कर्मचारियों और विपक्ष के विरोध की वजह से केंद्र सरकार जब दो बार कर्मचारी भविष्य निधि के ढांचे में बुनियादी बदलाव नहीं कर पाई, तो उसने तीसरी कोशिश में ईपीएफ की ब्याज दर घटा दी हालांकि इस मामले पर भी सरकार को पीछे हटना पड़ा. पढ़ें पूरी रिपोर्ट, क्यों सरकार की नजर आपके पीएफ पर लगी है...
सरकार के हालिया फैसलों को लेकर कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) पर भ्रम की स्थिति यह थी कि 19 अप्रैल को इस मुद्दे पर बेंगलूरू में प्रदर्शन कर रही एक महिला ने पुलिस कमिशनर से कहा, ''साहब, मेरा पीएफ बचा लीजिए.'' इस प्रदर्शन में जबरदस्त हिंसा भी हो गई. दरअसल, देश में लोगों की बढ़ती औसत आयु के मद्देनजर सरकार चाहती है कि सेवानिवृत्ति के बाद लोग पाई-पाई को मोहताज न हों. वैसे इसके लिए ईपीएफ की व्यवस्था है, पर वह चाहती है कि इसकी जगह लोग राष्ट्रीय पेंशन योजना (एनपीएस) को चुनें, जिससे उन्हें एकमुश्त रकम मिलने की बजाए आजीवन कामचलाऊ पेंशन मिलती रहे. लेकिन पीएफ के मुकाबले एनपीएस कम लुभावनी है. ऐसे में सरकार की तरकीबों से लगता है कि उसकी नजर लोगों की गाढ़ी कमाई पर है.
सरकार ने दोनों योजनाओं को समान बनाने के इरादे से फरवरी के आखिर में केंद्रीय बजट में ईपीएफ की निकासी पर 60 फीसदी रकम को टैक्स योग्य बना दिया. बाद में स्पष्ट किया गया कि दरअसल यह टैक्स मूलधन पर नहीं बल्कि ब्याज पर लगेगा. तब तक कर्मचारियों के बीच यह बात फैल गई कि सरकार की मंशा ठीक नहीं है. बाद में सरकार ने इस फैसले को सिरे से पलट दिया. सरकार ने फरवरी में ही एक और व्यवस्था की कि पीएफ में नियोक्ता के 12 फीसदी योगदान (3.67 फीसदी ईपीएफ और 8.33 फीसदी कर्मचारी पेंशन स्कीम-ईपीएस) की रकम को 58 साल की उम्र में ही निकाला जा सकेगा. पहले यह रकम कभी भी या फिर 60 दिन तक बेरोजगार रहने की स्थिति में निकाली जा सकती थी.
इसे 1 मई से लागू किया जाना था, लेकिन बेंगलूरू हिंसा के बाद केंद्रीय श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने पीएफ निकालने के नियमों को पहले 31 जुलाई तक और फिर सिरे से टाल दिया. दरअसल, कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के पास करीब 15.84 करोड़ खाते हैं, जिनमें 3.7 करोड़ सक्रिय खाते हैं. इनमें करीब तीन करोड़ लोगों का वेतन 15,000 रु. से कम है और करीब 70 लाख लोगों को सरकार 'मध्यम या अधिक' वेतन की श्रेणी में मानती है. यह उनकी फोर्स्ड सेविंग होती है, जो गाढ़े वक्त में काम आती है और उन्हें हर साल अपनी जमा पूंजी पर सरकार की ओर से ब्याज की घोषणा का इंतजार रहता है.
ईपीएफओ की फाइनेंस ऑडिट ऐंड एडवाइजरी कमेटी ने आमदनी को देखते हुए कहा था कि इस बार 8.95 फीसदी ब्याज दिया जा सकता है और इसके बावजूद उसके खाते में 91 करोड़ रु. सरप्लस होंगे. देश के विभिन्न मजदूर संगठनों ने 8.90 फीसदी ब्याज दर की मांग की थी. उस पर सहमति नहीं बन सकी और दत्तात्रेय ने 16 फरवरी को ईपीएफओ के केंद्रीय ट्रस्टी बोर्ड (सीबीटी) की 211वीं बैठक के बाद ऐलान किया, ''पीएफ पर ब्याज की मौजूदा दर 8.75 फीसदी को 2015-16 के लिए 8.8 फीसदी (अंतरिम) कर दिया गया है. हमने पिछली बार 8.75 फीसदी ब्याज दिया था.'' हालांकि इसके बाद भी ईपीएफओ के खाते में 673.85 करोड़ रु. बच जाएंगे.
