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रिक्शा चालक के बेटे को था कुछ कर द‍िखाने का जुनून, पहली बार में क्लीयर किया IAS

जानिए 2006 बैच के आईएएस ऑफिसर गोविंद जायसवाल के संघर्ष की कहानी जो तमाम अभावों के बीच आगे बढ़ने की राह दिखाती है...

IAS Officer Govind Jaiswal IAS Officer Govind Jaiswal
स्नेहा
  • नई दिल्ली,
  • 04 फरवरी 2016,
  • अपडेटेड 12:32 PM IST

'तुम्हारी हिम्मत कैसे हो गई मेरे बेटे के साथ के खेलने की. तुम्हें नहीं पता कि तुम क्या हो और कहां से आते हो? पढ़-लिखकर ज्यादा से ज्यादा अपने पिता का काम करके थोड़ा पैसा कमा लोगो, तुम कितना भी पढ़ लोगे रहोगे तो रिक्शा ही चलाने वाले' ये कुछ ऐसे शब्द थे जिसे सुनकर-सुनकर गोविंद जायसवाल बड़े हुए थे.

अपने लिए ऐसे शब्द सुनकर वह हमेशा यही सोचते थे कि कैसे वह ऐसा क्या करें कि लोग उनकी इज्जत करना शुरू कर दें. उन्होंने इज्जत पाने के लिए पढ़ाई को चुना क्योंकि वह जानते थे कि पढ़ाई के अलावा कोई भी दूसरी चीज उन्हें इन शब्दों से छुटकारा नहीं दिला सकती है.

कौन हैं गोविंद जायसवल

अपने पहले ही प्रयास में गोविंद जायसवाल ने 2006 की IAS परीक्षा में 48 वां रैंक हासिल किया था. हिंदी माध्यम से परीक्षा देने वालों की श्रेणी में वह टॉपर रहे थे. 32 साल के गोविंद फिलहाल ईस्ट दिल्ली एरिया के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट हैं.

गोविंद के पिता नारायण जायसवाल पढ़े-लिखे नहीं हैं और रिक्शा चलाते हैं. वह सही से सुन भी नहीं पाते हैं. बेटे के IAS बनने के सपने को सिर्फ खेत बेचकर ही पूरा किया जा सकता था. उनके पिता ने खेत तो बेच दिया गोविंद को दिल्ली भेजने के लिए लेकिन फिर भी पढ़ाई का पूरा खर्चा नहीं चल पाता था. गोविंद ने अपना खर्चा चलाने के लिए बच्चों को गणित की ट्यूशन पढ़ाना शुरू की. परीक्षा की तैयारी के दौरान गोविंद लगातार 18 घंटे पढ़ाई करते थे और पैसा बचाने के लिए कई बार खाना भी नहीं खाते थे.

बुरे दिन सिखाते हैं सबक
अपने संघर्ष के बारे में वह बताते हैं, 'मेरी परिस्थतियां ऐसी थीं कि सिविल सर्विस की तैयारी के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था. सरकारी नौकरियां ज्यादातर फिक्स होती हैं इसलिए उनमें मेरे लिए मौके नहीं थे. न ही मेरे पास काफी रुपये थे जिससे मैं बिजनेस शुरू कर सकूं. मैं इस स्थिति में यही कर सकता था कि खूब पढ़ाई करूं.'

रिजल्ट आने से पहले कई दिनों तक उनके पिता चिंता के कारण सो नहीं पाए थे. जब रिजल्ट आया तो सबकी आखों में आंसू आ गए थे. गोविंद अपने सफलता का श्रेय अपने पिता और अपनी बहनों को देते हैं. खासकर के उस बड़ी बहन को जिसने मां की मौत के बाद घर वालों की देखभाल के लिए अपनी पढ़ाई तक छोड़ दी थी.

अपने संघर्ष के दिनों के बारे में उनका कहना है कि अगर वो बुरे दिन नहीं होते तो वह सफलता और जिंदगी का मतलब कभी समझ नहीं पाते.

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