
फिल्म रिव्यूः दम लगाके हईशा
एक्टरः आयुष्मान खुराना, भूमि पेडनेकर, संजय मिश्रा, सीमा पाहवा, शीबा चड्ढा, अलका अमीन
डायरेक्टरः शरद कटारिया
ड्यूरेशनः 1 घंटा 51 मिनट
रेटिंगः 5 में 4 स्टार
हरिद्वार का निम्न मध्यवर्गीय परिवार. प्रेम हाईस्कूल पास नहीं कर पाया. पापा की वीडियो कैसेट की दुकान चलाता है. कुमार सानू से प्यार करता है और अंग्रेजी से उसे दुत्कार मिली है. कुमार सानू को सुनता है तो जाहिर है कि काजोल, करिश्मा, माधुरी की ख्वाहिश तो होगी ही. मगर बाबू जी की कोई और योजना है. वे ऋषिकेश के एक परिवार की संस्कारी, सुशील, कम बात करने वाली और बीएड करे लड़की संध्या से बेटे का बियाह तय कर देते हैं. प्रेम परिवार के दबाव में मोटी लड़की से शादी कर लेता है. परिवार को लोभ है.
नौकरीपेशा बहू आएगी तो बरक्कत होगी. मगर प्रेम को क्षोभ है. ऐसी भी क्या शादी और बीवी. सड़क पर, बाजार पर, पत्नी के बगल में चलने में शर्म आए. दोस्त मौज लें सो बियाज में. तकरार होती है. मान आहत होता है. रास्ते अलग हो जाते हैं. फिर हालात उन्हें कुछ वक्त के लिए साथ लाते हैं. और तब इन कम्बख्तों को साथ के जादू का कुछ रंग नजर आना शुरू होता है.
फिल्म 'दम लगाके हईशा' की सबसे बड़ी खूबी है इसकी नई किस्म की कहानी और उसे जिंदा करते किरदार. यहां हरिद्वार भी एक किरदार है. हरिद्वार को अब तक हम उसके तट और आरती में ही निपटा देते थे. मगर उन तटों के किनारे घर हैं. उन घरों में रहने वाले लोग अपनी आस्थाओं और लालच के साथ गंगा किनारे ठहरे हैं. उनका जीवन ढरक रहा है. ये कहानी हमें उन घरों तक ले जाती है. ये कहानी हमें 90 के उस दशक तक ले जाती है. जब दुकान पर बैठे लौंडों को ये हकीकत भास गई थी कि भइया सानू के गाने सुनकर शाहरुख के सपने कितना भी देख लो. किस्मत में तो पापा की दुकान या छोटी मोटी नौकरी ही लिखी है. जो कुछ ज्यादा वीर निकलते, वे पसंद की लड़की से शादी कर लेते और हमेशा के लिए हीरो हो जाते अपनी पिक्चर के.
मिश्रा जी के घर की बात करें तो पति के संन्यासी हो जाने के बाद घर आ बसी और बात बात पर बमकती बुआ हों या हुरकारी भर गुस्सा आते ही अपने बालक को चप्पल ले दौड़ाने वाले पिता जी. इसी तरह वर्मा जी के घर में बहन के जाते ही उसके घर पर कब्जा करने वाला छोटा भाई हो या सब्जी कम परोसने की हिदायत देने वाली उनकी पत्नी. ये लोग और उनकी आदतें, असली हैं. और देखिए साहब कि हम रात दिन असली के बीच रहते हैं. मगर सिनेमा में उस असली को देखने को तरसते हैं. और जब कभी ये दिख जाए, तो लगता है कि पर्दे और दिमाग के बीच एक नया राब्ता कायम हो गया. दम लगाके हईशा ऐसा ही एक धागा बुनती है.
फिल्म पति पत्नी के रिश्ते की, प्यार की पड़ताल करती है. ये नए सिरे से इस बात को जमाती है कि शादी सिर्फ दो शरीरों और दो मनों का ही मिलन नहीं. ये दो दिमागों का भी मिलन है. संध्या और प्रेम जब तक दोस्त नहीं बन जाते, एक दूसरे के दुख तकलीफों, सपनों और सच्चाइयों में साझेदारी नहीं कर लेते, तब तक उनका साथ सोना, सेक्स करना, बाजार जाना या समाज के सामने पति पत्नी के तौर पर पेश आना ढोंग है. संध्या और प्रेम इसी ढोंग के खिलाफ लड़ते हैं. इस लड़ने के दौरान वह खुद को एक दूसरे के खिलाफ पाते हैं. मगर बाद में यही ढंग उन्हें जमीन के होने का इलहाम कराता है.
