
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का बिगुल किसी भी दिन फूंका जा सकता है लेकिन देश के इस सबसे बड़े सूबे की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी अभी तक अपने अंदर ही घमासान से जूझ रही है. एक तरफ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव प्रदेश की तकरीबन सभी सीटों पर अपने पसंदीदा उम्मीदवारों का चयन कर इसकी विस्तृत सूची राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह को सौंप चुके हैं तो दूसरी ओर पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष ने भी 175 उम्मीदवार फाइनल कर अपनी सूची मुलायम को सौंपी है. बताने की जरूरत नहीं है कि इन दोनों सूचियों में अपने-अपने विश्वस्त नेताओं को टिकट देने की सिफारिश की गई है. अब खबर आई है कि अखिलेश यादव की इस लिस्ट में शामिल तकरीबन आधे नेता तो टिकट न मिलने पर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतरने के लिए तैयार हैं. हालांकि राजनीतिक जानकार इसे अखिलेश की 'प्रेशर टैक्टिस' ज्यादा बता रहे हैं और इसकी वजहें भी हैं.
-चुनावी राजनीति की समझ रखने वाले जानते हैं कि बिना किसी पार्टी के सपोर्ट के अपने दम पर चुनाव जीतना नामुमकिन नहीं, तो मुश्किल जरूर रहा है. अगर हम यूपी का ही चुनाव इतिहास देखें तो ज्यादातर ऐसे ही निर्दलीय उम्मीदवार मिलेंगे जो या तो अपने बाहुबल की वजह से जीते हैं या इलाके में उनकी लोकप्रियता बहुत ज्यादा थी लेकिन ऐसे गिने-चुने मामले ही रहे हैं.
-निर्दलीय उम्मीदवार भले ही किसी पार्टी के टिकट पर न खड़े हों लेकिन वे सबसे ज्यादा नुकसान उसी पार्टी को पहुंचाते हैं जिनसे उनका जुड़ाव रहा है. क्योंकि कार्यकर्ता से लेकर वोट बैंक तक दोनों का समान होता है। ऐसे में निर्दलीय उम्मीदवारों के मैदान में उतरने से नुकसान तो समाजवादी पार्टी का ही होगा जो सीधे-सीधे अखिलेश का नुकसान बनेगा.
-अगर अखिलेश यादव अपने समर्थक नेताओं को निर्दलीय उम्मीवार बना भी देते हैं तो वे इनके लिए वोट मांगने कैसे जाएंगे? क्या वे उसी सीट पर समाजवादी पार्टी का झंडा उठाए और साइकिल का चुनाव चिन्ह लेकर लड़ रहे अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ वोट मांगेंगे?
-अखिलेश पार्टी में आज अपने चाचा शिवपाल यादव के खिलाफ इतनी मजबूती से अगर खड़े हैं तो इसकी वजह है उनकी छवि और सरकार का कामकाज, लेकिन वे इस बात को नहीं भूल सकते हैं कि प्रदेश में दूरदराज बैठा वोटर उन्हें सपा के मुख्यमंत्री के रूप में ही जानता है. ऐसे वोटर अखिलेश को दोबारा सीएम बनाने के लिए सपा को ही वोट देंगे और ईवीएम में साइकिल के सामने का ही बटन दबाएंगे भले ही प्रत्याशी उनकी बजाय, उनके चाचा शिवपाल के खेमे का हो.
-थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि अखिलेश 200 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में उतारते हैं और उनमें से बड़ी संख्या में चुनाव जीत जाते हैं तो क्या गारंटी है कि वे जीत के बाद भी अखिलेश के साथ बरकरार रहेंगे. यूपी का राजनीतिक इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिनमें निर्दलीयों ने अपनी जीत के पूरी कीमत सत्ताधारी पार्टी से वसूली है और वक्त-वक्त पर पाला बदला है.