
इस साल किसी वक्त केंद्रीय रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण को सशस्त्र बलों के लिए नए संचालन निर्देश जारी करने हैं. "रक्षा मंत्री का अभियान निर्देश'' नाम का यह छोटा-सा चरम गोपनीय दस्तावेज आम तौर पर दशक में एक बार जारी किया जाता है और सशस्त्र बलों से पाकिस्तान और चीन, दोनों के मोर्चे पर एक साथ जंग की संभावना के लिए तैयारी करने को कहता है.
अलबत्ता जिस बात का जिक्र इस दस्तावेज में नहीं किया जाता, वह यह कि सेना पाकिस्तान और चीन दोनों मोर्चों पर एक साथ जंग लड़ने और जीतने में साफ तौर पर असमर्थ है. सेना के एक बड़े अफसर कहते हैं, "फिलहाल हमारे पास दोनों मोर्चों को संभालने की काबिलियत मुश्किल से ही है.''
सैन्य रणनीति और क्षमता के बीच का फर्क तब सामने आया जब हाल ही में सेना के वाइस चीफ लेफ्टिनेंट जनरल शरत चंद रक्षा मामलों की संसद की स्थायी समिति के सामने पेश हुए. 13 मार्च को संसद के पटल पर रखी गई रिपोर्ट के मुताबिक, सेना के उपाध्यक्ष ने कहा कि उसका 65 फीसदी असलहा पुराना और बेकार हो चुका है.
सेना के पास तोपों, मिसाइलों और हेलिकॉप्टरों की कमी है, जिसकी वजह से वह दो मोर्चों पर लड़ पाने में असमर्थ होगी. बदतर यह कि विदेश से गोला-बारूद मंगाने की मौजूदा कमियों और कोताहियों तक की भरपाई अभी की जानी है और सेना जिसे "10 दिन गहन'' या 10(आइ) जंग लडऩे की क्षमता कहती है, उसे भी पूरा नहीं किया गया है.
"गहन'' जंग का प्राथमिक मतलब गोला-बारूद की वह खपत है जिसमें टैंक और तोप "सामान्य'' टकराव के दिनों में होने वाले इस्तेमाल की तुलना में तीन गुना ज्यादा तादाद में बम के गोले और रॉकेट दाग सकें.
सेना की नाराजगी इस बात को लेकर भी है कि इस साल के बजट में उसे इतनी कम रकम दी गई कि यह 10(आइ) परिदृश्य के लिए साजोसामान जुटाने के लिहाज से भी नाकाफी है. सेना ने 125 योजनाओं के लिए पूंजी जुटाने के मकसद से 37,121 करोड़ रु. की मांग की थी. आखिर में 1 फरवरी को पेश बजट में उसे मिले 21,388 करोड़ रु., जो 15,783 करोड़ रु. कम थे.
सेना को मिली 21,388 करोड़ रु. की सारी की सारी रकम उसकी पहले की देनदारियों—यानी पिछले कुछ साल के दौरान खरीदे गए साजो-सामान के लिए सेना को जो ईएमआइ सरीखे भुगतान करने होते हैं, उसमें चली जाएगी. सेना उपाध्यक्ष के कहे मुताबिक, इसके बाद बचेगा 15,000 करोड़ रु. का घाटा और इसलिए 125 (खरीद) योजनाओं के लिए उसके हाथ में कोई रकम नहीं होगी.
इनमें हल्के उपयोगी हेलिकॉप्टरों से लेकर ऐंटी-टैंक मिसाइलों, गोला-बारूद तक और एयर डिफेंस मिसाइलों से लेकर असॉल्ट राइफलों, लाइट मशीनगनों और कारबाइनों सरीखे छोटे हथियारों तक की खरीद शामिल है. 43,000 करोड़ रु. से ज्यादा की इन जरूरतों को पूरा करने की कोशिशें एक दशक से चली आ रही हैं और अब अपने अंतिम नतीजे पर पहुंचने के करीब हैं (देखें असलहों की किल्लत).
इसका मतलब है दो में से कोई एक चीज—सेना इन सबकी खरीद को या तो अगले साल तक के लिए टाल दे या हाथ में कटोरा लेकर वित्त मंत्रालय के पास वापस जाए और रोकड़े की मदद मांगे. उसके लिए तो दोनों ही माथापच्ची का सौदा है. 2017 की जिन तयशुदा देनदारियों को वह इस साल नहीं चुका पा रही है, उन्हें 2018 के लिए आगे बढ़ा दिया जाएगा, जिससे उसका वित्तीय बोझ तो आखिर बढऩा ही है.