चूंकि पैसे से जुड़े मामले में वित्त मंत्रालय की सलाह लेनी होती है. इस बाबत ईपीएफओ की ओर से भेजे गए पत्र के जवाब में वित्त मंत्रालय ने कहा कि बाजार की स्थिति और विभिन्न योजनाओं पर कम होती ब्याज दरों को देखते हुए पीएफ पर भी ब्याज दर कम किया जाए. इस बाबत दत्तात्रेय ने 25 अप्रैल को लोकसभा को बताया, ''वित्त मंत्रालय ने 8.7 फीसदी की दर मंजूर की है.''
सरकार के इस फैसले पर मजदूर संगठनों ने असंतोष जाहिर कर विरोध का ऐलान कर दिया. आरएसएस से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) के महासचिव विरजेश उपाध्याय ने कहा, ''बीएमएस इस कटौती का विरोध करता है.'' उन्होंने देशभर में ईपीएफ दफ्तरों के सामने विरोध प्रदर्शन किया. सीपीआइ समर्थित ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) ने इसे वित्त मंत्रालय का बेजा दखल करार देते हुए कहा, ''जब ईपीएफओ 8.9 फीसदी आय को सही ठहरा रहा हो और बोर्ड ने 8.8 फीसदी को मंजूरी दे दी तो वित्त मंत्रालय की ओर से यह बेजा दखल है.'' ऑल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन के महासचिव कॉमरेड शिवगोपाल मिश्र सरकार पर मजदूर विरोधी होने का आरोप लगाते हुए कहते हैं, ''सरकार चाहती है कि ईमानदारी से टैक्स भरने वाले और सफेद कमाई पर जीने वालों को और परेशान करे. बैंकों और अन्य बचत माध्यमों में ब्याज दरें पहले ही कम की जा चुकी हैं. और अब पीएफ पर कैंची चलाई जा रही है. सरकारें अंततः लोगों को शेयर मार्केट और म्यूचुअल फंड जैसे खुले बाजार के जोखिम भरे निवेश में धकेलना चाहती है.''
लेकिन कई लोगों ने ईपीएफ पर ब्याज दर कम करने के फैसले का स्वागत किया है. प्रोफेशनल सर्विसेज की कंपनी ईवाइ के टैक्स पार्टनर सोनू अय्यर का कहना है कि फिक्स्ड डिपोजिट और पीपीएफ आदि पर घटती ब्याज दर को देखते हुए ईपीएफ की ब्याज दर 8.7 की घोषणा स्वागत योग्य कदम है.
ऐसे में यह लगता है कि सरकार ईपीएफ का आकर्षण खत्म करना चाहती है, पर निश्चित मुनाफे की वजह से लोग एनपीएस में शिफ्ट करना नहीं चाहते. ईपीएफ से एनपीएस में शिफ्ट होने की इजाजत देने वाला संशोधन तैयार है. लेकिन एनपीएस को चलाने वाली संस्था पेंशन फंड रेगुलेटरी ऐंड डेवलपमेंट अथॉरिटी के चेयरमैन हेमंत कॉन्ट्रैक्टर का मानना है कि ईपीएफ सब्सक्राइबर टैक्स की वजह से एनपीएस से कतरा सकते हैं.
दरअसल, ईपीएफ लोकप्रियता की एक बड़ी वजह निवेश के दूसरे मदों में घटता मुनाफा है. सरकार ने पोस्ट ऑफिस, जीवन बीमा, फिक्स्ड डिपोजिट, किसान विकास पत्र, राष्ट्रीय बचत योजना जैसी विभिन्न बचत योजनाओं पर ब्याज दरें कम कर दी है. इसके अलावा, इनमें कभी भी पैसा निकालने की छूट नहीं है. यही नहीं, सरकार जिस एनपीएस को प्राथमिकता दे रही है, उसमें 60 फीसदी रकम पर टैक्स है. देर-सबेर ईपीएफ पर भी किसी न किसी रूप में यह टैक्स लगा दिया जाएगा.
