
उत्तर प्रदेश में ना-नुकुर करते-करते कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हो तो गया लेकिन इसे अंतिम रूप देने में जिस तरह से सीटों का मोलभाव हुआ और कांग्रेस को जिस तरह से समझौते की मुद्रा में आना पड़ा उसने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सियासी समझ और क्षमता पर एक बार फिर सवाल खड़े कर दिए हैं. यही वजह है कि जो कांग्रेस तकरीबन डेढ़ सौ सीटों पर अपने उम्मीदवारों को तय मानकर बैठी थी उसे 105 सीटों के लिए सपा को राजी करने में ही पसीना बहाना पड़ा.
संकट के वक्त अखिलेश के साथ खड़ी दिखी कांग्रेस
जिस समय अखिलेश यादव अपने पिता और चाचा के साथ पार्टी और उसके चुनाव चिन्ह पर कब्जे की लड़ाई लड़ रहे थे, उस समय उनके बढ़े हुए हौसले की बड़ी वजह कांग्रेस का पर्दे के पीछे से मिल रहा समर्थन भी था. कांग्रेस नेताओं ने भी सपा में मचे घमासान के दौरान कई बार इशारों-इशारों में अखिलेश के समर्थन का ऐलान किया. चुनाव आयोग में अखिलेश की पैरवी के लिए जाने माने वकील और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ही पहुंचे.
अखिलेश ने किया था 143 सीटों का वादा
अखिलेश के साथ कांग्रेस की हमदर्दी पूरी तरह से सियासी फायदे से जुड़ी हुई थीं. कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक अखिलेश ने कांग्रेस से गठबंधन करने और 143 सीटें उसके लिए छोड़ने पर लिखित सहमति दी थी. दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के साथ किसी भी तरह के गठबंधन के खिलाफ थे. यही वजह है कि पिता-पुत्र की इस लड़ाई में कांग्रेस ने अखिलेश का साथ दिया.
साइकिल कब्जाते ही बदल गए अखिलेश
चुनाव आयोग ने जैसे ही साइकिल और सपा पर अखिलेश के कब्जे को जायज ठहराया यूपी के मुख्यमंत्री का रुख बदल गया. वे कांग्रेस से सीटों की सौदेबाजी में जुट गए और यहीं राहुल गांधी सियासत में खुद से नौसिखिया अखिलेश से मात खा गए. अखिलेश बार-बार सीटों की संख्या घटाते रहे और कांग्रेस उसपर अपनी रजामंदी की मुहर लगाती रही. अखिलेश ने सबसे तगड़ा दांव तब चला जब उन्होंने कांग्रेस से बातचीत जारी रहने के दौरान ही अपने प्रत्याशियों की लिस्ट जारी कर दी. अखिलेश की ओर से कांग्रेस को अंतिम ऑफर 100 सीटों का मिला.
अखिलेश के धोबीपटक से चित हुए राहुल
राहुल के पास अब सिवाय अखिलेश की बात मानने के कोई चारा नहीं रहा. ऐसा इसलिए भी क्योंकि कांग्रेस सपा से गठबंधन को लेकर निश्चिंत बैठी थी और जिस समय बसपा और बीजेपी के संभावित प्रत्याशी अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों में पार्टी की हवा बनाने में जुटे थे उस समय कांग्रेस के उम्मीदवार घरों में बैठकर सपा की लड़ाई थमने और सीटों के बंटवारे पर मुहर लगने के इंतजार में बैठे थे. यानी अगर कांग्रेस अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ने की कोशिश करती भी तो वो उसके लिए एक हारी हुई लड़ाई लड़ने जैसा होता.
प्रियंका और सोनिया की एंट्री से संभली बात
ऐसे समय में जबकि लग रहा था कि कांग्रेस और सपा का गठबंधन अब नहीं होगा पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रियंका ने आगे बढ़कर मोर्चा संभाला. सूत्र बताते हैं कि प्रियंका ने सीधे अखिलेश से बात की तो सोनिया ने भी मुलायम-अखिलेश के करीबी दूसरी पार्टियों के दिग्गज नेताओं को इस मामले में हस्तक्षेप करने और गठबंधन को परिणिति तक पहुंचाने की कोशिश की. ये सोनिया-प्रियंका की सक्रियता का ही असर था कि कुछ घंटों बाद ही दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन पर मुहर लगी और 105 सीटें पाकर कांग्रेस अपनी नाक बचाने में किसी तरह सफल हो पाई.
पहले भी गठबंधन के मामले में गच्चा खा चुके है राहुल
सपा-कांग्रेस के बीच गठबंधन की इस पूरी कवायद को परिणिति पर जरूर पहुंचा दिया गया हो लेकिन इससे यही संदेश गया है कि राहुल गांधी सियासत के एक छोटे से फैसले को भी खुद अपने बूते अंजाम तक नहीं पहुंचा सके वो भी तब जबकि अखिलेश यादव के साथ उनके रिश्ते वैसे नहीं हैं जैसे कि आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के साथ थे. 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और बीजेपी के मजबूत गठबंधन से मुकाबला करने के लिए राहुल गांधी के पास आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और एलजेपी के रामविलास पासवान से गठबंधन का विकल्प था लेकिन राहुल चुनाव में कांग्रेस को अकेले ले गए. नतीजा कांग्रेस बिहार में 6 सीटों पर सिमट गई. लोकसभा चुनाव में आरजेडी से राहुल ने गठबंधन तो किया लेकिन लालू प्रसाद यादव के साथ मंच पर नहीं चढ़े, हालांकि बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने गलती सुधारी और नतीजा ये हुआ कि वो सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा है.