और वित्त मंत्रालय बजट से बाहर कोई रकम मुश्किल से ही मुहैया करता है. सेना यह देखकर भौंचक रह गई कि सॢजकल स्ट्राइक के बाद जो 11,738 करोड़ रु. के 19 करारों की फास्ट-ट्रैक खरीद की गई थी, उनकी रकम भी उसके सैन्य बजट से काट ली गई, बजाए इसके कि उसे अतिरिक्त मंजूरी दी जाती.
साउथ ब्लॉक में एक वित्तीय रोक पहले ही तारी हो गई है. अफसरों का कहना है कि हाल ही में शुरू किए गए ठेकों के लिए रकम जारी नहीं की जा रही है, जिससे मंजूर परियोजनाएं ठप पड़ गई हैं. ऐलान तो बहुत किए जा रहे हैं, पर करारों पर दस्तखत बहुत कम किए जा रहे हैं.
सरकार के लाडले "मेक इन इंडिया'' कार्यक्रम को भी इसका नुक्सान उठाना पड़ा है—सेना की 468 जू-23 ऐंटी-एयरक्राफ्ट बंदूकों को अपग्रेड करने के लिए निजी कंपनी पुंज लॉयड के साथ 670 करोड़ रु. का करार पिछले साल के आखिर से ही रक्षा मंत्रालय में अटका हुआ है.
इस साल सेना उपाध्यक्ष ने संसद की स्थायी समिति से कहा, "दो मोर्चों पर जंग की संभावना हकीकत है. यह बेहद जरूरी और अहम है कि हम इस मुद्दे को लेकर सजग हों और अपने को आधुनिक बनाने पर ध्यान दें और अपनी कमियों को पूरा करें... हालांकि मौजूदा बजट इस जरूरत को पूरा करने के लिए नाकाफी है.'' उधर दो मोर्चों पर जंग के सही साबित होने वाली भविष्यवाणी बनने का खतरा पैदा हो गया है.
पाकिस्तान से सटी 760 किमी लंबी नियंत्रण रेखा 2003 के युद्धविराम के बाद से अपने सबसे हिंसक मुकाम पर है, जहां तकरीबन रोज ही गोलाबारी की घटनाएं हो रही हैं. चीन के साथ लगी 4,000 किमी लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा पिछले साल डोकलाम में 72 दिनों के टकराव के दौरान जंग सरीखे हालात की गवाह बनी थी, जब हिंदुस्तान को सरहद पर तेजी से टैंक और टुकडिय़ां भेजनी पड़ी थीं और पूर्वी कमान एलर्ट की हालत में आ गया था.
उस गतिरोध को 28 अगस्त, 2017 को कूटनीतिक रास्ते से सुलझा तो लिया गया, पर उससे पहले लड़ाकू सरकारी चीनी मीडिया की जंग की धमकियों के बीच अपनी तैयारियों की बेहद अहम कमियां भी सेना के सामने उजागर हो गईं, जिनमें खास तौर पर पहाड़ी इलाकों में अधूरी बनी सड़कें और पुल भी थे.
हिंदुस्तान का रक्षा बजट फिलहाल जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर महज 1.6 फीसदी (पेंशन को छोड़कर) है. यह चीन के खिलाफ 1962 की जंग के बाद सबसे कम है. खासकर तब जब विश्लेषक उस वक्त के फलक से अशुभ समानताएं देख रहे हैं जिसमें 1962 की सरहदी जंग में चीनी सेना ने साजोसामान की कमी से पस्त भारतीय सेना को धूल चटा दी थी. चीन का 175 अरब डॉलर का सैन्य बजट भारत के 45 अरब डॉलर के बजट से तिगुना है.
पिछले साल हिंदुस्तान की सेना के तीनों अंगों को आधुनिक बनाने के लिए 2017 से 2022 के बीच 13वीं पंचवर्षीय योजना में 400 अरब डॉलर की मंजूरी देने की मांग की गई थी. इतनी रकम की मंजूरी का मतलब होगा सैन्य बजट के लिए बजट में 2 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी करना और रक्षा के लिए मुकर्रर रकम में ठहराव के मौजूदा पैटर्न को देखते हुए इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती. एक बड़े सैन्य नियोजक कहते हैं, "हमारी सेना को आधुनिक बनाने का मकसद भय दिखाकर टकराव को रोकना है.
भय प्रतिरोधक को घटाकर और खुद को कमजोर करके हम अपने आपको वाकई कमजोर बना रहे हैं क्योंकि हम दूसरे पक्ष को सैन्य कार्रवाई पर विचार करने का मौका दे रहे हैं. इसके नतीजतन हमें दो मोर्चों पर लड़ाई लडऩी पड़ सकती है.''
