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आज अगर महमूद होते तो महज 81 साल के होते. मगर 10 बरस पहले खिलखिलाहटों का ये झरोखा दूसरी दुनिया को कहकहे बख्शने चला गया. देह गई तो क्या हुआ. उनका नाम और याद तो अमर है. हमारे तुम्हारे बीच. और आज हम महमूद साहब के जन्मदिन पर उसी को याद करते हैं.
याद में जो पहला किस्सा आता है, वह है 1965 में आई फिल्म गुमनाम का. आज इस देश के तमाम सांवरे सलोने मर्दों को उनका नायक शाहरुख खान गोरेपन की क्रीम बेचता है. नब्बे के दशक में इसी नायक को देख तमाम लोगों ने प्यार का हौसला हासिल किया था. गौर कीजिएगा, बिना क्रीम के ही. मगर उससे भी कई बरस पहले शाहरुख की पैदाइश से कुछ महीने पहले एक शख्स था, जिसने इससे भी ज्यादा हौसला दिया. सांवरेपन में तो फिर भी बच निकलने की गुंजाइश है. उसने तो कालों को उनका प्रेरणा गान दिया. हैलन सी साक्षात कामदेवी को अंगपाश में लेकर वह बेबाक बोला, 'हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं'. महमूद को इस फिल्म के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवॉर्ड भी मिला.
महमूद का जिक्र हो और 'पड़ोसन' का जिक्र न आए तो इबारत अधूरी ही रहेगी. और 'पड़ोसन' ही वह फिल्म थी, जब महमूद ने अपनी हंसी का वितान बढ़ाकर कुछ बदमाशी भी इख्तियार कर ली.
और साहेबान, वह इपिक एनकाउंटर. एक तरफ किशोर कुमार. खुद अपने ही गाने को परवाज देते. दूसरी तरफ शास्त्रीयता की पाल थामते मन्ना डे साहब. महमूद की आवाज बनते. और फिर एक चतुर नार की कमाल जुगलबंदी. एक्टिंग में महमूद और किशोर और सुनील दत्त की. और आवाज में किशोर मन्ना की.
महमूद की मशहूरियत का अंदाजा इससे लगाइए कि फिल्मों में बाकायदा जूनियर महमूद को उतारा जाने लगा. चाइल्ड आर्टिस्ट नईम सैयद को यह तमगा मिला. इस बच्चे ने शम्मी कपूर की फिल्म ब्रह्मचारी में महमूद साहब की जो एक्टिंग की. उफ तौबा. कमाल ही हो गया. इसे कहते थे स्टारडम.
और कुंवारा बाप को कौन भूल सकता है. राजेश रौशन की बतौर संगीतकार पहली फिल्म. इसका गाना, सज रही गली मेरी मां. इसमें दिखाया गया तीसरे जेंडर का ममतामयी रूप. और इन सबके ऊपर रुहानी रौशनी सी पसरी मुहम्मद रफी की आवाज.
महमूद यानी बेसाख्ता हंसी. और उसका नमूना है साधु और शैतान का ये गाना, महबूबा बना लो मुझे दूल्हा