आयुष्मान खुराना उम्दा एक्टर हैं. विकी डोनर को आज भी हर कोई याद करता है. मगर उसके बाद से आलोचक कहने लगे थे. हर जगह एक से रोल कर रहा है ये लड़का. इस बीच उन्होंने हवाईजादे जैसे प्रयोग भी किए,मगर कमजोर कहानी के चलते ये औंधे मुंह गिरे. मगर हरिद्वार के प्रेम तिवारी के रोल में आयुष्मान ने दिखा दिया है कि उन पर भरोसा किया जा सकता है. दांव लगाया जा सकता है.
और दांव दमदार लगाया है यशराज बैनर ने नई एक्ट्रेस भूमि पेडनेकर पर. लगता ही नहीं कि इस लड़की की ये पहली फिल्म है. क्या कमाल काम. मोटी लड़की की ढिठाई, रुलाई, क्यूटत्व, औघड़त्व, सब उन्होंने बिना फाउंडेशन पोते चेहरे पर उकेर लिया. और मां कसम, जब वह अपनी बेइज्जती कर रहे पति को हुसड़ के तमाचा मारती हैं तो एक झटके में यह फिल्म बिना शोर किए घनघोर लोकतांत्रिक हो जाती है.
भूमि और आयुष्मान तक ही बात महदूद नहीं रहती. संजय मिश्रा तो सोते में भी एक्टिंग कर दें तो सामने वाला पानी भरने लगे. और निम्न मध्यवर्ग के आलस, कुटिलता और सहजता को बरतने में उनकी कोई सानी नहीं. उनको देखता हूं तो प्रेमचंद के गोदान का कथित सयाना होरी याद आता है. अम्मा के रोल में सीमा थापा भी पैर जमाती जा रही हैं. आंखों देखी के बाद ये फिल्म भी खूब रही उनके लिए. बुआ के रोल में शीबा चड्ढा ने भी काबिले तारीफ काम किया है.
फिल्म के संवाद चूल्हे पर चढ़ी कांसे की पतीली में अदहन देकर चुराई गई अरहर की दाल से हैं. धुंआ खाए, नमक में चुरे, सौंधे, गले और एक छौंक में ही परोसे जाने को तैयार. संवादों के सहारे कहानी और पात्रों की सघनता, उनकी मानसिक बुनावट और कथाक्रम को मजबूती मिलती है.
फिल्म का एक्स फैक्टर है इसका नाइंटीज का सेटअप. और ये सेटअप सिर्फ ख्यालों में या कुमार सानू में ही नहीं, ड्रेस, संदर्भ और स्थितियों से भी जाहिर होता है. खुशी की बात यह है कि यह सब कहीं से ड्रामा के बोझ तले दबा नहीं दिखता. शाखा की सोच हो या बचपन के दोस्तों की मोहल्लेबाजी से उपजी प्रतिद्वंद्विंता. सब कुछ खालिस. और टॉपिंग का काम करते हैं वरुण ग्रोवर के गाने. फटाक आइटम है ये. भूसे के ढेर में राई का दाना लिखने के बाद दर्दा करारा जैसे गाने लिखता है. स्टैंडअप कॉमेडी करता है और जल्द ही मां भगवती आईआईटी सेंटर नाम की पिक्चर ला रहा है. बढ़े चलो वीर.
फिल्म में कुछ एक कमजोरी भी हैं. सेकंड हाफ में फिल्म कुछ सुस्त हो चलती है. प्रेम और संध्या के ऊहापोह को बहुत फैलाकर दिखाया गया है. कहानी का पटाक्षेप करने का तरीका, पति-पत्नी रेस भी फिल्मी है. या और मुंह खोलकर करूं तो बहुत यशराज टाइप है. पर इतना ही. बाकी फिल्म में इस बैनर की अब फॉर्मूला बन चुकी हरकतें नजर नहीं आती हैं. बैनर को बधाई कि उसने डायरेक्टर राइटर शरद कटारिया को पूरी छूट दी. शरद कहानी के लिए ईमानदार बने रहे. किरदारों की देह भाषा, उनकी जुबान, पहनावा और रंग ढंग में चुस्ती बरते रहे. फिल्म को रोमैंस या विरह के नाम पर आवारा बाजारों में भटकने नहीं दिया. अटके रहे, उस एक डोर से. जिसे चुस्त स्क्रिप्ट कहते हैं.
अगर आप अच्छी फिल्म देखने के शौकीन हैं. शादी में प्यार के कई मायनों में से कुछ एक खोजना चाहते हैं. मोटे हैं, पतले हैं. शारीरिक बुनावट के हिसाब से जोड़ेदारियां गढ़ने को तरजीह देते हैं. मजाकिया फिल्में पसंद हैं. असली सेटअप वाली फिल्में पसंद हैं या फिर हटकर फिल्में पसंद हैं, तो दम लगाके हईशा एक अच्छी च्वाइस है.