झूठमूठ गुहार नहीं
सैन्य बलों, खासकर थल सेना की, जिसके हिस्से में 45 अरब डॉलर के रक्षा बजट का 50 फीसदी जाता है, कमियां और अभाव कई दशकों पुराने जाने-पहचाने लग सकते हैं. सशस्त्र बल इन कमियों के बारे में जिन रास्तों से सीधे कार्यपालिका को बताते हैं, वे संकरे होते जा रहे हैं. सैन्य बलों की हालत के बारे में दी जाने वाली सालाना प्रस्तुतियों को कुछ साल पहले चिट्ठी लिखने की कवायद में बदल दिया गया था.
2012 में उस वक्त के सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह ने ऐसी ही एक चिट्टी में सेना को उपेक्षा और बेरुखी से खोखला कर दिए जाने—गोला-बारूद के बगैर टैंक, मिसाइलों के बगैर एयर डिफेंस बैटरियां और ऐंटी-टैंक मिसाइलों के बगैर पैदल सेना—की शिकायत की थी. वह चिट्टी जब मीडिया को लीक कर दी गई, तो यह कवायद भी पूरी तरह बंद हो गई.
तब से रक्षा मामलों की संसद की स्थायी समिति (पीएससी) के आगे पेश होकर अपनी बात कहना सेना के लिए अकेला मंच रह गया है, जहां वह अपनी कमियों की बात कर सकती है. ये प्रस्तुतियां सेना उपाध्यक्ष पर छोड़ दी गई हैं, जो सेना की जंग की तैयारी की अगुआई करने वाली नियोजन और खरीद-फरोक्चत शाखाओं के लिए जवाबदेह हैं. उन्होंने जो तस्वीर—यानी घटती हुई सैन्य मशीन और सरकार के हाथों बजट में लगातार उपेक्षा—पेश की है, वह वाकई कान खड़े कर देने वाली है.
2015 में सेना उपाध्यक्ष लेफ्टि. जनरल फिलिप कंपोज ने पीएससी को बताया था कि तकरीबन 50 फीसदी सैन्य मशीन पुरानी और बेकार हो चुकी हैं. चार साल बाद यह आंकड़ा 65 फीसदी हो गया है.
स्वदेशी सैन्य-औद्योगिक कड़ी के टूटने और उसके रक्षा जरूरतों को पूरा करने में नाकाबिल होने के कारण भारत हथियारों का आयात करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश बन गया है.
आयातित गोला-बारूद भरना, खासकर 10 दिन की गहन जंग लडऩे की खातिर अगली कतार के विशिष्ट हथियारों के लिए, महंगा पड़ता है. कुछ साल पहले सेना अपने 40(आइ) जंग लडऩे के पूर्वानुमानों को जबरदस्त तरीके से घटाकर 10(आइ) जंग पर ले आई थी. यहां तक कि यह लक्ष्य भी पहुंच से बाहर बना हुआ है.
सेना को 10(आइ) जंग की खातिर सिर्फ अपने सभी 42 रूस निर्मित "स्मर्च'' 300 मिमी रॉकेट लॉन्चरों के लिए 3,744 रॉकेट खरीदने के वास्ते 2,000 करोड़ रु. से ज्यादा की जरूरत है.
वहीं रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने सेना की बजट की कमियों की चिंताओं को खारिज कर दिया है. उन्होंने 11 अप्रैल को चेन्नै में साल में दो बार होने वाले डीफेक्स्पो-2018 के उद्घाटन सत्र में मीडिया से कहा, "हमारे पास जो है उसके इस्तेमाल की प्राथमिकता तय करने पर हमारा ध्यान है. हम रकम का अधिकतम इस्तेमाल पक्का कर रहे हैं. रक्षा मंत्रालय में काम जारी है.''
एक हफ्ते बाद 18 अप्रैल को सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की अध्यक्षता में एक रक्षा नियोजन समिति बनाने का ऐलान किया. यह रक्षा की योजना का रोडमैप बनाएगी, सामरिक और सुरक्षा से जुड़े सिद्धांत तय करेगी. इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का मसौदा, अंतरराष्ट्रीय रक्षा संबंध की रणनीति और सशस्त्र बलों के लिए क्षमता विकास की योजनाएं भी शामिल हैं.
इस बीच सीतारमन का "प्राथमिकता तय करने'' का मंत्र सशस्त्र बलों को बता दिया गया है कि वे पहले बेहद जरूरी साजोसामान पर ध्यान दें और फिर इस वित्त वर्ष में लिए गए फैसलों को जल्दी से जल्दी पूरा करें.
जाहिरा तौर पर यह मंत्रालय के भीतर दोहरे एहसास के बाद तय किया गया है—रक्षा खर्चों में कोई बड़ी बढ़ोतरी की संभावना नहीं है, खासकर तब जब बुनियादी ढांचे को प्राथमिकता दी जा रही है. मसलन, इस साल के बजट में बुनियादी ढांचे के लिए 5.97 लाख करोड़ रु. का प्रावधान है, जो 2014-15 के बजटीय आवंटन के तीन गुना से ज्यादा है.
