Advertisement

2019 में बीजेपी की नैया पार लगाएंगे छोटे दल, ये है अमित शाह की रणनीति!

राज्यों में अपने चुनावी प्रदर्शन को प्रभावी बनाने के लिए भाजपा छोटे-छोटे दलों (पंजीकृत लेकिन गैर मान्यता प्राप्त) के साथ गठजोड़ की राह तलाश रही है. ऐसे दलों से संपर्क साधने का सिलसिला भी शुरू हो गया है.

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह (फाइल फोटो) बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह (फाइल फोटो)
जावेद अख़्तर/सुजीत ठाकुर
  • नई दिल्ली,
  • 16 जुलाई 2018,
  • अपडेटेड 9:42 PM IST

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह 9 जुलाई को जब चेन्नै में पार्टी के महाशक्ति केंद्र और शक्ति केंद्र के प्रभारियों से मिले तो उन्हें यह बताया गया कि ''विपक्षी दल यह कह कर पार्टी का उपहास उड़ा रहे हैं कि तमिलनाडु में भाजपा ढूंढने से भी नहीं मिलती है.''

हल्की सी मुस्कान के साथ शाह ने उत्तर दिया, "यदि विपक्ष को तमिलनाडु में भाजपा को ढूंढना है तो 2019 के लोकसभा चुनाव में ईवीएम में ढूंढ ले. इसमें कोई संशय नहीं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में भाजपा बड़ी ताकत बन कर उभरने वाली है.''

Advertisement

उन्होंने यह भी ऐलान कर दिया, "अगामी लोकसभा चुनाव से पहले हम उचित समय पर तमिलनाडु में गठबंधन की घोषणा करेंगे. जिसके साथ भी गठबंधन करेंगे, यह सुनिश्चित होगा कि राज्य भ्रष्टाचार से मुक्त होकर विकास के पथ पर अग्रसर हो.''

शाह का यह बयान अनायास नहीं है. दरअसल, उन्होंने तमिलनाडु के साथ ही उन राज्यों से भी पिछले दो लोकसभा और विधानसभा चुनावों का पूरा ब्यौरा लेकर भावी योजना का खाका तैयार कर लिया है जहां पार्टी की उपस्थिति नाम मात्र है.

ऐसे राज्यों में अपने चुनावी प्रदर्शन को प्रभावी बनाने के लिए भाजपा छोटे-छोटे दलों (पंजीकृत लेकिन गैर मान्यता प्राप्त) के साथ गठजोड़ की राह तलाश रही है. ऐसे दलों से संपर्क साधने का सिलसिला भी शुरू हो गया है.

भाजपा की यह रणनीति शाह के उस लक्ष्य के लिहाज से भी माकूल है जिसमें उन्होंने 2019 में भाजपा का वोट प्रतिशत 50 फीसदी करने की बात की है. अनौपचारिक बातचीत में भाजपा के नेता यह मानते हैं कि ओडिशा, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के सत्ताधारी दल या मुख्यमंत्री इतने कद्दावर हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में इन राज्यों में सफलता हासिल करना पार्टी के लिए कठिन है.

Advertisement

वहीं पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने त्रिकोणीय या बहुकोणीय मुकाबले वाले जिन राज्यों में शानदार प्रदर्शन किया था वहां भाजपा विरोधी दल लामबंद हो रहे हैं. इनमें उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड दिल्ली, हरियाणा और पूर्वोत्तर के राज्य शामिल हैं.

भले ही इन राज्यों के प्रभावशाली दल आपस में एक-दूसरे के विरोधी हैं लेकिन अपना अस्तित्व बचाने के लिए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रोकने के नाम पर सभी आपसी मतभेद भुलाकर एकजुट हो रहे हैं.

इसका खामियाजा पिछले कुछ महीनों के दौरान हुए उपचुनावों में भाजपा को भुगतना भी पड़ा है. जिन राज्यों में भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से है वहां भी भाजपा की राह 2014 की तरह आसान नहीं दिख रही. मसलन, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा.

