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अठारह बरस की राही रे पिछले दिनों तक मुंबई की एक आम किशोरी दिखाई देती थीः फटी जींस और उलझे बाल. अचानक एक सुबह उसने ऐलान कियाः “मैं डॉक्टर बनना चाहती हूं.” क्यों? बिल्कुल साफ सोच के साथ वह कहती है, “शानदार पेशा है यह...नए लोगों से मिलना...हर रोज पता नहीं क्या सामने आएगा...और मुझे बायोलॉजी पसंद है.” इस मकसद को हासिल करने के लिए उसने कड़ी मेहनत की.
सांताक्रूज स्थित अपने लीलावतीबाई पोद्दार स्कूल में आकाश कोचिंग सेंटर जॉइन किया. और अगर सलाह के मुताबिक पूरे 10 घंटे नहीं भी, तो हर रोज लगभग इतना ही वक्त दिया. खाली समय में उसने चिकित्सक-लेखक खालिद हुसैनी के मशहूर उपन्यास पढ़े और टीवी पर ग्रेज एनॉटमी देखा. उसने 27 अप्रैल से 7 जून के बीच आठ मेडिकल प्रवेश परीक्षाएं दीं और इस बीच 96 फीसदी जैसे शानदार अंकों के साथ आइएससी की परीक्षा भी पास की. अब वे नतीजों का इंतजार करते हुए कहती हैं, “मैं उम्मीद करती हूं वे हमें अच्छा ही पढ़ाएंगे. दो साल तक कड़ी मेहनत करने के बाद मैं निराश नहीं होना चाहती.”
क्या भारत के मेडिकल स्कूल उसकी उम्मीदों को पूरा कर पाएंगे? इंडिया टुडे समूह-नीलसन बेस्ट कॉलेजेज सर्वेक्षण डॉक्टर बनने की इच्छा रखने वालों के लिए इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश करता है. अपने बैच के 200 में से 12 छात्रों की तरह राही कॉलेजों की रैंकिंग पर तभी से निगाह रखती आ रही है, जब से उसने धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल में कक्षा 10 की पढ़ाई शुरू की थी. वह कहती है, “शीर्ष पर तो एम्स ही है”, हालांकि उसे नहीं लगता कि वह वहां तक पहुंच पाएगी. लिहाजा उसकी निगाह “दूसरे टॉप कॉलेजों ” पर हैः क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज (सीएमसी), वेल्लूर, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज , दिल्ली. हालांकि उसका दिल कर्नाटक पर आ गया है (“एक अच्छा शहर”) मणिपाल का कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज (केएमसी) या बेंगलूरू का सेंट जॉन्स मेडिकल कॉलेज. अगर वह इन ऊपर लिखे किसी भी कॉलेज में जगह नहीं बना पाई तो महाराष्ट्र का कोई कॉलेज चुनेगी.
वह एकदम सही राह पर है. ठीक इसी तरह ये रैंकिंग भी निकाली गई हैं, जो मेडिकल कॉलेजों के दिए गए आंकड़ों के आठ संकेतकों के औसत पर आधारित हैं. यह आसान काम नहीं था. मेडिकल कॉलेज में दाखिले की जबरदस्त स्पर्धा से गुजरने के बाद छात्रों का सामना किस चीज से होता है? सबसे पहले पुराने पड़ चुके पाठ्यक्रम से, क्योंकि 1956 में अपनी स्थापना के बाद से ही भारतीय चिकित्सा परिषद ने मेडिकल में सुधार की कोई परवाह ही नहीं की है. कई तकनीकें पुरानी पड़ चुकी हैं. बहुत कम कॉलेज प्रमाण आधारित चिकित्सा की पढ़ाई करवाते हैं. यहां तक कि शरीर विज्ञान (फिजियोलॉजी) और जीवरसायन (बायोकेमिस्ट्री) को अलग-अलग क्षेत्रों में बांटने का काम एमबीबीएस के स्तर पर अभी हुआ ही नहीं है. शरीर रचना विज्ञान की पढ़ाई के लिए शव या सिम्यूलेटर्स फकत कुछ मुट्ठी भर मेडिकल कॉलेजों में ही मौजूद हैं. यहां हमारी फेहरिस्त उदासीनता के समुद्र में गुणवत्ता की एक बूंद भर है.
धन्य हो एम्स. देश के इस सबसे अग्रणी मेडिकल स्कूल ने एक बार फिर जांचे गए सभी मानदंडों पर 100 का शीर्ष स्कोर हासिल किया है. चाहे इबोला का खतरा हो या डेंगू का विस्फोट या नसबंदी की कलंकगाथा, एक्वस ही देश के लिए राहत का पहला पड़ाव रहा है. और अब जब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय अगले तीन साल में एक नए हॉस्टल प्रखंड सहित संस्था के बुनियादी ढांचे को उन्नत बनाने के लिए करीब 1,500 करोड़ रु. इस पर खर्च करने की बड़ी योजना बना रहा है, तब छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों के लिए संभावनाएं और भी उजली नजर आती हैं. 34 साल की लंबी अवधि तक यहां पढ़ाने के बाद 2013 में बतौर निदेशक इसकी कमान संभालने वाले डॉ. एस.सी. मिश्र कहते हैं, “भारत में या विदेश में एम्स जैसा दूसरा कोई इंस्टीट्यूट नहीं है. कड़ी प्रतिस्पर्धा से गुजरकर छात्र यहां आते हैं. वे बेहद प्रेरणा से भरे होते हैं और एम्स उन्हें वही माहौल देता है, जिसकी उन्हें जरूरत होती है.”