रक्षा मंत्रालय को साजोसामान की खरीद के लिए उपलब्ध रकम को अच्छे तरीके से खर्च करने में भी मुश्किलें पेश आती हैं. रक्षा राज्यमंत्री सुभाष भामरे ने नवंबर के आखिर में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को एक आंतरिक अध्ययन पेश किया था, जिसमें मंत्रालय की कार्यप्रणाली की तीखी आलोचना की गई थी.
हेडक्वाटर्स इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ के अध्ययन में पाया गया कि 2014 और 2017 के बीच किए गए 144 योजनाओं के करारों को पूरा होने में औसतन 52 महीने लगे, जो तय 16 से 22 महीनों की मियाद के दोगुने से भी ज्यादा थे.
इसके लिए जिन्हें दोषी ठहराया गया, वे थेः "बहुत सारे और बिखरे हुए ढांचे जिनमें एक जगह जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है. फैसले लेने वाले कई सारे प्रमुख, प्रक्रियाओं का दोहराव—फालतू और बेकार हो चुकी परतें जो एक ही काम करती रहती हैं, टिप्पणी में देरी, फैसलों में देरी, अमल में देरी, काम के साथ-साथ कोई निगरानी नहीं, परियोजना आधारित तौर-तरीकों का नहीं होना, आगे बढ़ाने के बजाय गलतियां ढूंढने की आदत.''
साजो-सामान की किल्लत
पूंजी बजट में कटौती से तीनों सेनाएं प्रभावित होती हैं, खासतौर से मशीनों पर आश्रित वायुसेना और नौसेना जो दो-मोर्चे पर आकस्मिक खर्चों का सामना करती हैं. पिछले महीने वायुसेना के पिछले तीन दशकों में अब तक के सबसे बड़े अभ्यास गगनशक्ति 2018 का आयोजन किया गया.
इसमें एसयु-30 एमकेआई लड़ाकू जहाज असम से उड़कर अरब सागर में 4,000 किमी तक गए. वायुसेना को तत्काल 110 नए लड़ाकू जहाजों की जरूरत है जिसके लिए 18 अरब डॉलर चाहिए. नौसेना ने इस साल अपने पूर्वी और पश्चिमी दोनों तटों पर दो अञ्जयास किए.
वह फिक्रमंद है कि क्या वह नए हेलिकॉप्टर और पनडुब्बियां हासिल कर पाएगी जिसकी उसे सख्त जरूरत महसूस हो रही है. सैनिकों का खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है. यह 2010-11 के 44 प्रतिशत से इस साल 56 प्रतिशत हो गया.
इस दौरान पूंजी व्यय 26 प्रतिशत से घटकर 18 प्रतिशत हो गया. सामरिक आयात पर लगने वाले जीएसटी और सेल्स टैक्स (पहले इसे छूट प्राप्त थी) ने लागत 15 फीसदी बढ़ा दिया है, जिससे साजोसामान खरीदने के लिए धन में और कमी आई है.
इस बजटीय अंसुतलन से विश्व की तीसरी सबसे बड़ी सेना सबसे ज्यादा प्रभावित होती है. भारत के कुल सैन्यकर्मियों में से 85 फीसदी थल सेना में हैं लेकिन कुल रक्षा बजट में इसका हिस्सा बस 55 फीसदी है.
सेना की यह दुर्दशा वास्तव में विभिन्न परेशानियों के धीमे-धीमे एकत्र होते जाने का परिणाम है. खर्चीले मैनपावर (सैन्यकर्मी) की लगातार भर्ती करके यह विस्तार कर रही है जबकि इसका साजो-सामान पुराना पड़ता जा रहा है और धन की कमी से नई खरीद नहीं हो पा रही.
भारत अपने 22 लाख पूर्व सैन्यकर्मियों की पेंशन पर करीब 15 अरब डॉलर की रकम खर्च करता है जो कि पाकिस्तान के कुल 9.6 अरब डॉलर के रक्षा बजट का करीब दोगुना है.
वित्त मंत्रालय सैनिकों के पेंशन की रकम को कुल रक्षा खर्च में ही जोड़ता है. सेना अपने बजट का 83 फीसदी पूंजीगत व्यय, वेतन देने, अपने उपकरणों और सुविधाओं के रख-रखाव पर खर्च करती है.
रक्षा मंत्रालय के थिंक टैंक इस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज ऐंड अनालिसिस में रक्षा बजट पर निगाह रखने वाले लक्ष्मण बेहरा बताते हैं, "ट्रेंड संकेत करते हैं कि राजस्व और पूंजीगत व्यय का अनुपात आने वाले वर्षों में 60:40 के आदर्श अनुपात से घटकर 90:10 के बेहद खराब अनुपात तक पहुंच सकता है.''