इन राज्यों में भाजपा को भी सत्ताविरोधी रुझान का एहसास है. अमित शाह यह बात कई बार दोहरा चुके हैं, "जिन राज्यों में 2014 में पार्टी को बड़ी सफलता मिली थी, वहां कुछ सीटों का नुकसान हो सकता है. इस कमी की भरपाई हम दूसरे राज्यों से करेंगे. कोरोमंडल राज्य और तटीय राज्यों में भाजपा को 2019 में अच्छी सफलता मिलेगी.'' पिछले दो साल से उन्होंने अपनी टीम को ऐसे 150 सीटों पर काम करने के लिए लगाया भी है, जहां भाजपा की उपस्थिति नाममात्र है.

Advertisement

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, "यह सच है कि तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल या तेलंगाना में पार्टी एक ताकत तो है पर अकेले सीट जीतने की स्थिति में नहीं है. पर यह सिक्के का एक पहलू मात्र है.

सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि भाजपा इन राज्यों में छोटे-छोटे सहयोगी दलों को अपने साथ जोड़कर वहां बड़े दल को टक्कर देने की स्थिति में आएगी.'' उनका तर्क है कि त्रिपुरा में भाजपा ने ऐसा ही किया था. वहां के छोटे-छोटे दलों को साथ जोड़कर भाजपा ने राज्य में अपने बूते बहुमत हासिल कर लिया.

पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अपना दल और फिर 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ओम प्रकाश राजभर की पार्टी के साथ समझौता करके बड़ी सफलता हासिल की. भाजपा के रणनीतिकार मानते हैं कि पूरे देश में 70 से अधिक ऐसी छोटी-छोटी पार्टियां हैं जो भले ही अपने दम पर चुनाव नहीं जीत सकती हैं, लेकिन इन दलों के पास 50 हजार से लेकर 10 लाख तक वोट हैं.

ये वोट लोकसभा चुनाव के लिहाज से देखने में भले कम दिखते हों लेकिन अगर भाजपा के साथ ये दल जुड़ते हैं तो उन राज्यों में भी उसे बड़ी सफलता हासिल हो सकती है, जहां फिलहाल वह कमजोर मानी जाती है.

Advertisement

इनमें से कई छोटे दलों की पकड़ किसानों के बीच अच्छी है. कुछ दलों की मजदूर संगठनों में तो कुछ की आध्यात्मिक जगत के लोगों में अपनी पहचान है. मसलन, पीजेंट ऐंड वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया ट्रेड यूनियन से जुड़ा राजनैतिक दल है.

इसका प्रभाव महाराष्ट्र के रामगढ़, सोलापुर, नागपुर, नांदेड़, नासिक के अलावा आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में भी है. इस दल का छात्रों के बीच भी अच्छा काम है और इसका पुरोगामी युवा संगठन नामक छात्र संगठन काभी प्रभावी है. यह दल विधानसभा में एक-दो सीट जीतती है, लेकिन लोकसभा चुनाव में बड़ी सफलता हासिल नहीं कर पाती.

भाजपा के रणनीतिकारों के मुताबिक, इन दलों के वोट अगर भाजपा को ट्रांसफर होते हैं तो जिन सीटों पर भाजपा 50 हजार से लेकर 1 लाख के वोट से हारती है वहां उसके प्रत्याशी जीत हासिल कर सकते हैं.

मिसाल के तौर पर, तमिलनाडु में तेनकासी में भाजपा के सहयोगी एमडीएमके ने 1,89,386 वोट हासिल किया था और पीटीपी ने 2,61,757 वोट. अगर दोनों के वोट जोड़ लिए जाए तो यह विजयी एआइएडीएमके को मिले 4,24,586 वोट से 26,557 वोट अधिक हैं. जाहिर है, छोटे दल कई सीटों पर अहम साबित हो सकते हैं.

शाह साफ कर चुके हैं कि 2019 में विपक्षी दलों से बड़ा कुनबा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का होगा. इसलिए एनडीए का कुनबा बढ़ाने के लिए अनाम ओडिशा पार्टी, बहुजन मुक्ति पार्टी, बहुजन विकास अघाडी, भारिप बहुजन महासंघ, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, जयभारत समानता पार्टी, जय सम्यक आंध्र पार्टी, लोकसत्ता पार्टी, मनिथनेया मक्काल काची (एमएमके), पुथिया तमिलागम (पीटी), पिरामिड पार्टी ऑफ इंडिया, राष्ट्रीय समाज पक्ष, वीसीके, वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया जैसे कई छोटे-छोटे दल हैं जिन्हें भाजपा अपने साथ जोडऩे के लिए काम कर रही है.