चाहे वह नए-नए अनुभवों का मौका देने वाली मरीजों की बढ़ती संख्या हो, हरेक क्षेत्र के विशेषज्ञों के साथ एकीकृत देखभाल हो, नई-नई शिक्षण पद्धतियां हों या अव्वल दर्जे के शिक्षक-डॉक्टरों की मजबूत रीढ़ हो, आवासीय डॉक्टर और नर्सें यहां चैबीसों घंटे काम में लगे रहते हैं. पूर्व स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने 2014 में कहा था, “यह लगभग बगैर किसी लागत के विश्व-स्तर की मेडिकल शिक्षा” है.
उत्कृष्टता के दूसरे छोर पर वेल्लूर का सीएमसी है, जो पिछले तीन साल से एम्स से एक कदम पीछे चल रहा है. इसके डायरेक्टर डॉ. सुनील थॉमस चांडी कहते हैं, “सीएमसी वेल्लूर एम्स से बहुत अलग है. एम्स पूरी तरह वित्त पोषित राष्ट्रीय संस्थान है, जबकि सीएमसी 115 साल पुरानी निजी संस्था है जो एक सिंगल बेड से शुरू हुई थी.”
इसका जोर हमेशा समाज के अभावग्रस्त लोगों की सेवा करने की भावना पर रहा है. छात्रों के लिए 3,000 रु. सालाना की बहुत कम फीस भी अपनी कहानी बयान करती है. इसके बावजूद अत्याधुनिक बुनियादी ढांचे के साथ सीएमसी वेल्लूर ने उत्कृष्टता के दर्शन को नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया है. हर साल ऑनलाइन परीक्षा और इंटरव्यू के जरिए 100 छात्र चुने जाते हैं. चांडी कहते हैं, “मैं यहां एक छात्र था और मुझे अब भी याद है कि मेरा पहला साल कितना अनोखा था.” छात्र यहां महीने भर चलने वाले सामुदायिक कार्यक्रम में हैरतअंगेज चीजों की उम्मीद कर सकते हैं, “हम छात्रों को नजदीक के गांवों के शिविर में भेजते हैं. वे खुद अपना तंबू गाड़ते हैं, भोजन, साफ-सफाई, बुनियादी स्वास्थ्य के बारे में सर्वे करते हैं और एक अलहदा भारत के संपर्क में आते हैं.” इस संस्था में प्रशिक्षित डॉक्टरों को एक बुनियादी नियम याद रखना होता है, “मेरा इलाज कहीं मेरे मरीज को कंगाल तो नहीं बना देगा?”
हमारे सर्वे में एक हैरत की बात यह निकलकर आई कि कॉर्पोरेट हेल्थकेयर क्षेत्र के बेहद धनवान और अमीर होने के बावजूद शीर्ष चिकित्सा संस्थानों में सिर्फ 25 फीसदी ही निजी संस्थाएं हैं. इनमें शीर्ष पर मणिपाल का केएमसी है. कॉलेज को हर साल तूफानी तरीके से 30,000-40,000 आवेदन मिलते हैं, जिनमें से पारदर्शी प्रक्रिया के जरिए 500 को चुना जाता है. पूर्व डीन और अब फॉरेंसिक के प्रोफेसर डॉ. जी. प्रदीप कुमार कहते हैं, “छात्र के होनहार होने से बड़ा फर्क पड़ जाता है. बेहतरीन और सबसे मेधावी छात्रों को प्रोत्साहन देने के लिए आठ सबसे प्रतिभाशाली छात्रों को निःशुल्क पढ़ाया जाता है.” ताकतवर मूल्यांकन प्रणाली से (50 फीसदी अंक इंस्टीट्यूट के भीतरी और बाकी 50 फीसदी बाहरी परीक्षकों के नेटवर्क के जरिए) ऊंचे मानक लागू किए जाते हैं. और किसी भी शिक्षक डॉक्टर को निजी प्रैक्टिस की इजाजत नहीं है. वे जोर देकर कहते हैं, “मुझे कोई भी स्वास्थ्य समस्या होगी तो मैं अपने साथियों और छात्रों के पास जा सकता हूं.”
इस बीच राही ने अपनी उम्मीदों की और भी लंबी सूची बना ली हैः वह मेडिकल टेक्नोलॉजी की नवीनतम प्रगतियों, प्रयोगशाला के व्यावहारिक अनुभव, क्लिनिक के हुनर, डॉक्टर होने के मानवीय पहलू के बारे में सीखना चाहती है और सबसे ज्यादा मौज-मस्ती का माहौल चाहती है. क्या मेडिकल कॉलेज सुन रहे हैं?