सेना एक नए माउंटेन स्ट्राइक कोर का गठन कर रही है जिसके लिए 88,000 सैनिकों की भर्ती की जाएगी. (ब्रिटिश सेना में कुल 80,000 सैनिक हैं) इतने नए सैनिकों की भर्ती से 64,000 करोड़ का अतिरिक्त खर्च बढ़ेगा.
पानागढ़ के 17-कोर में दो डिविजन—56 और 71—बनाए जा चुके हैं. दो नए डिविजन का गठन अभी होना है. सीमा पर युद्ध की स्थिति में चीन के अंदर घुसकर सीमित आक्रामक कार्रवाई के लिए खासतौर से तैयार किए जा रहे इस कोर के लिए यूपीए सरकार ने 2014 में बड़ी तेजी दिखाते हुए मंजूरी दे दी थी लेकिन इसके गठन और साजो-सज्जा के लिए जरूरी सालाना 10,000 करोड़ के बजट का प्रावधान नहीं किया. बजटीय अनदेखी का दौर एनडीए के शासनकाल में भी जारी रहा.
नतीजतन सेना को अपने उन हथियारों और गोला-बारूद जो कि वह युद्ध की स्थिति में उपयोग के लिए अलग से संभालकर कर रखती है, के बेकार हुए हिस्से से स्ट्राइक कोर की तैयारी करानी पड़ रही है. कहां तो इस कोर का गठन युद्ध की स्थिति में चीन को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए किया जाना था, वही अब यह एक ऐसा सफेद हाथी बनता जा रहा है, जो सेना के आधुनिकीकरण के बजट को चट कर रहा है.
ऐसा नहीं कि सेना नए सैनिकों की भर्ती के परिणामों से वाकिफ नहीं है. सेना के पर्सपेक्टिव प्लानिंग निदेशालय के पास "रिबैलेंस ऐंड रिस्ट्रक्चरिंग'' नाम से तैयार एक मसौदा है, उसमें भर्ती से उपजने वाली स्थितियों के बारे में अवगत कराया गया था.
यह अध्ययन 2012 में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह के निर्देश पर कराया गया था, जिस दौरान सेना माउंटेंन स्ट्राइक कोर के गठन के लिए दबाव बना रही थी.
इस अध्ययन में खासतौर से दो बिंदुओं को ध्यान में रखकर सेना के बजट पर आने वाले अतिरिक्त भार का आकलन किया गया था—सातवां वेतन आयोग जिससे वेतन और पेंशन दोनों में बढ़ोतरी होती और दूसरा नए स्ट्राइक कोर के गठन के लिए होने वाली नई भर्तियों के लिए आवश्यक खर्च.
उस रिपोर्ट में चिंताजनक आंकड़े पेश किए गएकृहर अतिरिक्त सैन्यकर्मी पर औसतन सालाना 12 लाख से अधिक का खर्च आएगा.
रिपोर्ट ने एक रास्ता भी सुझाया था—उपलब्ध सैन्यबल में से ही छांटकर स्ट्राइक कोर का गठन होना चाहिए और इससे अतिरिक्त फौजियों को भर्ती करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
सेना ने इस अध्ययन को इस आशंका से खारिज कर दिया कि कहीं इससे नौकरशाही आगे चलकर जरूरत के अनुसार और भर्तियों को मंजूरी देना बंद न कर दे.
सेना अधिकारियों का कहना है कि इस अविश्वास के पीछे एक अहम कारण यह भी था कि सेना अपने सैन्यकर्मियों में कटौती करके जो धन बचाती है वह सेना के पास नहीं जाता बल्कि वह भारत के समेकित निधि में चला जाता है.
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मानव संसाधन पर खर्च राजस्व बजट से होता है जबकि साजो-सामान की खरीदारी पूंजीगत बजट से होती है. रक्षा मंत्रालय के पूर्व वित्तीय सलाहकार (अधिग्रहण) अमित कॉशिश कहते हैं, "राजस्व बजट में भी वेतन और अन्य सुविधाओं के लिए आवंटित धन को दूसरे कार्यों में नहीं लगाया जा सकता.
लेकिन वित्त मंत्रालय ऐसा कर सकता है और पूर्व में ऐसे कई उदाहरण भी हैं.'' वे कहते हैं, "इस कमी, खासतौर से प्रतिबद्ध देनदारियों के कारण पैदा कमी, की भरपाई सेना के बजट के मदों में आंतरिक पुनर्मूल्यांकन अथवा कुल पूंजीगत लागत में से दूसरी सेवाओं/विभागों के पैसे को ट्रांसफर करके ही करना संभव है.''