Advertisement

इसके लिए राज्यों के संगठन मंत्री को जिम्मेदारी दी गई है. हर बूथ पर तैनात बूथ पदाधिकारियों को लिखित निर्देश दिया गया है कि वे पिछले दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनाव के आंकड़े संगठन मंत्री से हासिल कर देखें कि जिन बूथों पर 1,000 से 5,000 वोटों से पार्टी पिछड़ गई थी, उस मार्जिन को पूरा करने के लिए किस छोटे दल से तालमेल करने की जरूरत है.

क्यों नजर है छोटे दलों पर

भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में महज कुछ बड़े दलों के साथ ही गठजोड़ किया था. अन्य जगहों पर छोटे-छोटे दल ही एनडीए के कुनबे में शामिल थे. महाराष्ट्र में शिवसेना और आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ही भाजपा के साथ थीं.अनौपचारिक बातचीत में भाजपा नेता यह कहते हैं कि बड़े दल पर निर्भरता अधिक रहती है. बात बिगड़ने की संभावना भी अधिक होती है.

भाजपा के साथ यह कई बार हो चुका है. मसलन, पिछले दिनों टीडीपी ने भाजपा का साथ छोड़ दिया. शिवसेना भी घुड़की दे रही है. इससे भाजपा के लिए असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है.

भाजपा 2014 से लेकर अब तक अकेले इतनी मजबूत हो चुकी है कि वह अपने दम पर बहुमत हासिल कर चुकी है और अभी भी उस स्थिति में है. लेकिन छोटे दल इसलिए लाजिमी हैं क्योंकि जिन सीटों पर कम मार्जिन से जीत-हार होती है, वहां इन दलों के साथ आने से भाजपा की स्थिति बेहतर होगी और जीत की संभावना बनेगी.

Advertisement

बिहार में पिछले चुनाव में राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, उत्तर प्रदेश में अपना दल, महाराष्ट्र में शेतकारी संगठन और रामदास अठावले की आरपीआइ से गठजोड़ कारगर साबति हुआ.

ऐसे में छोटे दल भाजपा के लिए बेहतर सहयोगी साबित हो सकते हैं. भाजपा के एक नेता तमिलनाडु का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में 39 में से भाजपा यहां सिर्फ एक सीट ही जीत सकी थी. अगर राज्य में इस बार भाजपा राज्य के पीटी, वीसीके जैसे छोटे दल और एमडीएमके या पीएमके जैसे अपेक्षाकृत राज्य के मझौले दलों से गठजोड़ करती है तो थीरुवल्लुर, चेन्नै दक्षिण, श्रीपेरेम्बुदूर, कांचीपुरम, अराकोणम समेत 10 लोकसभा सीटों पर राज्य के दोनों प्रमुख दलों, डीएमके और एआइएडीएमके को कड़ी टक्कड़ दे सकती है.

भाजपा के राज्यसभा सांसद और मीडिया विभाग के प्रमुख अनिल बलूनी कहते हैं, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश ने पिछले चार साल में प्रभावी विकास किया है. प्रधानमंत्री के काम और नीयत को देखते हुए बहुत से दल एनडीए में शामिल होने की इच्छा रखते हैं.

इतना तय है कि 2019 में एनडीए का कुनबा 2014 से भी बड़ा होगा. दल छोटा हो या बड़ा, सभी का अपना महत्व है. भाजपा सभी दलों को बराबर सक्वमान देती है.''

Advertisement

साधना नहीं आसान

छोटे दलों को साथ लेना भाजपा के लिए आसान नहीं है. छोटे दल इस बार अपनी अहमियत अच्छी तरह से समझ रहे हैं. इन दलों को लगता है कि भाजपा के साथ जाने से एक-दो सीट भले मिल जाए, लेकिन चुनाव जीतने के बाद भी फायदा भाजपा को ही होगा.