ईपीएफओ ने भले ही सरकार की सलाह पर ब्याज दर तय कर दी हो लेकिन कर्मचारियों का संदेह अपनी जगह है कि सरकार की नीयत उसकी गाढ़ी कमाई को कम करने पर है.
ईपीएफ या एनपीएसः किसे चुनें और क्योंएनडीए सरकार की गैर-सरकारी कर्मचारियों की कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) और साथ ही राष्ट्रीय पेंशन योजना (एनपीएस) में जमा सेवानिवृत्ति धनराशि पर कर लगाने के हाल के बजट प्रस्तावों को एनपीएस को बढ़ावा देने वाले कदम के तौर पर देखा गया. इस चर्चा में सामान्य सार्वजनिक भविष्य निधि (जीपीएफ) शामिल नहीं है जो लागू है और जिसको लेकर बजट में किसी बदलाव की पेशकश नहीं की गई है. आइए सेवानिवृत्ति से जुड़ी दो योजनाओं—ईपीएफ और एनपीएस को बढ़ावा देने, कर लाभों और रकम निकालने के विकल्पों को समझें.
ईपीएफ है तो एनपीएस पर जोर क्योंएनपीएस पर जोर दिया जा रहा है, यह कई बातों से जाहिर है, मसलन सेवानिवृत्ति के वक्त एनपीएस खाते में जमा रकम की 40 फीसदी को छूट देने और ईपीएफ में जमा शेष रकम की 60 फीसदी को कर योग्य बना देने के प्रस्ताव. इस कदम की वजहें दिखाई देती हैं. सरकार सुनिश्चित पेंशन योजनाओं से हटकर अंशदान योजना की तरफ जाना चाहती है. पहले की व्यवस्था में योगदान देने वाले को न्यूनतम पेंशन का भरोसा दिया जाता था चाहे उसका योगदान बहुत कम ही क्यों न हो, जबकि अंशदान योजना में कर्मचारी दिए गए योगदान के आधार पर लाभों का अधिकारी होता है.
टैक्स ट्रीटमेंट फिलहाल ईपीएफ में कर्मचारी का योगदान वेतन के 12 फीसदी तक पूरी तरह करमुक्त है और उसकी कुल रकम पर भी कोई सीमा लागू नहीं है. बजट में इस पर 1.50 लाख रु. की सीमा तय करने का और इस तरह कर्मचारी के हाथ में आने वाले अतिरिक्त योगदान को कर योग्य बनाने का प्रस्ताव किया गया है. वहीं, एनपीएस के तहत फिलहाल कर्मचारी के योगदान की कोई अधिकतम सीमा नहीं है बशर्ते वह योगदान कर्मचारी के वेतन के 10 फीसदी से ज्यादा न हो. इस पर भी कोई अधिकतम सीमा लागू करने का प्रस्ताव नहीं रखा गया है. इतना ही नहीं, ईपीएफ योजना के तहत नियोक्ता ईपीएफ में कर्मचारी के योगदान से ज्यादा रकम नहीं दे सकता, जबकि एनपीएस के तहत ऐसी कोई बंदिश नहीं है. यहां तक कि एनपीएस में कर्मचारी और नियोक्ता, दोनों के लिए योगदान देना जरूरी नहीं है. इस तरह सबसे ऊंचे टैक्स स्लैब में आने वाले कर्मचारी एनपीएस के जरिए शानदार टैक्स नियोजन कर सकते हैं. मसलन, 1 करोड़ की तनख्वाह वाले शक्चस के लिए नियोक्ता 10 फीसदी यानी 10 लाख रु. का योगदान दे सकता है, जिस पर कर्मचारी कर छूट ले सकता है, जो ईपीएफ के मामले में मौजूद नहीं है.