दूसरा विकल्प है कि रक्षा मंत्रालय उस वर्ष के लिए या संशोधित अनुमान के चरण में वित्त मंत्रालय से अतिरिक्त फंड की मांग करे.
ऐसा तर्कसंगत प्रयास आखिरी बार 20 साल पहले जनरल वी.पी. मलिक ने किया था. उन्होंने यह आश्वासन मिलने पर कि सेना अपने बलों में कटौती करके जो पैसे बचाएगी उसका उपयोग वह सैन्य साजो-सामान की खरीद के लिए कर सकती है, 50,000 ऐसे सैन्यकर्मियों की कटौती का आदेश दिया था जिनकी फील्ड में तैनाती नहीं रहती. लेकिन रक्षा मंत्रालय अपने आश्वासन से पीछे हट गया और इसके अगले ही साल करगिल की लड़ाई छिड़ गई तो सेना ने भी इस प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाया.
करगिल की लड़ाई में सेना गोला-बारूद की भारी कमी झेल रही थी. खासतौर से 155 मिमी बोफोर्स होवित्जर तोपों के लिए गोला-बारूद की कमी थी जिसने इस लड़ाई का रूख पलट दिया था. जनरल मलिक ने एक मशहूर बयान दिया था कि सेना "जो उपलब्ध है उसी से लड़ेगी''. करीब दो दशक बाद उनके उत्तराधिकारी और मौजूदा सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत भी उस पुरानी नीति की तरफ ही बढ़ रहे हैं. सेना ने अब सरकार के "प्काथमिकता मंत्र'' को अपना लिया है.
28 मार्च को जनरल रावत ने कहा, "जो बजट उपलब्ध है उसी के मदों में फेर-बदल और समायोजन करके सैन्य तैयारियों को उच्च प्राथमिकता दी जा सकती है. ऐसा नहीं कहा जा सकता कि परिवारों के लिए आवास की जरूरत नहीं है लेकिन वे इसके लिए थोड़े दिन ठहर सकते हैं. हम बजट को सैन्य तैयारियों के लिए फोकस करने हेतु बजट को संतुलित कर रहे हैं.''
नई दिल्ली में 16 से 21 अप्रैल के बीच सेना कमांडरों के अर्धवार्षिक सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में जनरल रावत ने जोर देकर कहा कि "प्राथमिकताओं के उचित निर्धारण की जरूरत है ताकि जो संसाधन उपलब्ध हैं उनका अधिकतम इस्तेमाल किया जा सके और सेना के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया बाधित न हो.''
सेना ने अपने गोला-बारूद की भारी कमी की बात को सार्वजनिक कर दिया जो कि अभूतपूर्व है. सेना ने कहा कि इसके पास लडऩे लायक टैंक के गोला-बारूद, एंटी टैंक मिसाइल और स्मर्च रॉकेट का सिर्फ 10 दिनों का स्टॉक ही बचा है.
भारत की सैन्य तैयारियों के निर्धारण का लंबे समय से मुख्य आधार यह है कि "यदि भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ जाए तो चीन उसमें नहीं कूदेगा लेकिन यदि भारत-चीन के बीच युद्ध छिड़ जाए तो पाकिस्तान निःसंदेह युद्ध में कूदकर लड़ाई का मोर्चा खोल देगा.''
थलसेना और वायुसेना की दो मोर्चों पर तैनाती होती है. चीन के खिलाफ उत्तरी मोर्चे पर और पश्चिमी मोर्चे पर पाकिस्तान के खिलाफ. और जब केवल एक मोर्चे पर लडऩा होगा तो पूरी थलसेना, लड़ाकू विमान और संसाधन एक मोर्चे पर लगाकर निर्णायक जीत हासिल की जा सकती है. लेकिन अगर दोनों मोर्चों पर युद्ध छिड़ जाता है तो संसाधनों का एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे पर भेजना संभव नहीं होगा. निर्णायक जीत के लिए हर मोर्चे पर पूरी तैनाती और तैयारी रखनी होगी.
दो मोर्चे पर युद्ध हुआ तो कई बार इसके ढ़ाई मोर्चे के युद्ध (आधा कश्मीर और उत्तर-पूर्व के आतंकी गतिविधियों के कारण) में बदल जाने की भी पूरी आशंका है. सैन्य तैयारियों के दौरान इस बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती और तैयारियों के दौरान हर संभावित आशंकाओं और खतरों के आकलन की पूरी गुंजाइश रखनी ही चाहिए. इस बात को लेकर कोई बहस नहीं हो सकती, इसके बावजूद कुछ सेना कमांडर जिन पर ही युद्ध के संचालन की वास्तविक जिम्मेदारी रहती है, इस पर सवाल उठा रहे हैं.