एक या दो सांसदों को लेकर भाजपा पर दबाव बनाने की स्थिति में नहीं रहेंगे. शेतकारी संगठन के राजू शेट्टी कहते हैं, "जिन बातों को लेकर भाजपा सहयोग मांगती है उससे बाद में मुकर जाती है. 2014 में हम भाजपा के साथ किसानों के हितों को लेकर गए थे लेकिन सरकार बनने के बाद किसानों की समस्या को लेकर हमारी बात को उसने नजरअंदाज कर दिया और हमें भाजपा से दूर जाना पड़ा.''

वहीं तमिलनाडु के पीटी पार्टी के नेता डाक्टर के. कृष्णासामी का कहना है, "जो भी दल हमसे गठजोड़ की बात करने आते हैं उन्हें हमारी अहमियत का पता है.

पर हमारा काम सिर्फ एक या दो सांसदों को जिताना नहीं है बल्कि यह जानना जरूरी है कि वे हमारी विचारधारा को कितनी अहमियत देते हैं. यदि सिर्फ संसद में पहुंचने की बात होती तो हम अपनी अलग पार्टी क्यों बनाते, हम कांग्रेस या भाजपा में ही शामिल हो जाते.''

इसी तरह महाराष्ट्र की भारिप बहुजन महासंघ के नेता प्रकाश आंबेडकर भी भाजपा की कड़ी आलोचना करते रहे हैं. आंध्र प्रदेश में अधिक सक्रिय पिरामिड पार्टी के एक पदाधिकारी कहते हैं, "हम अच्छी तरह जानते हैं कि कुछ बड़ी पार्टियां हमारे सहयोग से अपना हित साधना चाहती हैं, लेकिन वे यह बात अच्छी तरह से समझ लें कि हम क्या चाहते हैं.

चूंकि शाकाहार, परफॉर्मिंग आर्ट और आध्यात्मिकता हमारी मूल विचारधारा है, सो जो भी इनकी बात करेगा हम उसके साथ जाने के मुद्दे पर विचार कर सकते हैं.''

कांग्रेस की भी नजर

छोटे दलों की अहमियत का अंदाजा इसी बात से जाहिर है कि उन पर सिर्फ भाजपा नहीं, कांग्रेस की भी नजर है. कांग्रेस के मीडिया विभाग के प्रमुख रणदीप सुरजेवाला कहते हैं, "देश में जिस तरह का माहौल है उसमें कोई बड़ी पार्टी हो या छोटी, सबके अधिकारों का दमन किया जा रहा है. यह बात सभी महसूस कर रहे हैं.

इसलिए कांग्रेस उन सभी दलों से सहयोग की अपेक्षा करती है जो इस देश की बहुलता में यकीन करती हैं. कांग्रेस के लिए कोई भी पार्टी अछूत नहीं है. जहां तक बात गठबंधन और सीट बंटवारे की है तो कांग्रेस में ए.के. एंटनी कमेटी इसके लिए अधिकृत है. वही इस विषय में विचार करेगी. लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरूरी है कि छोटे-बड़े सभी दल एक साथ आएं.'' कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, "कई छोटे दल वैचारिक रूप से कांग्रेस के नजदीक हैं. चाहे वह तमिलनाडु का एमएमके हो या हिंदी पट्टी का कौमी एकता दल या महाराष्ट्र का राष्ट्रीय समाज पक्ष.''

वहीं सुरजेवाला भाजपा पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं, "जिस तरह भाजपा अब हर राज्य में छोटे-छोटे दलों को साधने की जुगत में है, उससे साफ है कि वह यह मानकर चल रही है कि किसी भी राज्य में कोई भी बड़ी पार्टी उसके साथ जाने को तैयार नहीं है. जो साथ में थे वे छोड़कर चले गए और कुछ छोड़ कर जाने को तैयार बैठे हैं.''

फिलहाल 2019 के लोकसभा चुनाव में बड़े दल एक-दूसरे को हराने के लिए जिस तरह छोटे दलों को साधने में जुटे हैं, उससे छोटे दलों की अहमियत बढ़ेगी तथा कई सीटों पर जीत- हार तय करने में भी इनकी भूमिका अहम हो सकती है.

जाहिर है, स्थानीय और छोटे-छोटे मुद्दे लोकसभा चुनाव को भले ही बहुत प्रभावित नहीं करते हों, पर जिन सीटों पर कांटे का मुकाबला होगा वहां छोटे दलों के साथ उनके मुद्दे भी निर्णायक भूमिका में हो सकते हैं.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement