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क्या जेडीयू को इग्नोर करना पड़ सकता है BJP को भारी? ये है नीतीश की ताकत का गणित

2009 के लोकसभा चुनाव में भी जेडीयू बड़े भाई की भूमिका में रही और पार्टी ने 25 सीटों पर चुनाव लड़ा. इस चुनाव में जेडीयू ने 20 सीटें जीतीं, जबकि बीजेपी 12 सीटों पर जीत पाई.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार
जावेद अख़्तर
  • नई दिल्ली,
  • 08 जुलाई 2018,
  • अपडेटेड 9:00 PM IST

2019 का चुनावी बिगुल बजते ही बिहार की राजनीति दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है. एक साल पहले आरजेडी और कांग्रेस का साथ छोड़ बीजेपी का दामन थामने वाले नीतीश कुमार अब एनडीए में अपनी हिस्सेदारी को लेकर सख्त मोड में नजर आ रहे हैं. रविवार को दिल्ली में आयोजित जेडीयू (जनता दल यूनाइटेड) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उन्होंने साफ किया कि जो उनकी पार्टी को नजरअंदाज करेगा, वह राजनीति में खुद इग्नोर हो जाएगा. तो क्या नीतीश के पास इतनी ताकत है, जो बीजेपी को उनकी शर्तें मानने पर मजबूर करेगी या फिर उन्हें अपनी उपेक्षा का डर सता रहा है, जिसे लेकर वो पहले ही सचेत हैं.

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लोकसभा चुनाव का गणित

दरअसल, पिछले कुछ चुनावों के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो चुनाव-दर चुनाव जेडीयू की स्थिति कमजोर होती दिखाई पड़ती है. अपने गठन के बाद से ही जनता दल यूनाइटेड एनडीए यानी बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा रही है. हालांकि, 2013 में जेडीयू ने 17 साल बाद बीजेपी का दामन छोड़कर कांग्रेस और आरजेडी के साथ राज्य में सरकार बनाई थी. ये गठबंधन ज्यादा वक्त नहीं चल सका और एक बार फिर 2017 में नीतीश कुमार ने घर वापसी करते हुए बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया.

2004 लोकसभा चुनाव में चमकी जेडीयू

भारतीय जनता पार्टी ने 2004 का लोकसभा चुनाव शाइनिंग इंडिया के नारे पर लड़ा. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व का दम भी बीजेपी की नैय्या पार नहीं लगा पाया और यूपीए ने केंद्र में सरकार बनाई. इस चुनाव में भी जेडीयू मजबूती के साथ चुनाव लड़ी. बिहार की कुल 40 लोकसभा सीटों में 26 पर जेडीयू ने चुनाव लड़ा, जबकि 14 सीटें बीजेपी के खाते में गईं. इन 26 सीटों में से जेडीयू महज 6 पर जीत सकी, जबकि बीजेपी ने 14 में से 5 सीटें जीतीं.

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वहीं, 2009 के लोकसभा चुनाव में भी जेडीयू बड़े भाई की भूमिका में रही और पार्टी ने 25 सीटों पर चुनाव लड़ा. इस चुनाव में जेडीयू ने 20 सीटें जीतीं, जबकि बीजेपी 12 सीटों पर जीत पाई.

2014 में लगा जेडीयू को झटका

2014 के लोकसभा चुनाव में तस्वीर बिल्कुल अलग थी. जेडीयू बीजेपी का साथ छोड़ चुकी थी. बीजेपी ने 29 सीटों पर चुनाव लड़ा और 22 पर जीत दर्ज की. जबकि उसके गठबंधन दल रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने 7 सीटों में से 6 पर जीत दर्ज की और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी ने 4 में से 3 सीटों पर परचम लहराया. जबकि अकेले दम पर चुनाव लड़ने वाली जेडीयू को 40 में से महज 2 सीटें मिलीं.

अब खबर ये आ रही है कि जेडीयू 2009 के फॉर्मूले पर ही 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ना चाहती है. जबकि बीजेपी इस कंडीशन को मानने के मूड में नजर नहीं आ रही है. इसकी बड़ी वजह एनडीए के दूसरे गठबंधन भी हैं, जिन्होंने मोदी लहर में 2014 के चुनाव में उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया था. पासवान की पार्टी ने 7 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसमें 6 सीटें जीत कर दिखाई थीं, जबकि उपेंद्र कुशवाहा ने 4 में तीन सीटें जीत ली थीं. ऐसे में पासवान एक बार फिर कम से कम 7 सीटें मिलने की उम्मीद कर रहे हैं.

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यही वजह है कि एनडीए में बीजेपी, एलजेपी और आरएलएसपी के बाद अब जेडीयू शामिल होने के बाद सीट बंटवारा एक बड़ी चुनौती है. इस संबंध में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह 12 जुलाई को पटना जा रहे हैं, जहां वह नीतीश कुमार के साथ बैठक करेंगे. इससे पहले 7 जुलाई को नीतीश कुमार पासवान के साथ दिल्ली में मुलाकात कर चुके हैं.

शाह के साथ मुलाकात से पहले ही नीतीश कह रहे हैं कि सबसे बुरी स्थिति में भी उन्हें 17 प्रतिशत वोट मिला था. हालांकि, वोट शेयर पर गौर किया जाए तो 2015 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को सबसे वोट मिला था. जबकि राज्य में सरकार आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस ने मिलकर बनाई थी. बीजेपी को इस विधानसभा चुनाव में 24 प्रतिशत वोटों के साथ 53 सीटें मिली थीं. जबकि जेडीयू को 17% वोट के साथ 71 सीटें मिली थीं. ऐसे में 2014 का चुनावी रण फतह करने वाली बीजेपी को अपनी ताकत पर भी पूरा भरोसा है.

अब देखना दिलचस्प होगा कि सीटों को लेकर एनडीए में किस फॉर्मूले पर सहमति बन पाती है, क्योंकि पासवान से लेकर जेडीयू तक ये साफ कर चुकी है कि वह 2019 का चुनाव एनडीए में रहकर ही लड़ने वाली हैं. ऐसे में मौजूदा स्थिति के लिहाज से 40 सीटें 4 दलों में किस प्रकार बंट पाती हैं, ये देखने वाली बात होगी. इससे ये तो साफ है कि 2009 के फॉर्मूले का रास्ता तलाश रही जेडीयू की मुराद शायद ही पूरी हो सके. शायद यही वजह है कि राजनीतिक हल्कों में ये कयास भी लगाए जा रहे हैं कि कहीं नीतीश कुमार कुशवाहा और पासवान के साथ मिलकर मैदान में न उतर जाएं या वो कोई और ट्रेन न पकड़ लें.

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