
हिन्दुस्तान तात्कालिक परिदृश्य में भले ही प्रगति के बड़े-बड़े दावे कर रहा हो लेकिन ऐसा नहीं लगता कि धरातल पर स्थितियां बदल गई हैं. अभी हाल ही में जारी किए गए साल 2011 के जनगणना डेटा को देखें तो हम पाते हैं कि देश के 78 लाख बच्चों को पढ़ाई के साथ कमाई करनी पड़ती है तो वहीं 8.4 करोड़ बच्चे आज भी स्कूलों से वंचित हैं.
हालांकि, यह भी एक तथ्य है कि कमाई करते हुए पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स की संख्या कुल बच्चों की तुलना में कम है. यह आंकड़े इस बात की ताकीद करते हैं कि हमारे देश में परिवारोंं का पढ़ाई के प्रति रवैया आज भी लापरवाही भरा है. आंकड़ें इस बात के भी संकेत देते हैं कि किस प्रकार प्राथमिक पढ़ाई का खर्चा बढ़ता जा रहा है जिसे आदर्श स्थिति में मुफ्त होना चाहिए.
काम करने वाले स्टूडेंट्स में लड़के 57 फीसद तो वहीं लड़कियां 43 फीसद हैं. ऐसे देश में जहां पारंपरिक कार्यशैली और पितृसत्तात्मक रवैये की वजह से पूरे वर्कफोर्स में सिर्फ 27 फीसद महिलाएं हों और अधिकांश घरेलू काम करने को मजबूर हों. कई लड़कियां तो 6 साल से भी नीचे हैं. यह भले ही विशेषज्ञों के लिए रिसर्च का विषय हो कि वे किन विपरीत परिस्थितियों में और कहां-कहां काम कर रही हैं लेकिन उनका इस तरह काम करना दुखद और भयावह है.
अब इस बात की मात्र कल्पना करें कि देश में 8.4 करोड़ बच्चे कभी भी स्कूल नहीं जा पाते हैं- यह शिक्षा के अधिकार के तहत आने वाले कुल संख्या का 20 फीसद है. इस मामले में लड़के और लड़कियां लगभग बराबर हैं. ऐसी आम मान्यता है कि बच्चे काम की वजह से स्कूल नहीं जाते, मगर जनगणना डेटा तो कुछ और ही कहते हैं. डेटा के अनुसार तो सिर्फ 19 फीसद बच्चे ही अलग-अलग जगहों पर कार्यरत हैं.
हालांकि, ऐसा नहीं है कि बाकी बचे 81 फीसद बच्चे काम पर नहीं हैं. वे घरेलू कामों में लगे हैं. उन्हें अधिकांशत: पैतृक धंधे में भी हाथ बंटाना पड़ता है.