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निर्भया केस: आखिर क्‍यों दोषियों को फांसी मिलना जरूरी था?

सब जानते हैं कि 16 दिसंबर 2012 की रात दिल्ली के चेहरे पर एक बदनुमा दाग बन गई थी. उस दाग को धोने के लिए फांसी की सजा दी जानी जरूरी थी.

निर्भया कांड के दोषी निर्भया कांड के दोषी

16 दिसंबर 2012 की रात दिल्ली के चेहरे पर एक बदनुमा दाग की तरह है. चाहे सुप्रीम कोर्ट ने अब दोषियों को फांसी की सजा कायम रखी हो, पर निर्भया पर जो बीती, उसे दिल से महसूस करने पर रूह कांप उठती है.

उस रात चलती बस में पांच बालिग और एक नाबालिग दरिंदे ने 23 साल की निर्भया के साथ हैवानियत का जो खेल खेला था, उसे जानकर हर देशवासी का कलेजा कांप उठा था. वह युवती पैरामेडिकल की छात्रा थी.

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आखिर क्‍यों जरूरी थी दोषियों को फांसी
शुक्रवार सुबह से ही सबकी निगाह सुप्रीम कोर्ट पर थी. लोग इस बात का इंतजार कर रहे थे कि SC सजा को कायम रखे. हुआ भी यही, शायद इतिहास में पहली बार हुआ होगा कि कोर्ट ने किसी को फांसी की सजा दी और कोर्टरूम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. समाज के संदर्भ में देखा जाए तो ये सजा जरूरी थी. इससे एक संदेश ये तो जाता ही है कि इस देश में बेटियों की इज्‍जत इतनी सस्‍ती नहीं.

दंड का डर रहेगा कायम
क्‍या आपने कभी सोचा है कि दंड का प्रावधान आखिर किया क्यों गया है? शायद इसीलिए कि हर अपराधी के मन में दहशत हो. और इस तरह के फैसलों से ये दहशत कायम रहती है. दहशत ये कि अगर किसी ने देश की बेटी के साथ बदसुलूकी की सोची तो किसी कोर्ट में उसे राहत नहीं मिलेगी.

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माफी के लायक नहीं थे दोषी
इस सर्वसम्‍मत है कि दोषी को भूलसुधार का एक मौका मिलना चाहिए. पर वो ऐसे मामलों में, जो क्षमायोग्‍य हों, तब तक जब तक मामला माकूल हो. निर्भया कांड के बाद जब देश के लोगों में रोष और आंखों में आंसू थे, ऐसे में दरिदंगी की हदें पार करने वाले ये दोषी माफी के लायक ही नहीं थे.

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फांसी का डर
फांसी एक ऐसी सजा है, जिसका डर बड़े से बड़े अपराधी को सताता है. सजा चाहे दो साल की हो, सात साल की हो, 10 साल की हो या फिर उम्र कैद, पर फांसी एक ऐसा खौफ है जो अपराधी को एक झटके में अमानवीयता की चौखट से खींच लाता है. ऐसा हुआ भी है. निर्भया कांड के दोषियों के कोर्ट में रोने की खूब खबरें आई हैं. पर फांसी की सजा का चौतरफा खौफ है. फांसी को लेकर पीछे जो भी, उसके आगे कोई जीत नहीं है.

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