जहां क्षेत्रीय पार्टियों को वजूद की लड़ाई में साथ आना पड़ सकता है. बिहार में इस तरह का गठबंधन कामयाब हो चुका है. हालांकि देश की राजनीति में अलग-अलग रवैये और सोच की इन पार्टियों को एक धुरी की जरूरत होगी और फिलहाल कांग्रेस ही ये भूमिका निभा सकती है.
कौन करेगा विपक्षी गठबंधन की अगुवाई?
विपक्षी खेमे में ऐसे ही बीजेपी-विरोधी मोर्चे का नेतृत्व तलाशने के संकेत भी मिलने लगे हैं. हाल ही में कई विपक्षी नेता एनसीपी नेता शरद पवार की आत्मकथा 'अपनी शर्तों पर' के हिंदी संस्करण की लॉन्चिंग के मौके पर जुटे. मंच पर सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने जो कहा वो इस संदर्भ में गौर करने लायक था. वो बोले, 'शरद पवार की पारी अभी खत्म नहीं हुई है. इसे आगे ले जाने की जरूरत है. वैकल्पिक मॉडल कैसे हासिल हो, इस पर अलग राय हो सकती है. शरद पवार को ये जिम्मेदारी निभानी होगी. जेडीयू नेता केसी त्यागी ने भी येचुरी की बात का पुरजोर समर्थन किया. हालांकि तीसरे मोर्चे का अनुभव इस बात की गवाही देता है कि ऐसा कोई भी प्रयोग तभी कामयाब होगा जब कांग्रेस उसकी धुरी बनेगी.
क्या कांग्रेस में बाकी है दम?
इन दिनों ऐसे विरले ही लोग मिलेंगे जो कांग्रेस पर दांव लगाने को तैयार हैं. मणिशंकर अय्यर सरीखे पार्टी के नेता मान बैठे हैं कि अब अगर कांग्रेस को जीत की उम्मीद रखनी है तो 2024 तक रुकना होगा. अय्यर का मानना था कि अगर बीजेपी को हराने के लिए अगर कोई महागठबंधन बनता है तो कांग्रेस को उसकी अगुवाई का दावा छोड़ने के लिए भी तैयार रहना होगा.
लेकिन एक सच ये भी है कि देश भर में पहुंच के हिसाब से कांग्रेस अब भी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है. पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 5 में से 3 राज्यों में सबसे बड़ी पार्टी थी. लिहाजा बीजेपी के खिलाफ किसी भी सियासी समीकरण में कांग्रेस की भूमिका को कम करने आंकना सही नहीं होगा. इसके ये मायने नहीं है कि पार्टी को अपनी छवि और चरित्र को दोबारा गढ़ने की जरूरत नहीं होगी. अपने दम पर जीत पार्टी के लिए फिलहाल दूर की कौड़ी लगती है और गठबंधन में दूसरी पार्टियों के लिए सीटें छोड़ना कांग्रेस की सियासी जमीन को लंबे वक्त में कमजोर ही करेगा. साफ है कि पार्टी के रणनीतिकारों को 2019 से पहले अपनी प्राथमिकताएं साफ करनी होंगी.
अभी या कभी नहीं!
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद इसी साल गुजरात और हिमाचल के लोग वोट जालेंगे. इसके बाद राज्यों में चुनाव का सिलसिला कमोबेश अगले आम चुनाव तक जारी रहेगा. बीजेपी के मुद्दे और चेहरे पहले ही जनता के सामने साफ हैं लेकिन चुनौती विपक्ष के सामने है कि वो बिना वक्त गंवाए अपनी रणनीति बनाए. क्योंकि वक्त और सियासत किसी के लिए नहीं रुकते.