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दिव्या दत्ता ने मां को बना लिया था बेटी, नाम लेकर बुलाती थीं

साहित्य आज तक 2018 के अहम सत्र 'मेरी मां' में एक्ट्रेस दिव्या दत्ता ने शिरकत की. उन्होंने बताया कि किस तरह उनका मां से लगाव गहरा हुआ.

दिव्या दत्ता दिव्या दत्ता
महेन्द्र गुप्ता
  • नई दिल्ली,
  • 17 नवंबर 2018,
  • अपडेटेड 6:11 PM IST

साहित्य आज तक 2018 के अहम सत्र 'मेरी मां' में एक्ट्रेस दिव्या दत्ता ने शिरकत की. उन्होंने बताया कि किस तरह उनका मां से लगाव गहरा हुआ. दिव्या ने अपनी मां पर एक किताब लिखी है.

दिव्या ने बताया- मैं इसी दिल्ली में पली-बढ़ी हूं. न्यू राजेंद्र नगर में रहती थी. अभी भी वहां मेरा घर है. मैंने अपने पिता को बहुत कम उम्र में खो दिया था. उस समय मैं सिर्फ 7 साल साल की थी. पिता के जाने के बाद मुझे वापस मां के पास पंजाब जाना पड़ा. इसके बाद मेरा मां के साथ बहुत गहरा बॉन्ड हो गया. मेरी जवानी में वे मेरी बेटी बन गई थीं, उनका नाम नलिनी था तो मैं उन्हें नलिनी या परी बुलाती थी. मां कभी नहीं बुलाया. हमारा रिश्ता रिवर्स हो गया था. मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा खौफ था कि कहीं मैं अपनी मां को भी न खो दूं.

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दिव्या ने कहा- "जब मेरी मां ने मुझे भरोसा दिया कि 'मैं हूं. मैं आपमें और आपके सपनों में भरोसा करती हूं.' इस तरह मुझे एक आत्मविश्वास मिला कि मेरे पीछे कोई है. मुझे लगा कि इस रिश्ते को सेलिब्रेट करना चाहिए. मैंने तय किया कि मैं मां पर एक किताब लिखूंगी. इसका नाम होगा मी एंड मां. पेंगुइन इसे छापेगा. उन्होंने कहा कि ठीक है, आप छह महीने में इस किताब को लिख दीजिए. तो पांच महीने तो मैं डिप्रेशन में थी, रोती रही. इसके बाद मैंने मां से कहा कि इसे तो लिखना पड़ेगा. हाथ थामो. फिर पता नहीं कैसे मैंने ये किताब एक महीने में पूरी लिख दी. मेरे एडिटर ने इसे कुछ खास एडिट नहीं किया. मैं चाहती थी शबाना जी इसका फॉरवर्ड लिखें, क्योंकि वे अपनी मां के बहुत करीब हैं. उन्होंने लिखा. चाहती थी कि अमिताभ बच्चन जी इसका विमोचन करें तो उन्होंने किया. मैं इसके लिए जिन लोगों को चाहती थी, वो मुझे मिले. "

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अब जब मैं एयरपोर्ट पर जाती हूं, तो लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं- हमने आपकी किताब पढ़ी है. बहुत खुशी मिलती है. किताब लिखने के बाद मैं अपनी मां से लिपटकर रोई. मुझे लगा कि मेरा किताब लिखना सफल रहा.

दिव्या ने कहा जब मेरी मां हॉस्प‍िटल में थी तो मुझे लगता था कि ये एक फिल्म का सीन है, जिसे जल्दी से खत्म हो जाना चाहिए. मां के जाने के बाद मैं दो सालों तक इस सच को स्वीकार नहीं कर पाई. वे मेरे लिए बैक बोन थीं. बाहर मां को खोजने के बजाय मैंने उन्हें अपने अंदर बसा लिया है.

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