पश्चिमी कमान के आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल सुरिंदर सिंह ने चंडीगढ़ में 1 मार्च को आयोजित एक सेमिनार में कहा कि मौजूदा परिस्थितियों में दो मोर्चे पर लडऩे की सोचना "समझदारी भरा कदम नहीं होगा''. माना जा रहा है कि दो मोर्चे पर युद्ध से जुड़े विचारों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने पर सेना प्रमुख ने नाराजगी जाहिर करते हुए उन्हें आगाह किया है.
आधे मन से सुधार
भारतीय सेना की बीमारी उससे कहीं ज्यादा गहरी है जितनी कि दिख रही है. ये कोई ऐसे मसले नहीं हैं, जिनका हल सिर्फ ज्यादा पैसा उपलब्ध कराने से निकाला जा सके. संभवतः हर एक समस्या की जड़ भारत के निष्क्रिय उच्च रक्षा प्रबंधन में ही है, जिसमें फंड की तंगी से जूझती सेना और मंथर गति से चल रहा आधुनिकीकरण शामिल है. सक्षम रक्षा प्रबंधन के तहत संसाधनों को सुसंगत बनाना होगा और उनका आवंटन प्राथमिकता के आधार पर करना होगा.
उदाहरण के लिए अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति एक ऐसी राष्ट्रीय सैन्य सामरिक नीति का निर्धारण करती है, जिसे संयुक्त सेना को अपनाना होता है. सशस्त्र सेनाएं सख्ती से संयुक्त बलों की कमान के तहत एकीकृत होती हैं.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के उच्चस्तरीय मुकाम पर बैठे हुए सभी पांचों देशों में एक बात साझा है. उनके पास ऐसे सैन्य औद्योगिक परिसर हैं जिनसे यह सुनिश्चित होता है कि वे आयात पर निर्भर न रहें और उनके पास गहराई से एकीकृत फौज है जिनका भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लायक बनाने के लिए आधुनिकीकरण किया जा रहा है. भारत भी सुरक्षा परिषद में पहुंचने की आकांक्षा रखता है.
सरकार ने मेक इन इंडिया के तहत स्वदेशी रक्षा उत्पादकों को प्राथमिकता दी है, पर उच्चस्तरीय सैन्य सुधार और दीर्घकालिक नियोजन के मामले में सरकार सुस्त है. उदाहरण के लिए, यहां कोई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति नहीं है, भारत अभी रक्षा मंत्री के ऑपरेशन दिशा-निर्देशों को हासिल करने वाला है और वे भी सशस्त्र सेना के इनपुट पर आधारित हैं.
सुरक्षा विश्लेषकों ने 2017 के सशस्त्र बलों के संयुक्त सिद्धांत को महज एक मजाक मानकर खारिज कर दिया है, क्योंकि इसमें न तो नियोजन, न खरीद और न ही संचालन में कोई सामंजस्य दिख रहा है. सेवाओं के बीच सामंजस्य की कमी की वजह से ही चिढ़ कर नौसेना ने 2016 में अपने सामरिक अंडमान एवं निकोबार कमान को वापस ले लिया, जिसे उसने सेना और वायु सेना के बाद रोटेशन के तहत लाने की पेशकश की थी.
2017 में सेना के थिंक टैंक सेंटर फॉर लैंड वारफेयर स्टडीज में पेश एक पेपर में लेफ्टिनेंट जनरल कंपोज ने इस बात को रेखांकित किया है कि एकीकृत फौज के अभाव में क्या होता है. इसमें कहा गया है, "भारतीय सेना की योजना आगे बढऩे और जमीन पर होने वाली लड़ाई स्वतंत्र तरीके से लडऩे की है, इसी तरह वायु सेना हवाई लड़ाई पर ध्यान केंद्रित करेगी और नौसेना समुद्री लड़ाई पर, इन सबके बीच संसाधनों और संचालन में सामंजस्य की पर्याप्त साझेदारी नहीं है.''
लगातार दो समितियों, 2001 में तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता वाले मंत्री-समूह और दिसंबर 2016 में लेफ्टिनेंट जनरल डी.बी. शेकतकर की अध्यक्षता वाली समिति, ने एक चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) का पद सृजित करने का सुझाव दिया था.
एक ऐसा पद जिस पर किसी भी एक सेवा का चार स्टार वाला अफसर होगा, जो न केवल सरकार के लिए एकमेव सैन्य सलाहकार की तरह काम करेगा, बल्कि सशस्त्र बलों के बजट में विशिष्ट जरूरतों के लिए संयुक्तीकरण और पुर्नप्राथमिकता तय करने को बढ़ावा देगा.