ईपीएफ में कर्मचारी के योगदान पर 1.50 लाख रु. तक 80 सी के तहत कटौती का फायदा लिया जा सकता है. इसी तरह एनपीएस में भी कर्मचारी के योगदान पर 1.50 लाख रु. तक 80 सीसीडी (1) के तहत कटौती का लाभ मिलता है. ये दोनों कटौतियां 80 सीसीई के तहत 1.50 लाख रु. की सीमा के अधीन हैं. अलबत्ता अगर कर्मचारी एनपीएस में 1.50 लाख रु. की बुनियादी सीमा के ऊपर और अलग से 50,000 रु. का योगदान देता है तो 80 सीसीडी(1बी) के तहत अतिरिक्त कटौती का लाभ ले सकता है. यह अतिरिक्त कटौती ईपीएफ में योगदान पर मौजूद नहीं है.
एनपीएस के तहत खाताधारक के लिए रिटायरमेंट के वक्त या बढ़ाई गई अवधि के खत्म होने पर कुल रकम की कम से कम 40 फीसदी रकम से किसी बीमा कंपनी से एन्यूइटी खरीदना अनिवार्य है. बाकी रकम पर फिलहाल कर देना होता है, मगर बजट में बाकी रकम की भी 40 फीसदी धनराशि को करमुक्त करने और केवल 20 फीसदी रकम को फौरन करयोग्य बनाने का प्रस्ताव रखा गया है. अगर कर्मचारी कुल रकम की 60 फीसदी रकम से एन्यूइटी खरीद लेता है तो इस कर के बोझ से भी बचा जा सकता है. फिलहाल ईपीएफ की संचित बकाया रकम परिपक्ता अवधि तक उस पर मिलने वाले ब्याज सहित कर मुक्त है.
रकम निकालने के नियमजहां तक ईपीएफ से रकम निकालने की बात है, तो सरकार ने इसके साथ भी खिलवाड़ करने की कोशिश की गई और फरवरी 2016 में एक आदेश जारी किया कि कर्मचारी नियोक्ता के योगदान को सेवानिवृत्ति से पहले नहीं निकाल सकता. अच्छा हुआ कि यह आदेश आखिरकार वापस ले लिया गया. फिलहाल स्थिति यह है कि ईपीएफ खाते में जमा बकाया रकम निकाली जा सकती है बशर्ते आप बकाया रकम का एक नियोक्ता से दूसरे नियोक्ता में तबादला न करवाएं. फिर भी अगर ऐसी धन निकासी उसी नियोक्ता या किसी दूसरे नियोक्ता के तहत योगदान के पांच साल पूरे होने से पहले की गई है तो निकाली गई रकम कर योग्य हो जाती है और अगर निकाली गई रकम 30,000 रु. से ज्यादा है, जिसे बढ़ाकर 50,000 रु. करने का प्रस्ताव किया गया है, तो इस पर 10 फीसदी की दर से कर कटौती का प्रावधान है.
जहां तक एनपीएस की बात है, तो 2015 में रकम निकासी के नियमों में संशोधन किए जाने से पहले एनपीएस खाते से अधबीच रकम निकालने के कोई प्रावधान नहीं थे. अलबत्ता इन्हें बदल दिया गया और इसे आंशिक तौर पर भविष्य निधि योजना के अनुरूप बनाने के लिए बकाया रकम की 25 फीसदी रकम को निकालने की छूट दे दी गई. तो भी इस निकासी की पात्रता केवल कर्मचारी के योगदान और उससे होने वाली आमदनी तक ही सीमित है.
पहले 60 साल की उम्र होने पर कर्मचारी के लिए रकम निकालना जरूरी था, लेकिन संशोधित नियमों के मुताबिक, कर्मचारी तीन साल तक निकासी को टाल सकता है. साथ ही वह 70 साल की उम्र तक योगदान जारी रखने का विकल्प भी चुन सकता है.
ऊपर की चर्चा से यह साफ हो जाता है कि ज्यादा तनख्वाह वाले व्यक्तियों के लिए एनपीएस में अब भी कर नियोजन का शानदार मौका है, खासकर तब जब बजट में ईपीएफ में नियोक्ता के योगदान की प्रस्तावित सीमा लागू होने जा रही है, जिसे वापस लेने का अभी तक कोई प्रस्ताव नहीं है. इन दोनों में से किसी के लिए कौन ज्यादा अच्छा है, यह व्यक्ति विशेष की स्थिति पर निर्भर है.
-बलवंत जैन, लेखक सीए, सीएस और सीएफपी हैं.
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