सरकार को अभी सीडीएस की नियुक्ति पर सक्रिय होना है, जो फिजूलखर्ची पर सवाल कर सकता है, जैसे पिछले साल सेना द्वारा 65 करोड़ डॉलर के सौदे में छह महंगे अपाचे हेलीकॉप्टर गनशिप की खरीद करना, जबकि वायु सेना ने पहले ही 22 ऐसी मशीनें खरीद रखी थीं.
यह उपेक्षा अब साफ तौर पर दिख रही है क्योंकि सरकार साफ-साफ यह नहीं मानती कि दो मोर्चों पर लड़ाई वास्तविकता हो सकती है. एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस पूरी बहस को "अनुपयुक्त'' बताया और खराब से खराब परिस्थितियों के लिए तैयार रहने की निरर्थकता पर जोर दिया. उन्होंने कहा, "हमें संभावनाओं पर बात करनी चाहिए, न कि आशंका पर. ऐसे परिदृश्य की आशंका तो हो सकती है, संभावना नहीं.''
वुहान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अनौपचारिक सम्मेलन सीमा पर तनाव को कम करने का एक प्रयास है. भारतीय सेना को इसके लिए तैयार होने में समय लगेगा, क्योंकि जैसा कि सशस्त्र सेना का तर्क होता है, इरादा रातोरात बदल सकता है, लेकिन सैन्य क्षमता बनाने में दशकों लग जाते हैं.
2012 में पद ग्रहण करने के बाद शी जिनपिंग के पहले लक्ष्यों में से एक था 23 लाख संख्या वाली मजबूत पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के आकार में दस लाख तक की कमी लाना (देखें, लाल सेना का नया पहलू) और हाल में उनका लक्ष्य 2035 तक अपनी सेना को एक कम आकार वाली, चपल और टेक्नोलॉजी आधारित बनाने का है.
भारत का राजनैतिक नेतृत्व सशस्त्र सेना में ज्यादा संख्या के प्रति चैकस रहा है. इससे असंतोष प्रकट करने के एक दुर्लभ उदाहरण को पेश करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने दिसंबर 2015 में आयोजित एक संयुक्त कमांडर सम्मेलन में कहा, "जब महाशक्तियां अपनी सेना में कटौती कर रही हैं और टेक्नोलॉजी पर ज्यादा निर्भर हो रही हैं, हम अब भी अपनी सेना के आकार को बढ़ाना चाहते हैं. एक साथ ही सेना का आधुनिकीकरण और विस्तार करना कठिन है और अनावश्यक लक्ष्य है.''
सैन्य संसाधनों की फिर से प्राथमिकता तय करने के बारे में सुझावों पर बहुत कम काम किया गया है. वे दोहरे मोर्चे पर जंग जैसी अवधारणा से आगे बढ़कर ऐसे सैन्य सुधार कर सकें, जिससे बेहतर बचत सुनिश्चित हो और टेक्नोलॉजी केंद्रित आधुनिक फौज के लिए बड़े लक्ष्य तय हो सकें. डोभाल की अध्यक्षता में गठित डीपीसी से उम्मीद है कि इन सुधारों पर आगे बढ़ा जा सकेगा. यह एक और कदम है जिसमें कई दूसरे नाकाम हो चुके हैं.
नहीं दिखे बड़े बदलाव
भारत रोडमैप, योजना और विशेषज्ञता और बड़े रक्षा सुधारों की कमी का लगातार सामना कर रहा है
1) राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस)
स्थितिः पूरी होनी है, हालांकि माना जाता है कि सरकार एनएसएस ड्रॉफ्ट पर काम कर रही है
2) चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ
स्थितिः 2001 में जीओएम के और 2016 में शेकटकर समिति की सिफारिश के बावजूद अभी तक नियुक्ति नहीं की गई है
3) सशस्त्र बलों को थिएटर कमांड में एकीकृत करना
स्थितिः शेकटकर समिति ने मौजूदा अलग-अलग 17 कमांड की जगह तीन एकीकृत कमांड बनाने की सिफारिश की थी. इस पर अमल होना बाकी है
4) बजट, खर्च, प्राथमिकताओं में तालमेल के लिए रक्षा नियोजन
स्थितिः 18 अप्रैल को एनएसए अजित डोभाल के मातहत एक रक्षा नियोजन समिति बनाई गई थी. इस स्थायी समिति में रक्षा सचिव, विदेश सचिव और तीनों सेनाओं के प्रमुख शामिल हैं
5) बर्बादी रोकना, कर्मियों की दोबारा तैनाती में कमी लाना
स्थितिः सरकार शेकटकर समिति के निर्देशों के मुताबिक, 57,000 सैनिकों को दोबारा तैनात कर रही है. दिसंबर 2019 तक यह तैनाती पूरी होने की उम्मीद जताई जा रही है.
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